कानून कोई भी हो। उसके मूल में जनहित होता है। कानून बनाने के पीछे जनता के लाभालाभ का विचार जरूर किया जाता है। भारत सरकार के नए वाहन अधिनियम की प्रशंसा भी हो रही है और आलोचना भी। अगर यह कहें कि प्रशंसा का प्रतिशत कम है और आलोचना का अधिक तो यह कदाचित गलत नहीं होगा। सरकार ने ब्राजीलिया घोषणा पत्र पर दस्तखत कर अगले साल तक देश में हादसों और इनमें हताहतों की संख्या को आधा करने की जो प्रतिबद्धता जताई है, वह तो इस कानून से पूरी हो जाएगी लेकिन आम आदमी पर जो जुमार्ने की मार पड़ेगी, उसका क्या?
नए वाहन अधिनियम के तहत बिना लाइसेंस वाहन चलाने वालों को पांच हजार रुपए अर्थदंड देना होगा। खतरनाक ड्राइविंग पर पहले अपराध पर एक साल तक की कैद या 5 हजार तक जुर्माना व इसके तीन साल के भीतर दोबारा ऐसा करने पर दो साल तक कैद अथवा 10 हजार रुपए जुर्माना देना पड़ेगा। शराब पीकर वाहन चलाने पर पहली बार 10हजार रुपए तक जुर्माना या छह माह तक कैद का प्रावधान किया गया है। दूसरी बार ऐसा करने 3 हजार रुपए जुर्माना या दो साल तक कैद हो सकती है। ओवर स्पीड पर पहले 400 रुपए का जुर्माना था, जिसे 1000 से 2000 तक और मध्यम व मालवाहक वाहनों के लिए 2000 से 4000 तक कर दिया गया है। इसके अलावा दोबारा ऐसा करने पर लाइसेंस जब्त कर लिया जाएगा। एंबुलेंस सहित सभी इमरजेंसी सेवाओं को रास्ता नहीं देने पर अब 10 हजार रुपए जुर्माना देना होगा व छह माह तक की कैद भी हो सकती है। दुर्घटना करने पर पहले अपराध पर 5 हजार तक जुर्माना या छह माह तक कैद तथा दूसरे अपराध पर 10 हजार तक जुर्माना या एक साल की कैद होगी। सीट बेल्ट न लगाने और हेलमेट न पहनने पर अब 1हजार रुपए जुर्माना देना होगा। बिना इंश्योरेंस के वाहन चलाने पर 2 हजार रुपए देने होंगे। सड़क सुरक्षा ध्वनि व वायु प्रदूषण के मानकों का उल्लंघन करने पर पहली बार तीन माह तक की कैद या 10 हजार रुपए जुर्माने का प्रावधान किया गया है। नियम बुरा नहीं है। भय के बिना प्रीति नहीं होती। सरकार की साख कड़े कानून से ही बनती है लेकिन कानून की सख्ती पर संयम का अंकुश तो होना ही चाहिए।
कहते हैं कि चोर वही जो पकड़ा जाए। न पकड़े गए तो आपका भाग्य। आपका प्रारब्ध। ऐसे बहुत सारे लोग हैं जिनके पास दुनिया भर के ऐब हैं लेकिन उन्हें कोई ऐबी नहीं कहता। डेली ड्रिंकर हैं लेकिन क्या मजाल को कोई उन्हें शराबी कह दे। शराब विरोधी,नशा विरोधी संभाषण उनसे बेहतर कोई दे नहीं सकता। जल संरक्षण का पुरस्कार भी उन्हें ही मिलता है जो निजी जीवन में सर्वाधिक पानी बर्बाद करते हैं। वैसे गलत लोग कम पकड़े जाते हैं। इसकी वजह यह है कि वे घाट-घाट का पानी पी चुके होते हैं।
जब हम सबका साथ, सबका विकास और सबका विश्वास की बात करते हैं तो सर्वप्रथम हमें इसके क्रम पर विचार करना होगा। विश्वास के बिना सबका साथ संभव नहीं है और सबके साथ के बगैर सबका विकास संभव नहीं है। हर आदमी की सोच एक जैसी नहीं हो सकती। ‘मुंडे—मुंडेमतिर्भिन्ना’ वाली बात यूं ही तो कही गई गई है। एक पिता की चार संतानों के गुण धर्म और विचार एकरूप नहीं होते। एक पिता के विपुल कुमारा। पृथक—पृथक गुण धर्म अचारा। फिर पूरे देश की एकराय कैसे हो सकती है? इस सवाल का जवाब आज नहीं तो कल तलाशना ही होगा। जब भी सरकार कोई नियम—कानून बनाती है तो उसमें जनता की राय जानने—समझने की कोशिश की जानी चाहिए। केंद्र सरकार ने मोटर वाहन संशोधन कानून, 2019 के 63 प्रावधानों को लागू कर दिया है। इसे लागू करने से पहले उसने देश का मिजाज