आज के इस अति बुद्धिवादी दौर में अगर आप भावनाओं से जुड़े तथ्यों को रेखांकित करते हैं तो आप प्रगतिशीलता के विरोधी ठहराये जायेंगे। बुद्धिवाद इस कदर हावी है कि लोग मानव समाज के विशुद्ध भावनात्मक सम्बन्धों को भी विवेक के तराजू पर तौलकर नये-नये निष्कर्ष निकालते हैं। पर ऐसे स्वघोषित निष्कर्ष हमेशा विशुद्ध बुद्धिवादी खेमे से आएं ऎसा जरूरी नहीं, कभी-कभी यह प्रायोजित होता है। अगर ईमानदारी से देखा जाय तो यह ज़्यादातर प्रायोजित ही होता है, हालांकि होता बुद्धिवाद के आवरण में ही है; ठीक उसी तरह जैसे सामान से ज़्यादा उसकी पैकिंग महत्वपूर्ण होती है। ये श्रेष्ठता के स्थापन का मनोविज्ञान है।
प्रायोजित इसलिए होता है कि इससे निकाले गये निष्कर्ष वांछित परिणामों की प्राप्ति में सहायक हो सकते हैं। राजनीति के क्षेत्र में यह प्रवृत्ति खूब फल-फूल रही है। राष्ट्रीय नायकों और राजनीतिज्ञों के आपसी संबंधों को मनचाहे रूप में व्याख्यायित करने के अपने निहितार्थ हैं। उनके वैचारिक विरोध को उनके आपसी संबंधों की दशा व दिशा तय करने वाला एकमात्र मुख्य निर्धारक बिंदु मान की गई सुविधावादी राजीनीतिक व्याख्या के कई फायदे हैं।
दो राजनेताओं के मध्य विचार वैभिन्य को व्यक्तिगत शत्रुता के रूप में चित्रित कर उन्हें परस्पर विरोधी गुट के प्रतिनिधि के रूप में दर्शाने की प्रवृत्ति इधर कुछ ज्यादा ही मुखर हुई है। वस्तुतः इस दुष्प्रवृत्ति के पीछे राजनेताओं को दो गुटों में बांटकर उनमें से एक गुट को अपने साथ जोड़कर उनसे जुड़े लोगों को साधने की कोशिश की जाती है, अर्थात अनुयायियों को वोटबैंक में तब्दील करने की कोशिश की जाती है। इस प्रकार यह सारा अभियान, सारा उपक्रम सत्ता प्राप्ति के निमित्त है। यह लोग यहीं नहीं रुकते बल्कि यह लोग तो महापुरुषों को जाति-विशेष में कैद करके जातिवादी राजनीति को और हवा देते हैं। भले ही वे महापुरुष अपने जीवन में जातिवाद के घोर विरोधी रहें हों, पर इससे उन्हें क्या फ़र्क पड़ता….. आदर्शवाद से चुनाव तो नहीं जीत सकते न!!! चुनाव जीतने के लिये ध्रुवीकरण जरूरी है।
हां तो बात मत-मतांतर को विवाद की शक्ल में पेश करने पर हो रही थी। इधर सोशल मीडिया पर स्वघोषित इतिहासकारों की बाढ़ आ गयी है। ये लोग नेहरू,पटेल,राजेंद्र प्रसाद तथा नेताजी के आपसी संबंधों पर ऐसे साधिकार टिप्पणी करते हैं जैसेकि वह स्वयं इन महान चरित्रों के कार्य व्यापार व संबंधों के साक्षी रहें हों।
कुछ मनीषी नेहरू व पटेल तथा नेहरू और प्रसाद को प्रतिद्वंद्वी के रूप में पेश करते हैं। निश्चित रूप से कई मुद्दों पर बड़े नेताओं के मध्य मत-भिन्नता होती थी जो कि बहुत ही स्वाभाविक है। मत भिन्नता कहां नहीं होती? यह तो मनुष्य की स्वतंत्र चेतना की अभिव्यक्ति है। यही तो लोकतांत्रिक व्यवहार की अपनी खूबसूरती है। इसे लोकतांत्रिक तरीके से निर्णय लेने की एक स्वाभाविक प्रक्रिया के अंग के रूप में देखा जाना चाहिए।
