“आज एक सपना खत्म हो गया है। एक गीत खामोश हो गया है। एक लौ हमेशा के लिए बुझ गई है। यह एक ऐसा सपना था, जिसमें भुखमरी, भय-डर नहीं था। यह ऐसा गीत था, जिसमें गीता की गूंज थी तो गुलाब की महक भी। यह चिराग की ऐसी लौ थी, जो पूरी रात जलती थी। हर अंधेरे का इसने सामना किया। इसने हमें रास्ता दिखाया और एक सुबह निर्वाण की प्राप्ति कर ली। आज भारत माता दुखी हैं, उन्होंने अपने सबसे कीमती सपूत को खो दिया। मानवता आज दुखी है, उसने अपना सेवक खो दिया। शांति बेचैन है, उसने अपना संरक्षक खो दिया। आम आदमी ने अपनी आंखों की रोशनी खो दी है। पर्दा नीचे गिर गया है। मुख्य किरदार ने दुनिया के रंगमंच से अपनी आखिरी विदाई ले ली है”। ये शब्द भाजपा के संस्थापक अध्यक्ष एवं पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेई ने संसद के विशेष श्रद्धांजलि सत्र में, देश के तत्कालीन सर्वोच्च नेता और प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू को श्रद्धांजलि देते कहे थे। शायद तभी, अटलजी की विदेश नीति हो या प्रधानमंत्री के रूप में काम करने का तरीका, दोनों में पंडित नेहरू उनके व्यक्तित्व में कई बार परिलक्षित होते थे। महामारी के इस दौर में जो घाव देश और आमजन के दिल ओ दिमाग में हुए हैं, उनकी पीड़ा दूर करने के लिए इस वक्त नेहरू विचारधारा की जरूरत हर जगह महसूस हो रही है।
हमें याद है कि देश की आजादी के वक्त भारत की अर्थव्यवस्था बेहद बुरे हाल थी। लोगों को दो जून की नहीं बल्कि एक वक्त की रोटी भी मुश्किल थी। देश में प्रति व्यक्ति आय 274 रुपये सालाना थी, मगर उस समय 10 ग्राम सोना 88.62 रुपये का था। इस वक्त हमारी प्रतिव्यक्ति आय 1.41 लाख रुपये और सोना 50700 रुपये का है। यह स्थिति तब है जबकि भारत में व्यक्तियों की आय में भारी अंतर आ चुका है। प्रति व्यक्ति आय के मामले में हमारा देश, गरीब देशों में शुमार बांग्लादेश से भी काफी नीचे पहुंच गया है। दूसरी तरफ सरकार के करीबी समझे जाने वाले कुछ पूंजीपतियों की आमदनी इतनी तेजी से बढ़ी है कि उनमें से दो ने तो एशिया में टॉप किया है। सबसे अधिक बढ़ोत्तरी गौतम अदानी ने दर्ज कराई है। ब्लूमबर्ग बिलेनियर्स इंडेक्स की रिपोर्ट में बताया गया है कि गौतम अडानी ने कोरोना काल में एलन मस्क और जेफ बेजोस जैसे अमीर उद्योगपतियों को भी पीछे छोड़ दिया है। जब देश की जीडीपी नीचे गिर रही हो और आम आदमी को रोटी, रोजगार छिन रहा हो। उसकी आमदनी बढ़ने के बजाय घट रही हो, ऐसे में चंद पूंजीपति दिन दूने रात चौगुने कमाई कर रहे हों, तब देश के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू की याद आना स्वाभाविक है। 27 मई को उनकी पुण्यतिथि थी और मौजूदा मोदी सरकार के सात साल पूरे हो चुके है। ऐसे वक्त में नेहरू से हर सत्तानशीं को सीखना चाहिए।
पंडित नेहरू ने जब देश संभाला उस वक्त देश आंतरिक और बाहरी शक्तियों के साथ ही कई महामारियों से जूझ रहा था। देशवासियों को बचाने के साथ ही देश की सीमाओं की रक्षा करते हुए सम्मान के साथ उसे आगे ले जाना चुनौती थी। देश प्लेग, मलेरिया, चेचक और पोलियो से जूझ रहा था। इसके साथ ही तमाम अन्य बीमारियां जनालेवा साबित हो रही थीं। 1951 में 1.48 लाख लोग सिर्फ चेचक से ही मर गये थे, जबकि तब आबादी सिर्फ 36.10 करोड़ थी। ऐसे वक्त में भविष्यदृष्टा प्रधानमंत्री पंडित नेहरू ने इन जानलेवा बीमारियों से लोगों को बचाने के लिए क्रांतिकारी कदम उठाए। उन्होंने पब्लिक हेल्थ सिस्टम को मजबूत करने पर जोर दिया। इसके लिए पंचवर्षीय योजनाओं में व्यवस्था की गई। निजी हाथों में जनस्वास्थ को सौंपने के बजाय सरकारी जिम्मेदारी सुनिश्चित की गई। कुष्ठ, फाइलेरिया, डिप्थीरिया, टायफायड, काली खांसी, निमोनिया, मेनिनजाइटिस, रेबीज जैसी बीमारियों से लड़ने का जिम्मा उन्होंने उठाया। वैक्सिनेशन कार्यक्रम राष्ट्रीय स्तर पर शुरू किया। सीमित बजट के बावजूद, इनके लिए संसाधन जुटाये। 15 मेडिकल कालेजों को 15 साल में मानकों के अनुरूप 81 किया। एम्स और पीजीआई जैसे चिकित्सा संस्थान खड़े करके लोगों का जीवन बचाया। चिकित्सा के साथ ही शिक्षा की महत्ता को भी समझा। उन्होंने वैक्सीन बनाने के लिए सरकारी कंपनियां और शोध संस्थान बनाये। कोविड-19 से लड़ने में आज वही काम आ रहे हैं।