समझने की बिल्कुल भी कोशिश नहीं की है। वाहन चलाने वाले के मन में कानून का भय होना चाहिए। यह वक्त की जरूरत भी है लेकिन जिस तरह से जुर्माना सौ गुना कर दिया गया है, वह किसी भी व्यक्ति के गले उतरता नजर नहीं आता। मोटर व्हीकल एक्ट 2019 में 25 नए जुर्माने शामिल किए गए हैं। जिसमें रोड रेगुलेशन का उल्लंघन, अनफिट या डिफेक्टिव वाहन चलाना भी शामिल है। गति सीमा जब 40 किलोमीटर प्रतिघंटा है तो ऐसे वाहन क्यों बनाए जा रहे हैं जो एक घंटे में सौ—डेढ़ सौ किमी. की स्पीड देते हैं। जुर्माना तो वाहन निर्माता कंपनियों पर लगना चाहिए। वाहनों की आयुसीमा तय होनी चाहिए कि कौनसा वाहन कितने साल तक सड़कों पर चलेगा? दिल्ली में 15 साल से ऊपर के वाहन हटाए भी गए थे। वे सारे वाहन दूसरे राज्यों में चलने लगे। दिल्ली में प्रदूषण मायने रखता है तो क्या अन्य राज्यों को वायु प्रदूषण और ध्वनि प्रदूषण की चपेट में आने दिया जाना चाहिए? शराब पीकर गाड़ी चलाते हैं और अपनी और दूसरों की जिंदगी खतरे में डालते हैं तो सरकार इस समस्या की जड़ शराब पर ही प्रहार क्यों नहीं करती? शराब बनना ही बंद हो जाए तो न रहेगा बांस न बजेगी बांसुरी। कम से कम शराब के प्रभाव में सड़क हादसे तो नहीं ही होंगे। कांग्रेस शासित पांच राज्यों मध्यप्रदेश, राजस्थान, पंजाब ,पश्चिम बंगाल और तेलंगाना में तो सरकार ने इसे लागू ही नहीं किया है। भाजपा शासित राज्य गुजरात में भी अभी तक इस नए कानून पर असहमति बनी हुई है। भारत में 1914 में सबसे पहले मोटर वाहन एक्ट बना था। 1939 में नया कानून बना। 1988 में संसद ने फिर नया कानून पास किया और इसे 1989 में लागू किया गया। गडकरी के नए मोटर वाहन कानून को संसद से भी पास होने में दो साल लग गए। 2017 में लोकसभा में पास होने के बावजूद यह राज्यसभा में पारित नहीं हो पाया। सवाल उठता है कि जिस कानून को पास करने में राज्यसभा को भी आपत्ति थी, उस कानून को इस देश की जनता सिर झुकाकर कैसे बर्दाश्त कर पाएगी? प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और केंद्रीय सड़क परिवहन मंत्री को इस तथ्य पर मंथन करना चाहिए कि कहीं यह कानून आम आदमी को परेशान करने वाला तो नहीं है और अगर इसका जवाब हां है तो उसका जवाब भी तलाशा जाना चाहिए। सरकार देश के सपनों को पूरा करना चाहती है लेकिन वाहन के बिना वह कैसे पूरा होगा? यह अपने आप में बड़ा और जटिल सवाल है। वाहन व्यक्ति की जिंदगी आसान करते हैं लेकिन नए कानून से लोग परेशान हो रहे हैं। यह देश कानून व्यवस्था का सम्मान करता है लेकिन भारी भरकम जुर्माना लोगों की अर्थव्यवस्था को कहां ले जाएगा, यह किसी से छिपा नहीं है।
वाहन उत्पादन कंपनियां वैसे ही कथित आर्थिक मंदी के दौर से गुजर रही हैं। यदि लोगों ने पब्लिक ट्रांसपोर्ट का सहारा लेना आरंभ कर दिया तो क्या होगा? पब्लिक ट्रांसपोर्ट पर भी दबाव बढ़ेगा। व्यक्ति के श्रम, समय और धन तीनों की बबार्दी होगी। ऐसे में कितने लोग बेरोजगार होंगे, सरकार को इस ओर भी विचार करना चाहिए। सरकार इस बात से खुश हो सकती है कि प्रदूषण का लोग सर्टिफिकेट प्राप्त करने लगे हैं लेकिन जब प्रदूषण का सर्टिफिकेट पेट्रोल पंप वाले को ही देना है तो इतना भारी भरकम प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड चलाने की जरूरत क्या है? नए वाहन कानून से देश की जनता त्राहि—त्राहि कर रही है। सरकार को चाहिए कि जिनके पास हेलमेट नहीं है, यातायात पुलिसकर्मी उसे पकड़ता है तो वह उससे हेलमेट की फीस जमा कराए और