NRC and Apprehensive CAA: एनआरसी और आशंका भरा नासंका ( सीएए )

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” आप को सड़क पर खड़े होकर छड़ी घुमाने का अधिकार है, पर तभी तक, जब तक कि वह छड़ी किसी की नाक में न लगे। “
यह एक प्रसिद्ध उद्धरण है जो निजी स्वतंत्रता की सीमा रेखा तय करता है। नागरिकता संशोधन कानून ( नासंका ) या सीएए के पारित हो जाने के बाद देश भर में उसका विरोध शुरू हुआ और कहीं कहीं हिंसक भी हुआ। राजनीतिक विरोध प्रदर्शनों में धर्म का घालमेल घातक है। एनआरसी और सीएए के खिलाफ होने वाले प्रदर्शन अगर किसी भी धार्मिक स्थल में होते हैं तो उनका बहिष्कार किया जाना चाहिये। धर्म का राजनैतिक विरोधों में घालमेल न केवल निंदनीय है बल्कि यह भी उसी संविधान के प्रतिकूल है जिसके नाम और भावना पर हम सीएए का विरोध कर रहे हैं। सरकार को अराजकता फैलाने वाले हिंसक तत्वो से सख्ती से निपटना चाहिये।
नागरिकता संशोधन बिल पर काफी चर्चा हुयी और अंततः संसद ने बहुमत से उस कानून को मंजूरी दे दी। बिल और अब कानून बनने के बाद, विधिवेत्ताओं में यह चर्चा आम है कि संविधान की कसौटियों पर यह बिल खरा उतरता है या नहीं। इस बिल को लेकर अब तक कुछ 69 याचिकायें सुप्रीम कोर्ट में विभिन्न याचिकाकर्ताओं द्वारा दायर की जा चुकी हैं। 18 दिसंबर को सुप्रीम कोर्ट ने इन याचिकाओं की सुनवाई की और सरकार को नोटिस जारी की तथा शीतावकाश के बाद जब अदालत बैठेगी तब इसकी सुनवायी होगी। लेकिन अदालत ने कानून के लागू होने पर कोई स्थगनादेश नहीं दिया है। कानून अब लागू है। हालांकि अब प्रधानमंत्री कह रहे हैं, कि एनआरसी के बारे में सरकार ने कोई फैसला ही नहीं लिया है। जबकि अमित शाह ने लोकसभा में एनआरसी लाने की बात मजबूती से कही थी।
19 दिसंबर 2019 को देश भर में इस कानून के विरोध करने के लिये लोगों द्वारा धरना प्रदर्शन करने का आह्वान किया गया। जिन राजनीतिक दलों ने संसद में विरोध किया था, उन्होंने इसका सड़क पर भी विरोध करने का आह्वान किया। दिल्ली कोलकाता, मुम्बई, चेन्नई, बेंगलुरु, हैदराबाद, लखनऊ, कानपुर, अहमदाबाद सहित पूरे देश मे प्रदर्शन हुए औऱ इससे देश मे साम्प्रदायिक भेदभाव बढाने वाला कानून कह कर इसका विरोध किया। आम जनता से लेकर ख्यातिप्राप्त विद्वान, बुद्धिजीवी, वैज्ञानिक, वकील तथा अन्य लोग भी सड़को पर उतरे और गिरफ्तारी दी। सामान्य विश्वविद्यालयों के छात्र और अध्यापक तो सड़कों पड़ उतरे ही, पर अमूमन देश की मुख्य धारा और राजनीतिक प्रदर्शनों से अलग रहने वाले आईआईटी, औआईएम औऱ इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस के छात्र भी सड़कों पर आए। इस आंदोलन का असर विश्वव्यापी रहा। दुनियाभर के प्रसिद्ध विश्वविद्यालयों के छात्रों ने सड़कों पर उतर कर भारतीय संविधान के पक्ष में अपनी आवाज़ बुलंद की। यह आंदोलन अब भी चल रहा है।
अब यह सवाल उठता है कि लोग इतने आंदोलित क्यों हैं ? यह कानून किस प्रकार से भारतीय संविधान के स्थापित मानदंडों और प्राविधानों के विपरीत है ? सरकार लोगों को यह क्यों नहीं समझा पा रही है कि यह कानून देश के सर्वोच्च कानून, भारतीय संविधान के विपरीत नहीं है ? कैसे इससे जनता का हित सधेगा और कैसे यह कानून लंबे समय से चले आ रहे नॉर्थ ईस्ट में घुसपैठ की समस्या का समाधान करेगा ? सरकार ने जनता को समझाने की बात तो छोड़ ही दीजिए, सरकार ने इस कानून को पारित करने के पूर्व सभी राजनीतिक दलों को भी विश्वास में नहीं लिया और वह लोगों को यह विश्वास दिलाने में सफल नहीं हुई कि इस कानून से जनता का अहित नहीं होगा।
