फरवरी 1961 में कोलकाता में जन्मे अभिजीत विनायक बनर्जी को जब 14 अक्टूबर को अर्थशास्त्र का नोबेल पुरस्कार देने का फैसला हुआ तो भारतवासियों का सिर गर्व से ऊंचे हो गए। गरीबी और भुखमरी से लोगों को मुक्ति दिलाने की सोच रखने वालों में खुशी देखने को मिली। अभिजीत की पत्नी और शिष्या इश्तर डूफलो को भी इस पुरस्कार के लिए चुना गया। हालांकि अभिजीत अब अमेरिकी नागरिक हैं, वह मैसाचुसेट्स इंस्टीट्यूट आफ टेक्नोलॉजी में प्रोफेसर हैं। अपने शोध कार्यों के दौरान उन्होंने गरीबी-भुखमरी की पीड़ा झेल रहे लोगों को देखा और उस दर्द को महसूस किया। गरीबी और भुखमरी को देखकर आंखें नम करने वाले तो बहुत हैं मगर उससे मुक्ति दिलाने के लिए सार्थक प्रयास करने वाले कम। उन्होंने देश दुनिया को इस पीड़ा से मुक्ति दिलाने पर काम करने का फैसला किया। अपनी पत्नी इश्तर डूफलो और मित्र सेंथिल मुल्लईनाथन के साथ उन्होंने एमआईटी में ‘अब्दुल लतीफ जमील पोवर्टी एक्शन लैब’ की शुरुआत की। इस लैब ने वैश्विक स्तर पर गरीबी और भुखमरी को दूर करने का अर्थशास्त्र को विकसित करने पर शोध किया। लैब गरीबी से लड़ने की नीतियों पर काम करती है। भारत की गरीबी को उन्होंने करीब से समझा, जो उनको विश्व के सबसे प्रतिष्ठित ‘नोबेल’ पुरस्कार तक ले आया।
हमारे देश में पिछले कुछ सालों से जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय पर दाग लगाने की कोशिश की जा रही है। वहां विद्यार्थियों के बीच होने वाली चर्चार्ओं से लेकर विरोध प्रदर्शनों तक की घटनाओं को देशद्रोह के चश्में से देखा जाता है। विद्यार्थियों पर देशद्रोह के मामले भी दर्ज किए जा रहे हैं। इसके बीच जेएनयू के विद्यार्थी रहे अभिजीत को नोबेल मिलने से सुखद अनुभूति हुई है। 1983 में विश्वविद्यालय के तत्कालीन कुलपति पी.एन. श्रीवास्तव ने विरोध प्रदर्शन करने वाले साढ़े तीन सौ से अधिक विद्यार्थियों के साथ अभिजीत को भी गिरफ्तार करवाया था। उन सभी पर हत्या के प्रयास का मामला दर्ज हुआ था। वे सभी 12 दिन तिहाड़ जेल में रहे थे। तत्कालीन सरकार ने इसे छात्र आंदोलन माना और सभी के मुकदमे वापस लेकर उन्हें अपनी शिक्षा पूरी करने का अवसर दिया था। अगर उस वक्त अभी की तरह विद्यार्थियों के खिलाफ दमनकारी नीति अपनाई गई होती तो शायद अभिजीत इस योग्य ही न बन पाते कि उन्हें नोबेल पुरस्कार के लिए चुना जाए। उनके साथी रहे योगेंद्र यादव बताते हैं कि अभिजीत किसी समूह या संगठन के सक्रिय सदस्य नहीं थे मगर चर्चाओं और मुद्दों पर संघर्षशील रहते थे। वह वामपंथी नहीं थे मगर समाज की आखिरी पंक्ति के व्यक्ति का दर्द महसूस करते थे। अर्थशास्त्र उन्हें विरासत में अपनी प्रोफेसर माता निर्मला और पिता दीपक बनर्जी से मिला था। हार्वड में पीएचडी करने के दौरान उन्होंने उसी आखिरी पंक्ति के व्यक्ति के दर्द को समझने की कोशिश की। नोबेल फाउंडेशन ने अभिजीत बनर्जी के साथ इश्तर डूफलो और माइकल क्रेमर को संयुक्त रूप से यह सम्मान दिया है। गरीबी दुनिया भर की समस्या है, इस बात को तीनों ने बेहतर ढंग से समझा। उन्होंने विश्व के 70 करोड़ से अधिक गरीबों और उनकी दशा का अध्ययन किया।
उनकी प्रयोगशाला में सिर्फ इस बात पर ही शोध नहीं किया गया कि गरीबी कहां और किस कारण से है बल्कि यह भी अध्ययन किया गया कि उसको कैसे खत्म किया जा सकता है। दुनिया को कैसे गरीबी के दंश से मुक्ति दिलाई जा सकती है। इस पर 20 साल से अधिक वक्त तक के शोध के बाद उन सिद्धांतों का प्रयोग भी किया गया। उनका जोर इस बात पर भी रहा कि कैसे अर्थव्यवस्था पर कम से कम बोझ पड़े और अधिक से अधिक गरीबों तक फायदा पहुंचे। उनके शोध का लाभ लेते हुए 2019 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस ने अपनी न्याय योजना का घोषणा पत्र जारी किया था।
