चंद्रयान की लॉन्चिंग सफलता पूर्वक हो चुकी है। अनुच्छेद 370 अतीत का हिस्सा बन चुका है। हमारे प्रधानमंत्री डिस्कवरी चैनल पर धूम मचा चुके हैं। ऐसे में अब देश की मूलभूत समस्याओं की ओर लौटने का समय भी आ गया है। पिछले कुछ वर्ष देश में बेरोजगारी की दृष्टि से चिंता वाले रहे हैं। दो माह पहले शैक्षिक सत्र समाप्ति के बाद बेरोजगारों की संख्या में और वृद्धि हो गई है। देश में रोजगार के नए अवसर सृजित नहीं हो पा रहे हैं और कई मोर्चों पर तो पुराने रोजगार के अवसर खत्म होने से संकट दोहरा रहा है। इसलिए तमाम बड़े तीर चलाने के बाद अब सरकार पर बेरोजगारी पर तीर चलाने की जिम्मेदारी बनती है। बेरोजगारी संकट का सार्थक समाधान ढूंढ़ना सरकारी नीतियों की सबसे बड़ी विजय होगी।
पूरी दुनिया इस समय हमारी तकनीकी प्रगति का लोहा मान रही है। हमारे पास अथाह युवा शक्ति भी है। जोर देते रहे हैं, वहां तकनीकी प्रगति को सकारात्मक ही माना जाता है। हम पुष्पक विमान की परिकल्पना के साथ आगे बढ़ते हुए कौटिल्य के अर्थशास्त्र को प्रगति का आधार मानते हैं। हम शून्य की खोज कर दुनिया को तकनीक के रहस्य से जोड़ने वाले लोग हैं। इसके बावजूद पिछले कुछ वर्ष अलग ही नतीजों की व्याख्या करने वाले रहे हैं।
सबसे कम खर्च कर मंगल व चांद तक पहुंच जाने वाले भारतीय तकनीकी प्रगति के साथ बेरोजगारी का दंश भी झेल रहे हैं। अस्सी के दशक में जब भारत में कम्प्यूटरीकरण की तेजी के साथ तकनीकी प्रगति के नए अध्याय लिखे जा रहे थे, यह दुर्योग ही है कि बेरोजगारी की स्थिति भी तबसे ही गंभीर होने लगी है।
21वीं सदी को तकनीकी उन्नयन की शताब्दी कहा गया और भारत में 21वीं सदी की शुरूआत से रोजगार के नए अवसरों के सृजन की चर्चा पर जोर दिया जाने लगा। इसके विपरीत आंकड़े बताते हैं कि पिछले दस वर्ष तकनीकी उन्नयन के तमाम शोरगुल के बीच बेरोजगारी दर बढ़ाने वाले रहे हैं। वर्ष 2011-12 को आधार वर्ष मानें तो तब से अब तक बेरोजगारी दर लगभग दो गुना बढ़ चुकी है। भारत सरकार के श्रम मंत्रालय के आंकड़ों के मुताबिक वर्ष 2011-12 में बेरोजगारी दर 3.8 प्रतिशत थी, जो 2012-13 में बढ़कर 4.7 प्रतिशत हो गयी। इस दौरान तकनीकी प्रगति तो हो रही थी, किन्तु बेरोजगार भी उसी रफ्तार से बढ़ रहे थे।
2013-14 में देश की बेरोजगारी दर और बढ़कर 4.9 प्रतिशत हुई, जो 2015-16 तक 5 प्रतिशत के आंकड़े को छू चुकी थी। 2016 के बाद तो बेरोजगारी मानो आकाश छू रही है। 2017-18 में बेरोजगारी दर बढ़कर 6.1 प्रतिशत पहुंच गई, जो पिछले 45 वर्ष में सर्वाधिक थी। दुर्भाग्यपूर्ण पहलू यह है कि 45 साल का कीर्तिमान स्थापित करने के बाद भी स्थितियां सुधारने की पहल नहीं हुई और फरवरी 2019 में बेरोजगारी दर तेजी से उछलकर 7.2 प्रतिशत पहुंच गई। बेरोजगारी दर बढ़ने के साथ हाल ही के वर्षों में रोजगार छिनने की स्थितियां भी मुखर रूप से सामने आई हैं।
सेंटर फॉर मॉनीटरिंग इंडियन इकोनॉमी (सीएमआईई) के हाल ही में जारी आंकड़े इन खराब स्थितियों की ओर स्पष्ट इंगित कर रहे हैं। सीएमआईई रिपोर्ट के अनुसार वर्ष 2018 में नए रोजगार सृजन में तो कमी आई ही, पहले से रोजगार पाए 1.1 करोड़ लोग बेरोजगार हो गए। भारत के लिए स्थितियां आगे भी आसान नहीं हैं। अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन (आईएलओ) की नई रिपोर्ट में कहा है कि इस वर्ष (2019) के अंत तक भारत में बेरोजगारों की संख्या दो करोड़ के आसपास पहुंच जाएगी। इस रिपोर्ट के मुताबिक 2019 में भारत में कुल कर्मचारियों की संख्या 53.5 करोड़ होगी, उनमें से 39.8 करोड़ लोगों को उनकी योग्यता के अनुसार नौकरी नहीं मिलेगी। यह स्थिति बीच-बीच में साफ भी हो जाती है। दो वर्ष पहले की ही बात है, जब उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ में सचिवालय में चतुर्थ श्रेणी (चपरासी) पद के लिए तमाम बीटेक ही नहीं पीएचडी तक कर चुके लोगों ने आवेदन कर दिया था। ऐसी घटनाएं आए दिन देश भर से सामने आती हैं। लोग पीएचडी या बीटेक करने के बाद चतुर्थ या तृतीय श्रेणी संवर्ग की नौकरी के लिए आवेदन करते हैं।
देखा जाए तो सही रोजगार न मिलना भी अर्द्धबेरोजगारी जैसा ही है। तकनीकी उन्नयन के दौर में हमें इस ओर भी गंभीर ध्यान देने की जरूरत है। सरकार ने रोजगार के अवसर सृजित करने के लिए कौशल विकास की तमाम योजनाएं शुरू कीं। उद्यमिता संवर्द्धन के प्रयासों की कई घोषणाएं की गर्इं किन्तु अब तक वे प्रभावी साबित नहीं हो सकी हैं। बेरोजगारी बढ़ने पर अपराध बढ़ते हैं और कानून व्यवस्था के लिए चुनौतियां बढ़ती हैं। ऐसे में सरकार को इस ओर सकारात्मक प्रयास करने ही होंगे। ऐसा न होने पर भारत की 21वीं सदी बनाने का सपना पूरा करने की राह कठिन हो जाएगी।
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