आजकल नफरत का बोलबाला बढ़ा हुआ है। व्यवस्था संचालकों को मेरी यह बात बुरी लगेगी, लेकिन यह हकीकत है। जाति-धर्म के नाम पर वैमनस्यता लोगों में इस कदर कूट-कूटकर भरी है, जिसका अंदाजा लगाना मुश्किल है। हालांकि सियासत से जुड़े लोग नफरत को खत्म करने की बातें तो करते हैं, लेकिन ये बातें सिर्फ हवा-हवाई जैसी ही प्रतीत होती हैं। यदि सच में नफरत खत्म करना है तो उसकी जड़ तक पहुंचकर उस पर चोट मारना होगा। यदि नफरत का माहौल खत्म नहीं हो रहा है तो यह समझिए कि सत्ता में शीर्ष पर बैठे लोगों की इच्छा शक्ति में कमी है। वजह स्पष्ट है, आजकल कॉन्सेप्ट की सियासत चल रही है। ऊंची कुर्सी पर बैठे आका के गोपनीय इशारे पर समर्थक झूमने लगते हैं। फिर अतिउत्साह में कुछ भी कर बैठते हैं। यही कॉन्सेप्ट है। ऐसे में यदि आका चाहें तो बहुत कुछ संभल सकता है, पर ऐसा नहीं हो रहा। परिणाम आज सबके सामने है। अभी तक तो मॉब लिंचिंग की खबरें ही दिल दहला रही थीं, अब नया मामला शौच लिंचिंग का सामने आया है, जिसने झकझोर कर रख दिया है। ऐसे में यह सवाल उठना लाजिमी है कि हमारा समाज आखिर जा किधर रहा है। 21वीं सदी का 19वां वर्ष उत्तरार्ध की ओर है। पर, बदलाव के संकेत नहीं दिख रहे हैं, जो चिंताजनक हैं।
बीते दिनों मध्य प्रदेश से एक खबर आई कि दलित बिरादरी के दो बच्चों की इसलिए बेरहमी से पिटाई की गई कि वे खुले में शौच कर रहे थे। बाद में दोनों बच्चों की मौत हो गई। यह घटना शिवपुरी जिले की थी। जबकि केन्द्र सरकार पूरे देश में शौचालय बनवाने के दावे करती है। शिवपुरी के पुलिस सुपरिटेंडेंट राजेश चंदेल ने बताया कि दोनों बच्चों की पहचान 12 साल की रोशनी और 10 साल के अविनाश के रूप में की गई। इन दोनों को बेरहमी से पीटा गया। इस मामले में हकाम सिंह और रामेश्वर सिंह नाम के दो लोगों को गिरफ्तार किया गया। बताया गया कि दोनों गैर दलित बिरादरी के हैं। दोनों ने पुलिस की पूछताछ में अपना अपराध कबूल कर लिया। भारत में जाति के आधार पर भेदभाव की घटनाएं बहुत आम हैं, खासतौर से ग्रामीण इलाकों में जहां आज भी आबादी का बड़ा हिस्सा रहता है। पुलिस अधिकारी राजेश चंदेल और मृत अविनाश के पिता मनोज बाल्मिकी के अनुसार, मारपीट से पहले दोनों परिवारों के बीच काफी कहासुनी हुई और इस दौरान जाति को लेकर अपशब्द भी कहे गए। 32 साल के बाल्मिकी के अनुसार, हमारे गांव में छूआछूत के बहुत मामले हैं। हमारे बच्चे उनके बच्चों के साथ खेल नहीं सकते।
जानकार बताते हैं कि शौचालयों की पर्याप्त व्यवस्था नहीं होने के कारण बच्चे व अन्य लोग अकसर खुले में शौच के लिए जाते हैं। इसकी वजह से स्वास्थ्य को नुकसान होने के साथ ही कई दूसरी समस्याएं भी पैदा होती हैं। खासतौर से महिलाओं के लिए तो यह शर्मिंदगी और सुरक्षा का भी बड़ा मामला बन गया है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली भारतीय जनता पार्टी की सरकार ने खुले में शौच खत्म करने को अपनी प्राथमिकताओं में शामिल किया है। प्रधानमंत्री मोदी ने 2014 में स्वच्छ भारत अभियान की शुरूआत की और भारत को इस साल 2 अक्टूबर तक खुले शौच से मुक्त कराने का वादा किया था। अमेरिका के ह्यूस्टन में भारतीय अमेरिकी लोगों और राष्ट्रपति ट्रंप के सामने भाषण में मोदी ने कहा था कि भारत से खुले में शौच लगभग समाप्त हो गया है। हाल ही में अमेरिका के गेट्स फाउंडेशन ने मोदी को देश में शौचालय बनवाने और खुले शौच को खत्म करने की कोशिशों के लिए पुरस्कार भी दे