पंडित नेहरू जानते थे कि बगैर विश्वस्तरीय शैक्षिक शोध संस्थानों के देश को सुरक्षित विकास की राह पर नहीं ले जाया जा सकता है। इसके लिए उन्होंने अमेरिका के उच्च संस्थानों की यात्रा की। वहां से लौटने के बाद उन्होंने देश को आईआईटीज दिये। बेहतरीन प्रबंधन के अभाव में तमाम काम अच्छे नतीजे नहीं दे सकते हैं, इस सोच पर उन्होंने टॉप मैनेजमेंट के लिए आईआईएम बनाये। वह समझते थे कि बगैर विज्ञान मानव विकास की लड़ाई नहीं जीत सकता। इसी सोच पर वैज्ञानिक शोध के लिए सीएसआईआर की लैब स्थापित हुईं। इसकी मदद से ही “को-वैक्सीन” जैसे टीके का निर्माण देश में संभव हो सका। उन्होंने प्रकृति को मानवता के लिए विकसित करने के लिए बोटेनिकल गार्डेन और जैव प्रौद्योगिकी संस्थान स्थापित किये। जीवन रक्षक दवाओं से लेकर आक्सीजन बनाने के प्लांट लगाये। जो इस महामारी में जीवन बचाने में अहम साबित हुए। नेहरू तुक्ष्य विचारधाराओं की दीवार तोड़कर आगे बढ़े। उन्होंने अंतरिक्ष विज्ञान से लेकर परमाणु विज्ञान तक काम किया और विभाग बनाये। लोग भूखे न रहें और रोजगार पायें, इसके लिए उन्होंने भाखड़ा जैसे बड़े बांध और बड़े उद्योग, सरकारी तौर पर स्थापित किये। जिससे किसानी मजबूत उद्योग के रूप में आगे बढ़ी और भुखमरी से जीत सकी। रक्षा क्षेत्र में मजबूती के लिए आर्डीनेंस और एचएएल जैसे निगम खड़े किये। लोगों को सामाजिक सुरक्षा देने के लिए एलआईसी जैसी बीमा कंपनियां बनाईं। उन्होंने सुगम यातायात के लिए भारतीय रेल का विस्तार किया। हवाई यात्रा से लेकर समुद्री यात्रा तक को सुलभ बनाने के लिए निर्माण इकाइयां बनाईं। उसके लिए प्रशिक्षित रोजगार की व्यवस्था भी की। कारपोरेट और पूंजीपति जनता पर भारी न पड़ जायें, इसके लिए पंडित नेहरू ने आमजन को सुरक्षा देने वाले कानूनों के साथ ही बैंकिंग प्रणाली में भी सुधार किया। कर्मचारियों की सुरक्षा के लिए नियम-कानून, भविष्यनिधि और पेंशन की व्यवस्था की।
देश की आजादी की लड़ाई के लिए अपनी वकालत छोड़ने और पिता के निधन के बाद आर्थिक तंगी से गुजरते हुए भी नेहरू ने हिम्मत नहीं हारी। पत्नी और मां के इलाज के लिए गहने तक बेचे। इसकी गवाह पारिवारिक मित्र उद्योगपित जमनालाल बजाज को लिखी चिट्ठी है, जिसमें उन्होंने घर के जेवर बेचकर घर की जरूरतें पूरी करने को लिखा था। महात्मा गांधी की वह चिट्ठी भी गवाह है, जिसमें उन्होंने उनके लिए कुछ रुपये का इंतजाम करने को लिखा था। आंदोलन में आने के बाद नेहरू कभी पूरा एक साल बाहर नहीं रह सके। उन्हें किसी न किसी भाषण और आंदोलन के चलते हर साल जेल जाना पड़ा। नौ साल जेल, मुकदमें और धनाभाव के बावजूद उन्होंने कभी घुटने नहीं टेके। आजादी के पहले भी, जब मौका मिला, देश के लिए न सिर्फ बेहतरीन योजनाएं बनवाईं बल्कि आजादी के लिए वैश्विक माहौल भी बनाया। आजादी के बाद उन्होंने संसाधनों का कभी अपने लिए नहीं बल्कि देश और देशवासियों के लिए उपयोग किया। यही कारण है कि वह सिर्फ एक रुपये वेतन लेते और अपने ही आवास में रहते थे। अपनी पूरी संपत्ति देश को समर्पित कर, लोगों को भी देश के लिए करने को प्रेरित करते थे। जिससे एक मजबूत और स्वस्थ, शिक्षित आधुनिक भारत का निर्माण हो सका। उन्होंने कभी आलोचनाओं को नहीं नकारा। विरोधी स्वर को सदैव सीख के रूप में लिया। वह सदैव निजी और सार्वजनिक दोनों स्तरों पर स्वतंत्रता के हितैषी थे। उन्होंने सदैव पूर्ण या कहें अति लोकतंत्र को बढ़ावा दिया, जिसका नतीजा था कि उनके दल के नेता भी सदन और अन्य सार्वजनिक मंचों पर उनके खिलाफ बोल सकते थे। इससे एक रचनात्मक माहौल बना।
इस वक्त देश गंभीर संकट के दौर से गुजर रहा है, ऐसे में उनके विचार, सोच और किये गये कामों से, अगर हमारा देश और उसके नियंता सीख सकें, तो शायद हम श्रेष्ठ और स्वस्थ भारत का निर्माण कर सकते हैं। इसमें आमजन के दर्द को समझने और उन्हें दूर करने की ललक सत्ता में सदैव दिखनी चाहिए।
जय हिंद!
(लेखक आईटीवी नेटवर्क के प्रधान संपादक हैं।)