वैसे तो हर आदमी अपने आप में यूनिक और दूसरे आदमी से अलग होता है लेकिन हिन्दी सिनेमा में राजकुमार तो सचमुच एकदम जुदा किस्म की शख़्सियत थे। मुझे उनको याद करते ही पाकिजा का उनका प्रसिद्ध डॉयलॉग याद आता है जब वो ट्रेन में मीना कुमारी को सोती हुई देख कर उनके पांव देखकर कहते हैं मैंने तुम्हारे पांव देखे बहुत हसीन हैं इन्हें जमीन पर मत उतारिएगा मैले हो जाएंगे।
राजकुमार का अभिनय तो औसत किस्म का था, लेकिन अपनी अलग अंदाज की डॉयलॉग डिलिवरी और खालिस ऊर्दू के लहजे का ऊम्दा इस्तेमाल उन्हें अलग पहचान दिलाने में कामयाब रखा। खासकर ऐसे दौर में जब दिलीप कुमार और राजकपूर जैसे बेहतरीन अभिनेता काम कर रहे थे। वहीं राजेंद्र कुमार जैसे जुबली कुमार की तकरीबन हर फिल्म हिट हो रही थी।
राजकुमार की पहचान अहंकारी, अक्खड़ और दूसरे लोगों को हमेशा नीचा दिखाने वाले इन्सान के रूप में भी रही है। वे लोगों से कम मिलने वाले और कुछ हद तक कछुए की तरह अपनी ही खोल में घुसकर रहने वाले व्यक्ति थे।
सन् नब्बे के शुरूआती वर्षों में राजकुमार गले के दर्द से जूझ रहे थे यहां तक की बोलना भी दुश्वार हो रहा था। उस अदाकार की आवाज ही उसका साथ छोड़ रही थी जिसकी आवाज ही उसकी पहचान थी। राजकुमार डॉक्टर के पास पहुंचे तो डॉक्टर ने हिचकिचाहट दिखाई। उसकी हिचकिचाहट भांपते हुए राज साहब ने कारण पूछा. जवाब आया कि आपको गले का कैंसर है.
राजकुमार- डॉक्टर! राजकुमार को छोटी मोटी बीमारियां हो भी नहीं सकती।
पुलिस सेवा में काम किया
राजकुमार का जन्म अविभाजित भारत के बलोच प्रान्त में कश्मीरी पंडित परिवार में हुआ था। उनका असली नाम कुलभूषण पंडित था। राजकुमार पुलिस सेवा में थे।
फिल्मों का सफर
नज़म नक़वी की फिल्म रंगीली (1952) से फिल्मों में आए। राजकुमार को पहचान मिली सोहराब मोदी की फिल्म नौशेरवां-ए-आदिल से।इसी साल आई फिल्म मदर इंडिया में नरगिस के पति के छोटे से किरदार में भी राजकुमार खूब सराहे गए।
सोहराब मोदी की सरपरस्ती में फिल्मी जीवन शुरू करने के कारण यह लाजिमी था कि राजकुमार संवादों पर विशेष ध्यान देते. हुआ भी यही, बुलंद आवाज और त्रुटिहीन उर्दू के मालिक राजकुमार की पहचान एक संवाद प्रिय अभिनेता के रूप में बनी।
मीना कुमारी के साथ जोड़ी
साठ के दशक में राजकुमार की जोड़ी मीना कुमारी के साथ खूब सराही गई और दोनों ने ‘अर्द्धांगिनी’, ‘दिल अपना और प्रीत पराई’, ‘दिल एक मंदिर’, ‘काजल’ जैसी फिल्मों में साथ काम किया. यहां तक कि लंबे अरसे से लंबित फिल्म ‘पाकीजा’ में काम करने को कोई नायक तैयार न हुआ तब भी राजकुमार ने ही हामी भरी. मीना कुमारी के अलावा वे किसी नायिका को अदाकारा मानते भी नहीं थे।
राजकुमार को ध्यान में रख कर बनी फिल्में