इस कानून से सबसे अधिक प्रभावित असम के लोग होंगे। असम की जिस समस्या से इस कानून का उद्गम हुआ है आइए उस पर एक चर्चा करते हैं। असम का महाभारत कालीन नाम प्राग्ज्योतिषपुर था जो कामरूप की राजधानी थी।1228 ई में चीनी मूल के बर्मा का एक राजा चाउ लुंग सिउ का फा,, ने इस पर अपना अधिकार कर लिया, जो ‘अहोम’ वंश का था, जिसके कारण, राज्य का नाम असम हो गया।1826 ई में अंग्रेजों ने असम जीत लिया और  1874 में संयुक्त असम, जिसमें आज के नागालैंड, मेघालय, मिजोरम और अरुणाचल भी शामिल थे, पर अंग्रेज़ चीफ कमिश्नर का राज शुरू हो गया.।
अंग्रेजों ने असम के पहाड़ों की ढलान पर चाय के बागान लगाना शुरू कर दिया और इन बागानों में काम करने के लिये बंगाल और बिहार से मजदूर जो हिंदू और मुसलमान दोनों ही थे, आये और यह मजदूर असम में ही बसने लगे। असम के तीन जिले आज के बांग्लादेश की सीमा से लगते हैं लेकिन फिर भी असम में बांग्ला भाषियों की एक बड़ी संख्या रहती है।
बंटवारे के दौरान और फिर उसके बाद लगातार लोग ईस्ट पाकिस्तान से आकर असम में बसते गए. आज़ादी के बाद पहले और दूसरे दशक में असम की आबादी 36 और 35 फीसदी बढ़ी. जो शेष भारत के आबादी वृध्दि की दर से,10 – 12 फीसदी अधिक थी। इससे असम के मूल निवासियों के मन में अपनी ज़मीन पर ही अल्पसंख्यक बनने का डर पैदा हो गया। मूल समस्या की जड़ यही है।
1972 तक सिक्किम और त्रिपुरा के अलावा नॉर्थ-ईस्ट के सभी राज्य असम का हिस्सा थे। ऐसे में असम की पूरी सीमा तब के पूर्वी पाकिस्तान से लगती थी जो 1971 में बांग्लादेश बना। तब तक बांग्लादेश से बहुत से लोग, भारत में मुख्य रूप से संयुक्त असम, त्रिपुरा और पश्चिम बंगाल में  आकर बसने लगे।. लेकिन संयुक्त असम के और हिस्सों, (जो बाद में अलग राज्य बन गए) में ये ज़्यादा दिन टिक न सके। क्योंकि वे इलाके जनजातीय बहुल और कठिन भौगोलिक परिस्थितियों से भरे थे। इस कारण,  ज़्यादातर बांग्लादेशियों ने बंगाल, त्रिपुरा और असम में बसना पसंद किया। वे नागालैंड, मिजोरम, और अरुणाचल की ओर नहीं गये। इन घुसपैठियो में, बांग्लादेश से अच्छी खासी संख्या में हिंदू भी आकर  भारत में बस गए थे। धीरे धीरे असम के कई  सीमावर्ती इलाकों में बांग्लादेशियों की संख्या इतनी अधिक हो गई कि वे वहां के मूल निवासियों पर हावी होने लगे।  फिर असम में मूल निवासियों और घुसपैठियों में छिटपुट हिंसा भी होने लगी थी।
असम की एक विधानसभा सीट मंगलडोई के 1979 में हुए उपचुनाव में अचानक जब 70,000 वोटर बढ़ गए तो असम में इस अप्रत्याशित वृध्दि को लेकर हंगामा खड़ा हो गया और असम गण परिषद और ऑल असम स्टूडेंट्स यूनियन ने असम से विदेशियों / बांग्लादेशियों को निवालने के लिये आंदोलन शुरू कर दिया। आसू एक पुराना छात्र संगठन था जो 1940 में दो फाड़ होकर  ऑल असम स्टूडेंट फेडरेशन और ऑल असम स्टूडेंट कांग्रेस हो गया लेकिन,1967 में दोनों मिल कर पुनः ऑल असम स्टूडेंट यूनियन बन गये।