जब यह सवाल उठाया जा रहा था कि कांग्रेस इस योजना के लिए संसाधन कहां से जुटाएगी, तब इस योजना के पीछे कौन सा अध्ययन है, कोई नहीं समझ पा रहा था। जब अभिजीत को नोबेल मिला तब दुनिया को यह भी पता चला कि ‘न्याय’ उन्होंने ही किया था। अभिजीत ने विकलांग बच्चों के दर्द को भी समझा। उन्होने ऐसे बच्चों को सशक्त बनाने पर काम किया। इसकी प्रयोगशाला भारत बनी और इसके लिए उन्होंने तत्कालीन प्रधानमंत्री एवं अर्थशास्त्री डा. मनमोहन सिंह से उनके अध्ययन पर चर्चा की। उनकी योजना पर भारत में काम भी हुआ।
विकलांग बच्चों की स्कूली शिक्षा को बेहतर बनाया गया। नतीजतन ऐसे 50 लाख से अधिक बच्चों को फायदा मिला। उनके इस काम को सामाजिक क्षेत्र में उपलब्धि के तौर पर देखा गया, जिसके लिए इन्फोसिस पुरस्कार भी उन्हें हासिल हुआ था। अपनी पुस्तक ‘पुअर इकोनॉमिक्स’ में उन्होंने बताया कि गरीबी और भुखमरी को खत्म करने के लिए किस तरह की नीतियां अमल में लाई जायें, जो गरीबों का अर्थशास्त्र विकसति कर सके। उनकी इस पुस्तक को अर्थशास्त्र का प्रतिष्ठित गेराल्ड लोएब अवॉर्ड हासिल हुआ। अभिजीत का मानना रहा है कि जब तक डेटा सत्य के करीब नहीं होगा, तब तक समस्या का समाधान करना संभव नहीं। उन्होंने सदैव इस बात पर जोर दिया कि सर्वे, सांख्यकी और जनगणना तीनों के डाटा को परीक्षित किया जाये। उसमें मूल समस्या और तथ्यों को सामने रखा जाना चाहिए। इन सब के आने के बाद अनुमान और संसाधनों पर परीक्षण करना चाहिए। जब ऐसा होने लगेगा तो नतीजे सकारात्मक दिखेंगे, मगर जब भी तथ्यों और सच से घालमेल किया जाएगा, नतीजे निराशाजनक होंगे।
हमें याद आता है, जब 500 और एक हजार रुपए के नोट अचानक बंद करने का फैसला किया गया, तो अभिजीत बनर्जी ने इसे अर्थव्यवस्था के लिए आत्मघाती कदम बताया था। उन्होंने अर्थशास्त्री नम्रता काला के साथ लिखे गए अपने एक लेख में कहा था कि इस नोटबंदी से नकदी का 86 फीसदी से अधिक हिस्सा बुरी तरह प्रभावित है। जब तक इसके लिए सुधारात्मक कदम उठाए जाएंगे, तब तक अर्थव्यवस्था के साथ ही जनधन हानि इतनी हो जाएगी कि उसका पोषण जल्द संभव नहीं होगा। सरकारी स्तर पर नोटबंदी से जितने नुकसान की आशंका है, यह वास्तविकता में बहुत अधिक होने वाली है। ऐसे कदम विरले हालात में ही उठाए जाते हैं। भारत में ऐसा कोई कारण मौजूद नहीं है कि इस तरह के कदम उठाए जाएं। उन्होंने स्पष्ट कहा था कि नोटबंदी से न तो आतंकवाद और न ही भ्रष्टाचार पर असर पड़ेगा। इस नोटबंदी से रोजगार का भारी संकट जरूर पैदा हो जाएगा। उन्होंने केंद्र सरकार की आंकड़े छिपाने की नीति की भी आलोचना की थी। उन्होंने भारत सरकार की आंकड़े छिपाने और जोड़तोड़ की नीति पर कटाक्ष करते हुए सचेत किया था कि सांख्यकी आंकड़े छिपाने या बदलने से हालात नहीं बदला करते। वास्तविक आंकड़े जब सामने होते हैं, तो आंकलन सटीक होता है। ऐसी स्थिति में नीतियों की खामियों को दूर करके समय रहते व्यवस्था को सुधारा जा सकता है।
हमारी सरकार हो या हम, सभी को अभिजीत के कार्यों और सोच से सीखना होगा। जब व्यक्ति या संस्था की नियति समाज के आखिरी पंक्ति के व्यक्ति के लिए सोचने की होगी, तो उसको सम्मान भी मिलेगा और मान्यता भी। अपनी क्षमताओं का प्रयोग सिर्फ अपनी वृद्धि के लिए ही नहीं बल्कि समाज और मानवता के लिए भी करना चाहिए। अंतत: हम सामाजिक प्राणी हैं और मानवता ही हमारा वास्तविक धर्म। अर्थव्यवस्था सुधारने के लिए कारपोरेट को नहीं खरीददार को सशक्त बनाने की आवश्यकता है। वह मजबूत होगा तो कारपोरेट को स्वत: लाभ मिल जाएगा। सोच यही होना चाहिए कि दूसरों की पीड़ा दूर करने वाला ही सदैव ‘नोबेल’ होता है।
जयहिंद
ajay.shukla@itvnetwork.com
(लेखक आईटीवी नेटवर्क के प्रधान संपादक हैं)