उसे हेलमेट पहनाकर रवाना कर दे। जिसका लाइसेंस नहीं है, उसकी गाड़ी तब तक के लिए जब्त कर ले, जब तक वह लाइसेंस बनवाकर नहीं आता। जनता पर अर्थिक भार दिए बिना भी यह सब हो सकता है और इसमें सामान्य जुर्माना भी सरकार को मिलता रहेगा लेकिन जिस तरह की व्यवस्था की गई है, उससे तो वाहन चालक हर क्षण डरा—सहमा रहेगा। उसकी कमाई का बहुत बड़ा हिस्सा जुमार्ने में ही चला जाएगा। कई जगहों से खबर आ रही है कि भारी—भरकम जुर्माना से नाराज होकर लोगों ने अपनी मोटर साइकिल यातायात पुलिस के सामने ही फूंक दी। यह समस्या का निदान नहीं है। उत्तेजित होने की बजाए जनता को भी अपने कागजात दुरुस्त रखने चाहिए ताकि उन्हें बेवजह परेशान न होना पड़े। सरकार का दावा है कि अगर पुलिस जन ट्रैफिक कानून का उल्लंघन करते पाए गए तो उनके खिलाफ सख्त कार्रवाई की जाएगी लेकिन ट्रैफिक वालों के सामने से पुलिस वाले बिना हेलमेट के निकलते हैं लेकिन उनका बाल बांका भी नहीं होता। अलबत्ते खबर छापने वालों को ही जेल की हवा खानी पड़ जाती है। कानून के अनुपालन में सबके साथ समान व्यवहार होना चाहिए। गोस्वामी तुलसीदास ने तो बहुत स्पष्ट तौर पर लिखा है कि ‘ खेलन में को काको गुसइयां। अर्थात खेलने में न कोई मालिक होता है और न ही कोई सेवक। ‘कहां राजा भोज कहां गंगू तेली’ का सिद्धांत वहां लागू नहीं होता। राजा का आदेश सिर माथे पर लेकिन दंड उतना ही होना चाहिए जितना कि बर्दाश्त हो सके। अनुशासन एक सीमा में ही अच्छा लगता है। जिस तेजी के साथ देश में महंगाई बढ़ रही है। डीजल—पेट्रोल के दाम बढ़ रहे हैं। खाद्यान वस्तुओं के दाम आसमान छू रहे हैं। स्कूलों की फीस बढ़ी है। बिजली की दरें बढ़ी हैं। उसे देखते हुए दंड का यह स्वरूप एकबारगी आम आदमी की टूटी कमर पर एक डंडा और मारने जैसा है। इस पर मंथन वक्त की जरूरत है। परिवहन मंत्री नितिन गडकरी बता रहे हैं कि उन्होंने सरकारी राजस्व बढ़ाने के लिए कड़े परिवहन कानून नहीं बनाए हैं। उनकी मंशा सड़क हादसों में होने वाली मौतों को रोकने की है। सड़क हादसों के लिए अनेक कारण जिम्मेदार हैं। सड़कों में गड्ढे भी सड़क हादसों के लिए बहुत हद तक जिम्मेदार हैं। सड़कों को गड्ढामुक्त करने की जिम्मेदारी आखिर किसकी है? जनता सरकार को टोल टैक्स भी देती है और रोड टैक्स भी? वाहन खरीदते वक्त ही अगर हेलमेट खरीदना बाध्यकारी हो जाए तो जुर्माना वसूलने की नौबत ही न आए। वाहन चालक की गलती से अगर किसी की मौत होती है तो संबंधित चालक को सजा का प्रावधान है लेकिन सड़क में गड्ढे की वजह से हुए हादसे में मौत होती है तो किस पर जुर्माना लगेगा, कौन जेल जाएगा, यह भी तो बताना होगा? दिल्ली सरकार ने कह दिया है कि अगर ट्रैफिक पुलिसकर्मी उल्लंघन में लिप्त मिले तो उनसे दोगुना जुर्माना वसूला जाएगा। इस आदेश का कितना अनुपालन होगा, यह तो समय बताएगा लेकिन हर राज्य में इस तरह की सख्ती जरूरी है। विचारणीय यह है कि केंद्र सरकार को इतने सख्त कानून की जरूरत क्यों पड़ गई। उसका तर्क है कि सड़क हादसों में हताहतों की बढ़ती तादाद से वह चिंतित है। वर्ष 2004 से 2016 के बीच सड़क दुर्घटना में मौतों की संख्या में 64 फीसदी की बढ़ोतरी हुई है। नेशनल क्राइम रिकार्ड ब्यूरो के आंकड़े बताते हैं कि 2004 में जहां देश भर में 91,463 लोगों की सड़क हादसों में मौत हुई थी जबकि 2016 में यह आंकड़ा बढ़कर 1.50 लाख हो गया। 2017 में जहां सर्वाधिक सड़क हादसे तमिलनाड़ु में हुए, लेकिन मृतकों की सर्वाधिक संख्या उत्तरप्रदेश में रही।