हमें देश के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू का वह वाक्य याद आता है, जब वह अपने दफ्तर जा रहे थे और साउथ एवेन्यू के पास उनकी कार पंक्चर हो गई। टैक्सी चालक सरदार जी ने उन्हें देखा तो वह उनके पास पहुंचे और बोले मेरा सौभाग्य होगा, अगर आप मेरी टैक्सी से अपने दफ्तर चलें। नेहरू बिना किसी की सुने उनकी टैक्सी में बैठकर दफ्तर पहुंचे। वो अपनी जेब में पैसे खोजने लगे मगर पैसे तो उनके पास होते ही नहीं थे। टैक्सी वाले सरदार जी बोले आप र्शमिंदा न करें, क्या मैं आपसे पैसे लेने की सोच सकता हूं? अब तो मैं अगले हफ्ते तक किसी को भी इस सीट पर नहीं बैठाऊंगा। नेहरू ने उसको गले लगा लिया। पंडित नेहरू प्रेस की आजादी के भी बहुत बड़े पक्षधर थे। वो कहा करते थे कि प्रेस आलोचनाएं करके हमें जगाता है। लोकतंत्र में प्रेस चाहे जितना गैर-जिम्मेदार हो जाए, मैं उसपर अंकुश लगाने का कभी समर्थन नहीं कर सकता। वो आलोचना करने वाले पत्रकारों को सबसे आगे बैठाते। 1963 में तो उन्होंने अपने साथियों के विरोध के बावजूद अपनी ही सरकार के खिलाफ विपक्ष की ओर से लाए गए पहले अविश्वास प्रस्ताव पर न सिर्फ चर्चा कराना मंजूर किया बल्कि उसमें हिस्सा भी लिया। वो कहते थे कि विपक्ष को मजबूती देना लोकतंत्र की आत्मा को मजबूत करने जैसा है। उनका यही आचरण उनको अपने पद से बहुत बड़ा बना देता था।
आप सोचेंगे कि आखिर पंडित नेहरू के व्यवहार की इन चंद घटनाओं का जिक्र हम क्यों कर रहे हैं, वजह है कि इस वक्त लोग बड़ा दिल और बड़ा व्यवहार करके बड़े बनने के बजाय छोटा बनने की दिशा में भाग रहे हैं। शुक्रवार को रेमन मैग्सेसे सम्मान समिति ने भारत के पत्रकार रवीश कुमार को सम्मान दिया। रवीश हिंदी के पहले पत्रकार हैं जिन्हें यह सम्मान मिला है। देश के तमाम राजनीतिज्ञों, समाजसेवियों और पत्रकारों ने उन्हें बधाई दी मगर जिन्होंने नहीं दी, वे वह लोग हैं जो सदैव हिंदी, हिंदू, हिंदुस्तान की बात करते नहीं थकते। हमें दुख हुआ जब खुद मैग्सेसे सम्मान को भुनाकर तमाम मंचों पर सम्मान हासिल करने वाली किरण बेदी ने भी बेहद छोटापन दर्शाया और रवीश को बधाई नहीं दी। शायद वह डर गर्इं क्योंकि उन्हें अपने आकाओं का डर था। हमारे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अगर रवीश को एशिया के नोबल पुरस्कार माने जाने वाले रेमन मैग्सेसे अवार्ड पाने के लिए बधाई देते तो शायद उनका कद पद से बड़ा हो जाता मगर ऐशा नहीं हो सका। यह प्रतिष्ठित सम्मान देश में 12 साल बाद आया है, जो देश के लिए भी सम्मान का विषय था। रवीश ने 15 मार्च 2019 को एक शो किया था, जिसका शीर्षक था ‘भारत में समस्या, जवाहरलाल हाजिर हों’। उसमें तथ्यों के साथ बताया गया था कि कैसे अपनी असफलताएं गलतबयानी करके अपने कद को बढ़ाने के लिए मौजूदा नेता नेहरू का कद छोटा करने की हरकते करते हैं। बधाई देकर कोई नेता या व्यक्ति छोटा नहीं बल्कि बड़ा हो जाता है।
एक सप्ताह पूर्व मैं चीन के शंघाई में था। वहां हम कुछ सरकारी दफ्तरों, म्युजियमों, लाइब्रेरीज और बड़ी परियोजनाओं को देखने गए। इन सभी स्थानों पर जो एक चीज देखने को मिली वह यह थी कि वहां मौजूदा किसी सियासी सत्ताधीश की कोई फोटो नहीं थी मगर चीन को विदेशी हुकूमत से आजाद करवाने की लड़ाई लड़ने वालों से लेकर विज्ञानियों और डॉक्टरों की फोटो हर स्थान पर मिलीं। वहां उन चीनियों की भी फोटो उसी सम्मान के साथ लगी दिखीं जो कम्युनिस्ट नहीं थे मगर उन्होंने देश का सम्मान बढ़ाया था। विश्व के उन 25 विज्ञानियों की भी तस्वीर देखने को मिली, जिन्होंने विश्व को कुछ बड़ा दिया है। निश्चित रूप से यही सोच होनी चाहिए।
