तकरीबन सौ साल पहले दुनिया में परिवर्तन का एक नया दौर शुरू हुआ। स्थितियां तेजी से बदली। जबरदस्ती लोगों को गुलाम और बंधक बनाने वालों की पकड़ ढीली पड़ने लगी। उपनिवेशवादी देशों ने पीछे हटने में ही भलाई समझी। इस ऐतिहासिक प्रक्रिया में सैकड़ों देशों ने आजादी की सांस ली। सवाल ये है कि आखिर किन परिस्थितियों में एक देश दूसरे पर कब्जा जमा लेता है? वहां के संसाधनों का दोहन अपने हित के लिए करता है? सामरिक संधियों, फौजी ताकत और भौगोलिक स्थिति की भूमिका हमेशा से ही निर्णायक रही है।
जहां तक उपनिवेशवाद की बात है, ये देशों को औद्योगिक क्रांति में पिछड़ने की मिलने वाली सजा थी। उद्योग-सैन्य गठबंधन ने कच्चे माल और सस्ते मजदूर की तलाश में चढ़ाइयां शुरू कर दी। आपस में ही लड़ रहे देश उनके चपेट में आ गए। ब्रिटेन के बारे में ये कहा जाने लगा कि इसके साम्राज्य में सूरज कभी डूबता ही नहीं। इसका पतन भी यूरोपी देशों में वर्चस्व को लेकर हुई आपसी लड़ाई के कारण हुआ। एक समय आया जब इनके लिए उपनिवेशों पर काबिज रहना फायदे का सौदा नहीं रह गया। स्थानीय लोगों का प्रतिरोध एवं विश्व युद्ध की वजह से बदलता अंतरराष्ट्रीय परिवेश – देश एक के बाद एक इनकी गिरफ्त से निकलते गए। अलग-अलग देशों ने अपनी आजादी की नई स्थिति को अलग-अलग तरह से लिया।
भारत की आजादी में द्वितीय विश्व युद्ध का बड़ा हाथ था। इसकी आग में झुलसे ब्रिटेन में इतना दम नहीं बचा था कि वे स्थानीय प्रतिरोध के वावजूद इधर डटे रहते। सो लड़ाई खत्म होते ही मन बना लिया कि अब निकला जाय। ऊपर से नई महाताकतों ने स्पष्ट कर दिया कि उपनिवेश खाली करो। हमें भी वहां अपना सामना बेचना और पैर पसारना है। स्थानीय प्रतिरोध का नेतृत्व कर रहे ज्यादातर लोग इंग्लैंड में ही पले-बढ़े थे। नई व्यवस्था के निर्माण की जहमत उठाने के बजाय ब्रिटिश व्यवस्था ही चलाए रखना का फैसला कर लिया। सत्ता परिवर्तन तो हो गया। व्यवस्था पुरानी ही चलती रही। अंग्रेजों की हां-में-हां मिलाने वाले प्रजातंत्र में फिट हो गए। राजा-राजा बने रहे। लोग लोग ही रहे।
इतिहास लड़ाइयों की कहानी है। इसमें विजेताओं का महिमंडन होता है। स्वाभाविक है कि जब जंगल का इतिहास शिकारी लिखेंगे, तो ये उनकी वीरगाथा ही होगी। असल में इतिहास की दशा मिलिट्री का जनरल नहीं, नॉलेज का जनरल करता है। बारूद की खोज ने सैन्य-समीकरण रातों-रात बदल दिया। समुद्री बेड़े और और लड़ाकू विमानों के आगमन से युद्ध का स्वरूप ही बदल गया। नाभिकीय अस्त्र और मिसाइल ने एक देश को लगभग अभेद्य बना दिया है। ऊर्जा के नए श्रोतों ने धूल उड़ा रहे देशों के भौगोलिक-सामरिक-आर्थिक हैसियत को देखते-देखते आसमान चढ़ा दिया। तत्काल हम एक और नए दौर से गुजर रहे हैं। दो चीजें दुनियां को बदलने में लगी हुई हैं। पहली है आबादी का स्वरूप। अपेक्षाकृत समृद्ध देश में उम्रदराज लोगों की भरमार है।