आसू के नेता, प्रफुल्ल कुमार महंता और असम गण परिषद का नेतृत्व बिरज कुमार शर्मा के पास था। दोनों ने मांग की कि 1961 के बाद असम में आए बांग्लादेशियो के नाम वोटर लिस्ट से हटाए जाएं और इनको यहां से खदेड़ा जाये। असम का यह आंदोलन असम आंदोलन कहलाया। असम आंदोलन की पूरी पृष्ठभूमि असमिया अस्मिता और  पहचान को लेकर थी. इसीलिए उनके निशाने पर वो सब थे जो असमिया नहीं थे। असम आंदोलन मुसलमानों के खिलाफ नहीं बल्कि, विदेशी या बांग्लादेश से आये हिंदू के भी उतना ही खिलाफ था।  बिहार और यूपी से गए लोगों को भी असम आंदोलन बाहरी ही मानता था। यह आंदोलन न तो तब सांप्रदायिकता के आधार पर शुरू हुआ था औऱ न अब हिंदू मुस्लिम आधार पर है।
1979 से असम आंदोलन तेज़ हो गया, और 1979 से लेकर 1985 असम समझौते तक राज्य में राजनीतिक अस्थिरता बनी रही।इसी की आड़ में यूनाइटेड लिबरेशन फ्रंट ऑफ असम जैसे कुछ अलगाववादी संगठन, जो आतंकी संगठन थे, सक्रिय हो गए। 1983 में, असम के सभी क्षेत्रीय दलों ने राज्य विधानसभा के चुनावों का बहिष्कार किया। उनकी मांग थी कि, सरकार पहले घुसपैठियों के नाम वोटर लिस्ट से खारिज करे, तब चुनाव की प्रक्रिया शुरू हो। लेकिन सरकार ने इसे नहीं माना, परिणामस्वरूप, चुनाव के दौरान जमकर हिंसा हुई। इसी बीच, 18 फरवरी, 1983 को नेली में 14 गांवों को घेरकर करीब 2,000 मुसलमानों की हत्या कर दी गई। इसके पीछे असम आंदोलन के लोगों का भी नाम आया। ऐसी अशन्ति के वातावरण में केवल, 126 विचानसभा की सीटों में से 109 सीटों पर ही चुनाव हुआ, और  कांग्रेस ने 91 सीटें जीतकर सरकार बना ली और हितेश्वर सैकिया नए मुख्यमंत्री बने। .
नेली नरसंहार के बाद, बिहार, बंगाल या भारत के ही किसी अन्य क्षेत्र के व्यक्ति को, बाहरी बताकर राज्य से बेदखल न किया जाए इस दृष्टिकोण को सामने रखकर इंदिरा गांधी की सरकार ने 1983 में एक और कानून बनाया जिससे सारा मामला और उलझ गया। यह कानून था इल्लीगल माइग्रेंट्स (डिटरमिनेशन बाय ट्राइब्यूनल) एक्ट, जो बना तो था, विदेशियों को असम से बाहर भेजने के लिए, लेकिन इसके ज़्यादातर  प्राविधान असम के मूल निवासियों को रास नहीं आये। कानून के मुख्य प्राविधान, यह थे,
● किसी विदेशी के खिलाफ शिकायत पर, शिकायतकर्ता को ही यह आरोप सिद्ध करना होगा कि आरोपी विदेशी है।
● अगर वह यह आरोप साबित भी कर देता है तो सरकार आरोपी को अपनी नागरिकता साबित करने का मौका देगी. इसके लिए उसे बस अपना राशन कार्ड देना होगा जिससे उसकी नागरिकता बनी रहेगी।
● साथ ही शिकायतकर्ता और आरोपी के घर तीन किलोमीटर के दायरे में होने चाहिए. नहीं तो शिकायत मान्य ही नहीं होगी।
इस जटिलता ने किसी भी विदेशी की पहचान करना, मुश्किल हो गया।
1984 में इंदिरा जी की हत्या के बाद,  राजीव गांधी, पीएम बने और 1985 में लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को अपार बहुमत मिला। 1985 में, राजीव गांधी की  सरकार ने असम आंदोलनकारियों से कई दौर की बातचीत के बाद, 14 अगस्त 1985 को एक समझौता किया, जो असम समझौता या असम अकॉर्ड कहा गया। भारत सरकार से हुये, इस समझौते पर, असम की तरफ से,  प्रफुल्ल महंता, बीके फुकान और ऑल असम संग्राम गण परिषद ने हस्ताक्षर किये । एक लंबे विवाद का यह तात्कालिक समाधान था।
असम समझौता 1985 के मुख्य प्राविधान निम्न थे,
● ऐसे विदेशी लोग जो पहले असम से बाहर निकाल दिए गए लेकिन फिर से वापस आ गए. उन्हें बाहर निकाला जाएगा.