सियासी विचारधारा अपनी जगह है। सरकारी कार्यों और सियासी कृत्यों को लेकर मतभेद हो सकते हैं मगर जब देश के सम्मान का विषय हो, तब हमें एकमत होकर उस हर व्यक्ति का समर्थन करना चाहिए जिसके कारण देश को सम्मान हासिल हो रहा हो। पंडित नेहरू का उदाहरण हमने इसीलिए दिया था, क्योंकि जब देश के लिए सोचना करना था, तब उन्होंने यह नहीं सोचा कि डॉ. भीमराव अंबेडकर विरोधी दल से हैं। नेहरू ने उन्हें संविधान की प्रारूप समिति का अध्यक्ष बनाया था। अपने दूधवाले से चुनाव हारने के बाद भी उन्होंने अंबेडकर को देश के लिए जरूरी बताते हुए मंत्री बनाया। उन्होंने जनसंघ के श्यामा प्रसाद मुखर्जी को भी अपने मंत्रिमंडल में जगह दी थी। यही सोच नेहरू को उनके पद से बहुत बड़ा बना देती थी। पद से छोटा होने की घटनाएं जब घटने लगें तब उस भारत देश के लिए चिंता का विषय हो जाता है जो खुद को विश्व गुरु होने का दावा करता है। शुक्रवार को ही एक और घटना लोकसभा में घटी जब सरकार ने जलियांवाला बाग राष्ट्रीय स्मारक अधिनियम 1951 में संशोधन का विधेयक पास कराया। इस संशोधन के लागू होने पर कांग्रेस अध्यक्ष स्थाई रूप से इस स्मारक के ट्रस्टी नहीं रह सकेंगे।
जलियांवाला बाग में जब 13 अप्रैल 1919 को अंग्रेजी हुकूमत की तानाशाही के खिलाफ कांग्रेसी कार्यकर्ता शांतिपूर्ण सभा कर रहे तब जनरल डायर ने उनको गोलियां चलवाकर भून दिया था। घटना के बाद अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी ने इस जगह को खरीदकर उसमें इन शहीदों की याद में स्मारक बनवाया था। यही वजह है कि जब इस स्थान को राष्ट्रीय स्मारक बनाया गया तो कांग्रेस अध्यक्ष को स्थायी ट्रस्टी सदस्य बनाया गया था। निश्चित रूप से यह तथ्य पूरी तरह प्रमाणित है कि देश को अंग्रेजी हुकूमत से मुक्ति दिलाने की लड़ाई अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के बैनर तले लड़ी गई। उस दौर के कांग्रेसी नेताओं ने देश की आजादी के लिए अपना सब कुछ कुर्बान कर दिया। ऐसी स्थिति में भी अगर सिर्फ इसलिए उन स्मारकों से देश को आजादी दिलाने वाले दल का नाम मिटाया जाए, क्योंकि उसका विरोधी दल सत्ता में है तो यह दुखद कहा जाएगा। यह सोच सत्तानशीन दल के नेताओं का छोटापन दर्शाता है।
हम देश की आजादी की वर्षगांठ मनाने जा रहे हैं। आजादी के 72 साल बाद हमसे उम्मीद की जाती है कि हम वास्तविक लोकतांत्रिक गणराज्य बनें और उन सभी लोगों को सम्मान दें, जिन्होंने यह आजादी दिलाने के लिए प्रत्यक्ष योगदान दिया है। हम उन महान विभूतियों और पूर्व सत्ताधीशों को भी सम्मान दें जिनके कारण आज लोकतंत्र कायम है और विरोधी दल सत्ता में आ सके हैं। अगर उन लोगों ने इस लोकतांत्रिक गणराज्य के संविधान का निर्माण न किया होता और वैसी व्यवस्थाएं न की होतीं तो शायद वह लोग और दल शक्ति का संचालन न कर रहे होते, जो कानून और नियमों को बदलकर दूसरों को छोटा बनाने की कोशिश में जुटे हैं। सच तो यह है कि बड़ा वह बनता है जो दूसरों को छोटा करके नहीं बल्कि खुद बड़ा करके खड़ा होता है। हमारे मौजूदा नेताओं और दलों को बड़ा बनने की कोशिश करनी चाहिए, न कि छोटापन दर्शाकर कुंठा प्रदर्शित करने की। जो भारत का वासी है, उसका मान-सम्मान देश का मान सम्मान है, वह चाहे छोटे पद पर हो या बड़े। कुछ सोचिये और रचनात्मक कीजिए। जयहिंद!
(लेखक आईटीवी नेटवर्क के प्रधान संपादक हैं )
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