फिल्में ही नहीं बल्कि संवाद भी राजकुमार के कद को ध्यान में रख कर लिखे जाने लगे. ‘बुलंदी’ ‘सौदागर’, ‘तिरंगा’, ‘मरते दम तक’ जैसी फिल्में इस बात का उदाहरण हैं कि फिल्में उनके लिए ही लिखी जाती रहीं। सौदागर में अपने समय के दो दिग्गज अभिनेताओं दिलीप कुमार व राजकुमार का मुकाबला देखने लायक था। इसी तरह तिरंगा में राजकुमार का सामना उन्हीं की तरह के मिज़ाज और तेवर वाले अभिनेता नाना पाटेकर से हुआ था लेकिन अपने अभिनय की सीमाओं के बावजूद वो के अपने संवाद अदायगी और स्टाइल की वजह से सभी अभिनेताओं को कड़ी टक्कर देते थे।
पाकिजा का किस्सा
राजकुमार अनुशासनप्रिय इंसान ही नहीं अपनी ही शर्तों पर हठी भी थे. और इसी हठ के उनके कई किस्से फिल्मी गलियारों में मौजूद हैं. ऐसा ही एक किस्सा फिल्म पाकीजा का है।
फिल्म के एक दृश्य में राजकुमार, मीना कुमारी से निकाह करने के लिए तांगे पर लिए जाते है. तभी एक शोहदा उनका पीछा करता हुआ आता है. स्क्रिप्ट के अनुसार राजकुमार उतर कर शोहदे के घोड़े की लगाम पकड़ लेते हैं और उसे नीचे उतरने को कहते हैं. शोहदा उनके हाथ पर दो-तीन कोड़े मारता है और फिर राजकुमार लगाम छोड़ देते हैं।
इस दृश्य पर राजकुमार अड़ गए. उनका कहना था कि ऐसा कैसे हो सकता है कि एक मामूली गली का गुंडा राजकुमार को मारे! होना तो यह चाहिए कि मैं उसे घोड़े से खींच कर गिरा दूं और दमभर मारूं. निर्देशक ने समझाया कि आप राजकुमार नहीं आपका किरदार सलीम खान का है. राजकुमार नहीं माने. निर्देशक ने भी शोहदे को तब तक कोड़े चलाने का आदेश किया जब तक राजकुमार लगाम न छोड़ दें. अंततः बात राजकुमार की समझ में आ गई।
इसलिए छोड़ी जंजीर
राजकुमार ने फिल्म ‘जंजीर’ महज इसलिए छोड़ दी थी क्योंकि कहानी सुनाने आए प्रकाश मेहरा के बालों में लगे सरसों के तेल की महक उन्हें नागवार गुजरी थी. अमिताभ के एक शूट की तारीफ करते हुए उन्होंने कहा ‘मुझे इसी कपड़े के पर्दे बनवाने हैं.’ बप्पी लाहीड़ी के गहनों से लदे रहने पर तो राजकुमार ने व्यंग करते हुए कहा कि बस मंगलसूत्र की ही कमी है।
राज कुमार ने पचास से ज्यादा फिल्मों में अभिनय किया, जिनमें कुछ प्रमुख फ़िल्में थीं – मदर इंडिया, दुल्हन, जेलर, दिल अपना और प्रीत पराई, पैगाम, अर्धांगिनी, उजाला, घराना, दिल एक मंदिर, गोदान, फूल बने अंगारे, दूज का चांद, प्यार का बंधन, ज़िन्दगी, वक़्त, पाकीजा, काजल, लाल पत्थर, ऊंचे लोग, हमराज़, नई रौशनी, मेरे हुज़ूर, नीलकमल, वासना, हीर रांझा, कुदरत, मर्यादा, सौदागर, हिंदुस्तान की कसम। अपने जीवन के आखिरी वर्षों में उन्हें कर्मयोगी, चंबल की कसम, तिरंगा, धर्मकांटा, जवाब जैसी कुछ फिल्मों में बेहद स्टीरियोटाइप भूमिकाएं निभाने को मिलीं।
राजकुमार साहब अपने अंतिम दिनों तक उसी ठसक में रहे. फिल्में अपनी शर्तों पर करते रहे. फिल्में चलें न चलें वह बेपरवाह रहते थे। बकौल राजकुमार- राजकुमार फेल नहीं होता. फिल्में फेल होती हैं।
आखिरी सालों मे वह शारीरिक कष्ट में रहे मगर फिर भी अपनी तकलीफ लोगों और परिवार पर जाहिर नहीं होने दी. उनकी आखिरी प्रदर्शित फिल्म गॉड एण्ड गन रही. 3 जुलाई 1996 को राजकुमार दुनिया से विदा ले गए. वह जब तक रहे अपनी शर्तों पर फिल्में करते रहे।
नवीन शर्मा