दिया। जबकि सरकारी आंकड़ों के मुताबिक स्वच्छ भारत मिशन के तहत देश भर में करोड़ों की संख्या में शौचालय बनाये गए। इसमें खासतौर से गरीब लोगों और इलाकों का ध्यान रखा गया। हालांकि बहुत सी जगहों पर अब भी समस्या बनी हुई है। ताजा घटना से भी इस बात की तस्दीक होती है। शिवपुरी के जिलाधिकारी अनुग्रह पी के अनुसार, जिस भाउखेड़ी गांव में दोनों परिवार रहते हैं और उसे 2018 में खुले शौच से मुक्त घोषित किया गया था। हालांकि मनोज बाल्मिकी के घर में आज भी शौचालय नहीं है।
शौच और शौचालय से इतर भी बहुत सारी ऐसी बातें हैं, जो बिगड़ते सामाजिक तानाबाना की ओर इशारा कर रही हैं। जरा सोचिए, भाउखेड़ी गांव में जिन बच्चों को मौत के घाट उतारा गया है, उनके परिवार वालों पर इस वक्त क्या गुजर रहा होगा। यह अलग बात है कि शासन-प्रशासन द्वारा मातमपुर्सी कर अपनी जिम्मेदारियों की इतिश्री कर ली गई होगी। पर, इससे काम तो नहीं चलता। मृत अविनाश के पिता मनोज बाल्मिकी की मानें तो गांव में छुआछूत और भेदभाव के हालात चरम पर हैं। ऐसे में इस समस्या की जड़ तक पहुंचकर इसके निदान के बारे में सोचना होगा। आपस में प्यार करने की बात को समझना बहुत मुश्किल काम नहीं है। बशर्ते कि इसे ठीक से समझा और समझाया जाए। यदि समय रहते हालात में सुधार नहीं हुआ तो यह लगातार बिगड़ता चला जाएगा। इसके लिए सबसे जरूरी बात यह है कि दलितों और दबंगों के बीच समन्वय स्थापित करने के लिए दोनों पक्षों को जागरूक किया जाए। नफरतभरी बातों से तौबा करने के तरीकों को समझना और समझाना होगा। शासन-प्रशासन के साथ-साथ मां-बाप की भी एक बड़ी जिम्मेदारी है कि वे अपने बच्चों को नफरत की पाठ से दूर रखें।
यूं कहें कि आज भी हमारे समाज में बर्बरता कायम है। ऊंच-नीच, जात-पांत की भावना इतनी गहरी है कि पता नहीं यह कब जाएगी। शिवपुरी में मासूम बच्चों के साथ क्रूरता कोई सोच भी नहीं सकता। चंद्रयान छोड़कर या डिजिटल भारत का राग अलापकर कितनी भी बड़ी-बड़ी बातें कर ली जाएं, इससे मूलभूत समस्याओं का समाधान नहीं होने वाला। इस देश में रोज ऐसी घटनाएं घटती हैं, जिन पर छाती पीटकर रोते हुए सिर झुकाया जा सकता है। हिंदू-मुसलमान की बात करके आप इस सच को दरकिनार नहीं कर सकते कि यहां अलग-अलग जाति का दबदबा चलता है। हर आदमी पढ़ा-लिखा हो या अनपढ़ वह मौका मिलते ही जाति की बात करने लगता है। आपकी जातीय पहचान जानना चाहता है। सरपंच से लेकर सांसद तक हम अपनी जाति का चुनना चाहता है। ऐसा माहौल भी है। लोग आसानी से तर्क भी देते हैं कि काम तो सब एक जैसा ही करते हैं। अपनी जाति का रहेगा तो हमारी ज्यादा सुनेगा। असुरक्षा की भावना है समाज में। गांवों में यह और भी गहरा है। शिवपुरी की दिल दहला देने वाली घटना बताती है कि जिसकी लाठी उसकी भैंस वाली कहावत भारत के गांवों में आज भी चरितार्थ हो रही है। विभिन्न जाति में बंटे इस समाज में हर तथाकथित बड़ी जाति अपने से छोटी समझे जाने वाली जाति को हीन भावना से देखती है। जाति के नाम पर अन्याय आत्याचार बदस्तूर जारी है। दलितों के बारे में तो यह धारणा है कि यह बराबरी कैसे कर सकते हैं। यह हृदयविदारक घटना शायद उसी का परिणाम है। खैर, कह सकते हैं कि हालात अनुकूल नहीं है। यदि समाज को खुशहाल बनाना है तो सामाजिक समरसता की परिकल्पना को और मजबूत करना होगा। वरना स्थितियां बिगड़ती ही रहेंगी। बहरहाल, देखना यह है कि आगे क्या होता है?
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