गरीब देशों में युवाओं की भीड़ है। सरकारें चिंतित हैं कि इन्हें संभालें कैसे। दूसरा है सूचना क्रांति का सूत्रपात। राष्ट्रीय सीमाओं से परे एक साइबर-दुनियां है। सोशल मीडिया से जुड़े लोगों की संध्या महादेश से बड़ी हो चली है। अकेले फेसबुक से 240 करोड़ लोग जुड़े हैं। साइबर-युद्ध की क्षमता नई सैन्य शक्ति बन कर उभरी है। आर्टिफिशल इंटेलिजेन्स, मशीन र्लनिंग, रोबोटिक्स एवं इंटरनेट ओफ थिंग्स की सीधी प्रतिस्पर्धा लोगों से है। दावा किया जा रहा है कि ब्लाकचेन टेक्नोलॉजी एवं क्वांटम कम्प्यूटिंग सारे बिचौलियों की छुट्टी कर देगी। बैक बंद हो जाएंगे। प्रत्यक्ष प्रजातंत्र में लोग हर फैसले मोबाइल-आधारित वोटिंग से लेंगे। सरकारों की जरूरत ही नहीं रहेगी। डाटा नया डीजल-पेट्रोल बन गया है। इसके राष्ट्रीयकरण की मांग जोर पकड़ रही है। जानकारों का मानना है कि आने वाले दस-बीस सालों में ही लोगों का एक यूजलेस क्लास खड़ा हो जाएगा। मशीनीकरण और आॅटमेशन की वजह से इनकी कोई जरूरत ही नहीं रह जाएगी।
चुनौती ये है कि फिर इनका होगा क्या? ये कैसे कमाएंगे? खाएंगे क्या? यूनिवर्सल बेसिक इंकम, सिटिजन वेजेज जैसे विकल्प हैं पर सवाल है कि इसके लिए पैसा कहां से आएगा? बेकार आबादी आखिर करेगी क्या? अगर करीब से देखें तो दुनिया के देश दो परस्पर विरोधी तरीके से इस नई स्थिति से निपटने की कोशिश कर रहे हैं। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सारे अपनी-अपनी कर रहे हैं। देशों की सीमाएं सख्त की जा रही है। सरकारें अपने नागरिकों के प्रति दिन-रात अपनी प्रतिबद्धता दोहरा रही है। गैर-कानूनी तरीके से घुस आए को बाहर का रास्ता दिखा रही है। वहीं देश के अंदर बहुसंख्यकवाद जोर पकड़ रहा है। राजनैतिक दल इस बहाव में बहे जा रहे हैं। क्या अमेरिका-रूस, क्या चीन-जापान, क्या भारत-ब्राजील सबको इसका बुखार चढ़ा हुआ है।
दक्षिण एशिया में लगभग पचास करोड़ लोग 10-24 साल के आयु वर्ग में हैं। अकेले भारत में ऐसे 36 करोड़ और पाकिस्तान में 6 करोड़ लोग हैं। इनमें से अधिकांश स्मार्टफोन के माध्यम से आपस में जुड़े हैं। अमेरिका, चीन, जापान एवं यूरोप के देशों में लोग बूढ़े हो चले हैं। इन दो तरह के देश समूहों को मिल-बैठकर फैसला कर लेना चाहिए कि विकासशील और गरीब देशों के युवा-वर्ग को क्या सिखाएं कि वे बूढ़े हो चले देश की जरूरतें पूरी कर सकें। एक बड़ा रोचक उदाहरण अफगनिस्तान और फिनलैंड का है। अफगानी पालतू जानवरों की देख-रेख का कोर्स करने फिनलैंड जा रहे हैं फिर वहां के कुत्ते-बिल्ली के देखभाल के लिए वहीं बस जा रहे हैं। डराने वाले जो भी कहें, कोशिश करते रहने चाहिए कि दुनियां इसी दिशा में आगे बढ़े। बिखराव पर फैज अहमद फैज ने एक बड़ी अच्छी बात कही थी:
हमने धरती और आसमान बनाया,
तुमने तुर्की और ईरान बनाया।
एक अंतर-निर्भर विश्व-व्यवस्था ही विश्व शांति की सबसे बड़ी गैरंटी है।
(लेखक वरिष्ठ आईपीएस अधिकारी हैं।)
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