आप सोचेंगे कि अचानक हम पौने दो साल पहले की घटना का जिक्र क्यों कर रहे हैं? सुबह हमारे एक जज मित्र का फोन आया। न्यायिक हालातों पर चर्चा हुई तो बोले जब जज बना था, उस वक्त इतना सम्मान मिलता था कि हम महसूस करते थे कि हम किसी पवित्र दुनिया से आये हैं। अब जब कोई सुनता है कि जज हैं, तो ऐसे देखता है, मानों हमने कोई गुनाह किया हो। डर से वह भले ही कुछ न बोले मगर जब खुलकर चर्चा होती है, तो उसकी भावनायें सामने आती हैं। जो हमें शर्मसार करने के लिए काफी होती हैं। एक पूर्व महाधिवक्ता से इन हालात को लेकर चर्चा चली तो उन्होंने कहा कि जिसे पद-पैसे चाहिए, वो जज बने ही क्यों? सम्मान से मेरिट की वकालत करें। मन चाही फीस ले, किसने रोका है? सुप्रीम कोर्ट के एक पूर्व जज से इस मुद्दे पर चर्चा हुई तो उन्होंने कहा कि मैंने हाईकोर्ट से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक डंके की चोट पर मेरिट पर फैसले किये। न्यायमूर्ति होने की हैसियत से कई बार ऐतिहासिक फैसले किये, जिनके के लिए कानून में व्यापक व्यवस्था नहीं भी थी। कई फैसले नजीर बन गये। अब कितने फैसले नजीर बन रहे हैं? जिनको कोई कानूनविद् अपनी बहस में हक से कोट करता हो। कारण साफ है, सत्ता का चारण करके पद-पैसा भले मिल जाये, आपकी शर्तों पर सम्मान नहीं मिल सकता।
22 साल पहले हमने यूपी के डीजीपी नियुक्त हुए श्रीराम अरुण का इंटरव्यू किया था। उन्होंने उस वक्त कहा था कि जब नेतृत्व ही बेईमान हो जाये तो निचले स्तर पर ईमानदारी की उम्मीद बेमानी है। कुछ ऐसा ही न्यायिक इतिहास में हो रहा है। पहले सेवानिवृत्ति न्यायाधीशों से आग्रह करके उनको पद दिये जाते थे मगर अब जजेज सरकारी नुमाइंदों के पास लार टपकाते घूमते हैं। बेईमानों का यही कशमकस उनको बेईमानी करने के अवसर उपलब्ध कराता है। शायद यही कारण है कि कानूनी नजीर बनने वाले फैसले अब अदालतों से नहीं निकल रहे। न्याय की देवी के आंख पर बंधी पट्टी में सुराख कर दिया गया है। उसके हाथ-पैर जंजीर से जकड़ दिये गये हैं। हमें भारत के एक अपर महान्यायवादी से पता चला कि जिन मामलों में सरकार की रुचि होती है, उनके फैसले वही ‘पेन ड्राइव’ में जस्टिस के पास भेज देते हैं। जहां सरकारी स्तर पर गलती हो जाये, और उसमें शीर्ष सत्ता के हित प्रभावित होते हों, तो किस तरह और कब क्या आदेश देना है, यह भी हम ही तय करते हैं। शीर्ष सत्ता की मर्जी पूरी करने वाले जजेज ऐसा दो कारणों से करते हैं, पहला, उन्हें कुछ पाने का लालच होता है और दूसरा, सरकार के पास उनके आचरण की फाइल होती है। साहसिक फैसलों के जरिए अपनी पहचान बनाने वाले जस्टिस जे. चेलमेश्वर इन दिनों एक किसान की तरह अपने गांव के खेतों में काम करते हैं मगर उनकी रीढ़ सम्मान से सीधी है। दलित जाति का होने के कारण वह उनकी पीड़ा भी समझते हैं। चेलमेश्वर ने अपनी जगह सदैव मेरिट से बनाई थी, तो वह हर काम मेरिट पर करने की सीख भी देते हैं। उन्होंने बतौर जस्टिस जो काम किये और फैसले दिये, वह नजीर बन गये, जिसमें निजता के अधिकार को मौलिक अधिकार घोषित करना भी शामिल है। जस्टिस चेलमेश्वर ने कहा कि मुझे भी सत्ता शीर्ष के लोगों से बहुत से प्रलोभन दिये गये मगर मैंने समझौता नहीं किया। मैंने गुणदोष को देखा और वही किया, जो न्यायहित में था। मैंने यह कभी नहीं देखा कि सामने कौन है। कमोबेस यही बात जस्टिस मार्केंडेय काटजू ने भी कही। उन्होंने कहा कि उस न्यायिक लकीर पर लोग न्याय की गाड़ी दौड़ाते हैं, जो साहस के साथ गुणदोष को देखती है, उस पर नहीं जो केचुए की तरह रेंगती है। निश्चित रूप से दोनों जजों की बात खरे सोने जैसी है। अगर न्याय की आत्मा ही मर गई तो मिले न्याय से किसका क्या भला होगा?
इन तमाम कानूनविदों की चिंता जायज है। अदालतों का यह परम कर्तव्य है कि वे गुणदोष, साक्ष्यों और तथ्यों को संवैधानिक कसौटी पर परख कर इंसाफ करें। न्याय सिर्फ होना ही नहीं चाहिए बल्कि दिखना भी चाहिए। इसके लिए जरूरी है कि न्यायाधीश का जीवन भी आदर्श हो। मुंशी प्रेमचंद ने एक कहानी लिखी थी ‘पंच परमेश्वर’, जस्टिस उसी की तरह होना चाहिए। न्याय की देवी की आंखों पर काली पट्टी इसी आशय से बांधी गई है, कि वह इंसाफ करते वक्त यह न देखे कि सामने कौन है। कुछ सालों के दौरान अदालतों और उसके बाहर जो घट रहा है, वह उसकी गरिमा गिराने के लिए पर्याप्त है। जजेज, तमाम कमेटियों में सरकारी मंत्रियों के साथ बैठने में खुद को सम्मानित महसूस करने लगे हैं। सेवा समाप्ति के बाद कोई पद मिल जाएगा, इस लालच में वह हर कर्म करने को तैयार बैठे हैं, जो न्याय की हत्या करता है। नोटों की कुछ गड्डियां और सरकारी ओहदे की चमक उनकी आंखों से शर्म का पानी खत्म कर रही है। नतीजतन, ऐसे जजेज के फैसले इंसाफ नहीं, एजेंडे पूरे करते हैं। शीर्ष सत्ता की मर्जी में ही ऐसे न्यायाधीशों को न्याय का सूर्य नजर आता है। इंसाफ के लिए जरूरी है कि न्याय तथ्यों, साक्ष्यों की कसौटी पर डंके की चोट से किया जाये। न्याय सत्ता प्रतिष्ठान के लिए प्रिय या लोकलुभावन न हो बल्कि सत्य पर परखा गया हो। उसमें भ्रष्ट आचरण या किसी को खुश करने की बू न आती हो। फैसले संवैधानिक लोकतंत्र को मजबूत बनाने वाले हों, न कि विश्वास को कमजोर करने वाले। जरूरत पड़ने पर न्याय के लिए संविधान में दिये गये विशेषाधिकार का भी प्रयोग किया जाये। जब ऐसा होने लगेगा, तब न्यायिक सम्मान पुन: स्थापित हो जाएगा। किसी को अपना जमीर नहीं बेचना पड़ेगा और पंच परमेश्वर फिर जीवित हो उठेगा।
जयहिंद
(लेखक आईटीवी नेटवर्क के प्रधान संपादक हैं)
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