● जो लोग 1 जनवरी, 1966 से 24 मार्च 1971 की मध्यरात्रि तक असम में आए, इन लोगों को विदेशी माना जाएगा. इन लोगों के नाम वोटर लिस्ट से हटाए जाएंगे. ऐसे लोगों को रजिस्ट्रेशन ऑफ फोरेनर रूल,1939 के तहत खुद को विदेशी नागरिक की तरह जिला पंजीकरण ऑफिस में रजिस्टर कराना होगा।
●  विदेशी नागरिकों की पहचान और उन्हें देश से बाहर निकालने की कार्रवाई के लिए 1 जनवरी 1966 से पहले असम में आए विदेशी नागरिक, जिनके नाम 1967 में हुए आम चुनाव की वोटर लिस्ट में था वो भारत के नागरिक माने जाएंगे.
● 25 मार्च, 1971 के बाद जो भी विदेशी असम में आए हैं उनकी पहचान कर असम से बाहर निकाला जाएगा।
● असम राज्य की सांस्कृतिक, सामाजिक और भाषाई पहचान को बचाए रखने के लिए भारत सरकार संवैधानिक और प्रशासनिक मदद देगी।
● भारत सरकार ही सिटीजनशिप सर्टिफिकेट बांट सकेंगी.
इसके बाद, सीएम हितेश्वर सैकिया ने इस्तीफा दे दिया। 13-14 अक्टूबर, 1985 को गोलघाट में बने, एक राजनीतिक दल,  असम गण परिषद.को चुनाव में सफलता मिली और 32 साल के, प्रफुल्ल कुमार महंता. देश के सबसे युवा सीएम बने। लेकिन बांग्लादेशी लोगों को वापस भेजने के लिए कोई ठोस कदम नहीं किसी ने नहीं उठाया। सरकारें बदलती रहीं और समस्या बनी रही।
यह समाधान इस समस्या को सुलझा नहीं सका। असम के क्षेत्रीय दलों ने, आईएमडीटी एक्ट, को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी और सुप्रीम कोर्ट की संवैधानिक पीठ ने 2005 में इस एक्ट को असंवैधानिक बताते हुए निरस्त कर दिया। असम में विदेशियों के मामले पर फिर से सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई हुई और सुप्रीम कोर्ट ने एक रजिस्टर जो नेशनल रजिस्टर ऑफ सिटीजन एनआरसी, जिसमें असम में रहने वाले भारतीय नागरिकों की पहचान दर्ज हो, बनाने का आदेश दिया। और यह भी कहा कि, जिसका नाम उसमें न हो, वह विदेशी माना जाए।  यह एनआरसी, 2015 से चल रही थी, जो सुप्रीम कोर्ट की निगरानी में पूरी हुयी और उसके अनुसार, 19 लाख लोग भारतीय नागरिक नहीं माने गए जिसमें 14 लाख हिंदू और शेष मुस्लिम हैं।
घुसपैठिया समास्या के निदान के लिये बनायी गयी एनआरसी ने एक नयी समस्या उत्पन्न कर दी। इन घुसपैठियों का क्या किया जाय ? हालांकि बांग्लादेश देश ने शुरू में तो अपने नागरिकों के होने की बात से इंकार किया लेकिन बाद में उसने अपने नागरिकों की सूची मांगी और वापस लेने की पेशकश भी की। लेकिन यह भी कहा क़ि उनके यहां भी, पांच लाख बिहारी हैं जो बांग्लादेश में रह रहे हैं। भारत ने बांग्लादेश से उसके नागरिकों को वापस लेने के लिए कोई बातचीत नहीं की, क्योंकि जब बांग्लादेश की प्रधानमंत्री शेख हसीना से इस समस्या के बारे में पूछा गया तो, उन्होंने कहा कि भारत ने इसे अपनी आंतरिक समस्या बताया है। सच तो यह है कि, भाजपा की असल समस्या 14 लाख हिंदुओ को लेकर है। जैसा परिणाम एनआरसी की जांच पड़ताल से आया है वैसे परिणाम की उम्मीद भाजपा को नहीं थी। अतः एनआरसी का विरोध असम सहित पूरे नॉर्थ ईस्ट में होने लगा। तब इनको नागरिकता देने के लिये सरकार ने नागरिकता संशोधन कानून बनाया, जिससे धर्म के आधार पर 2014 तक असम में आये गैर मुस्लिम घुसपैठिया को नागरिकता देने का प्राविधान किया गया। धर्म पर आधारित इसी भेदभाव से यह कानून अनेक आशंकाओं को जन्म देता है।

इस प्रकार 1600 करोड़ रुपये और लम्बा समय खर्च करने के बाद एनआरसी की कवायद  न तो अपना उद्देश्य पूरा कर पायी और न ही असम की जनता को संतुष्ट कर पायी। अगर नागरिकता संशोधन कानून को एनआरसी से अलग कर के देखेंगे तो यह केवल असम तक ही सिमटी जान पड़ेगी, अगर हम इस कानून की संवैधानिकता की बहस फिलहाल छोड़ दें तब भी। लेकिन जब, जैसा कि गृहमंत्री ने लोकसभा में कहा कि एनआरसी पूरे देश मे लागू होगी, के साथ सीएए को जोड़ कर देखें तो हम एक बड़ी समस्या खुद ही पैदा करने जा रहे हैं। देशव्यापी एनआरसी में 130 करोड़ की आबादी को यह साबित करना पड़ेगा कि वह इस देश का नागरिक है। क्या दस्तावेज मांगे जाएंगे, वर्तमान आधार कार्ड और वोटर आईडी की क्या हैसियत होगी, यह अभी पता नहीं है। असम का अनुभव केवल घुसपैठिया को ही नहीं बल्कि सारे नागरिकों को आशंकित किये हुए हैं। फिर एक जटिल  अभियान के बाद अगर सबकुछ तय हो गया और जो एनआरसी में नहीं आ पाएंगे उनका क्या होगा ? तब सीएए की समय सीमा जो 31 दिसंबर 2014 है को बधाई जाएगी या उसी के अनुसार जो गैर मुस्लिम हैं उन्हें नागरिकता दे दी जाएगी ? अब फिर मुस्लिम और तमिल हिंदुओ का क्या होगा क्योंकि सीएए में श्रीलंका सम्मिलित नहीं है और वे तमिल भी धार्मिक उत्पीड़न के शिकार है ? उत्तर है डिटेंशन कैम्प या उन्हें वापस भेजना जहां से वे आये हैं। लेकिन क्या यह दोनों उपाय संभव हैं ? नहीं। लंबे समय तक हम मानवाधिकार और शरणार्थियों के प्रति सजग समाज और विश्व मे किसी को भी डिटेंशन सेंटर में रख कर सड़ा नहीं सकते और जैसी आर्थिक स्थिति आज भारत की हो चली है उडमे हम अपने नागरिकों को ही ढंग से रख सकें तो यही हमारी उपलब्धि होगी।

आज पूरा देश आंदोलित है। सीएए और नासंका ने लोगों विशेषकर मुस्लिम समाज को तमाम आशंकाओं से भर दिया है। मुस्लिम समाज की आशंका का एक मजबूत कारण असम की एनआरसी का अनुभव है। ऐसे में जगह जगह कानून व्यवस्था की स्थिति उत्पन्न हो रही है। अफवाहें फैल रही है। सरकार का ट्रैक रिकॉर्ड, नोटबंदी, जीएसटी, आर्थिक सुधारों के मुद्दे पर बेहद खराब और अविश्वसनीय रहा है। सरकार साख के संकट से जूझ रही है। नागरिक और सरकार के बीच एक अविश्वास का भाव है। ऐसी हालत में सरकार अगर कुछ सच भी कहे तो उसपर लोगों को यकीन नहीं हो रहा है। लोग आशंकित हैं और डरे हुए हैं। सरकार को पहले लोगो के मन से यह भय और आशंका निकालनी होगी। यह भय और आशंका केवल एनआरसी और नासंका को ही लेकर नहीं है, बल्कि, यह छात्रों में उनजे भविष्य और कैरियर को लेकर, युवाओं में रोजगार को लेकर, किसानों में उनकी खेतीबाड़ी को लेकर, मज़दूरों में उनके श्रम कानूनों को लेकर है, व्यापारियों में बाजार में घटते मांग को लेकर है, बड़े उद्योगपतियों में आर्थिक मंदी को लेकर है, समाज मे बढ़ते अपराध और भेदभाव को लेकर है, और अब नागरिकों में अपनी नागरिकता को लेकर हो रही है। सरकार को इस अशनि संकेत को समझना होगा और देश किसी संकट पंक में न फंस जाय, इसका उपाय और उपचार करना होगा।
( विजय शंकर सिंह )
(लेखक सेवानिवृत आईपीएस अधिकारी हैं।यह लेखक के निजी विचार हैं। )