नेहरू- पटेल व नेहरू-प्रसाद के आपसी संबंधों पर चर्चा करते समय प्रायः ही नेहरू को खलनायक के रूप में पेश किया जाता है। ऐसा लगता है कि नेहरू ताउम्र प्रतिद्वंद्वी नेताओं के लिये षड्यंत्र ही रचते रहे। इसके अलावा उन्होंने कोई सार्थक काम न किया। ऐसा करके आलोचक जाने-अनजाने में पटेल और राजेंद्र प्रसाद जी के विराट व्यक्तित्व को भी बौना कर देते हैं। क्या पटेल जी इतने समझौतापरस्त इंसान थे कि उन्होंने अपने विरोधी विचारधारा और सिद्धांतविहीन व्यक्ति वाले के साथ काम करना स्वीकार कर लिया। क्या ऐसे वीतरागी को भी सत्ता का मोह विचलित कर सकता है!!!! यदि ऐसा गांधी जी के दबाव के चलते उन्होंने स्वीकार किया था तो गांधीजी की मृत्यु के बाद उन्हें इस दबाव से मुक्त हो जाना चाहिए था, पर ऐसा नही हुआ। पार्टी में रहना तो फिर भी ठीक था लेकिन मंत्रिमंडल में रहकर सहयोग देना कम से कम असहमत लौहपुरुष की प्रकृति में तो नहीं
ही था। निश्चित रूपसे कई मामलों में पटेल के निर्णय नेहरू की तुलना में ज्यादा दूरदर्शी सोच वाले साबित हुए पर इससे इंकार कहां ?? प्रधानमंत्री का पद उनके विराट व्यक्तित्व के सामने महत्वहीन था।
वस्तुतः उन दोनों के मध्य बहुत मधुर संबंध थे, उन दोंनो के बीच हुए पत्राचार इसकी गवाही देते हैं। उदाहरण के तौर पर पटेल के एक पत्र का हवाला दिया जा सकता है,जो उन्होंने नेहरू के उस अनुरोधपत्र के जवाब में लिखा था जिसमें पटेल से मंत्रिमंडल में शामिल होने का अनुरोध किया गया था …. पटेल ने लिखा-
” आपके 1 अगस्त के पत्र के लिए अनेक धन्यवाद। एक-दूसरे के प्रति हमारा जो अनुराग और प्रेम रहा है तथा लगभग 30 वर्ष की हमारी जो अखंड मित्रता है, उसे देखते हुए औपचारिकता के लिए कोई स्थान नहीं रह जाता। आशा है कि मेरी सेवाएं बाकी के जीवन के लिए आपके अधीन रहेंगी। आपको उस ध्येय की सिद्धि के लिए मेरी शुद्ध और संपूर्ण वफादारी औऱ निष्ठा प्राप्त होगी, जिसके लिए आपके जैसा त्याग और बलिदान भारत के अन्य किसी पुरुष ने नहीं किया है। हमारा सम्मिलन और संयोजन अटूट और अखंड है और उसी में हमारी शक्ति निहित है। आपने अपने पत्र में मेरे लिए जो भावनाएं व्यक्त की हैं, उसके लिए मैं आपका कृतज्ञ हूं।”
बेबाक़ राय देना बताता है कि ये राष्ट्र पुरूष स्वतंत्र चेतना से संपृक्त थे। विचारों की भिन्नता उनके आपसी संबंधों का निर्धारण नही करती थी। वे एक दूसरे के प्रति बहुत ही आदरभाव रखते थे। एक बार बताते हैं कि डॉ. राजेंद्र प्रसाद जी स्वंतत्रता आंदोलन के दौरान किसी बिंदु पर चर्चा करने के लिये देर रात नेहरू से मिलने उनके निवास पर गए पर पता चला कि नेहरू सो गए हैं, प्रसाद जी ने नेहरूजी को जगाने से मना कर दिया और खुद बरामदे में ही सो गए। सुबह नेहरू जी उठे तो यह जानकर बहुत दुखी हुए कि प्रसादजी को उनकी वजह से कष्ट हुआ।
इसी तरह एक और उदाहरण गांधी और सुभाष के संदर्भ में है। दोंनो भिन्न-भिन्न विचारधारा का प्रतिनिधित्व करने वाले जननेता थे। गांधीजी ने सुभाषबाबू के दुबारा कांग्रेस के अध्यक्ष बनने का कड़ा विरोध किया पर सुभाष बाबू गांधीजी के विरोध के बावजूद चुनाव लड़े और जीते भी। बाद में इस्तीफा भी दे दिया। पर ध्यान दिया जाय कि गांधीजी की कार्यसंस्कृति के प्रखर विरोधी रहे नेताजी अपने व्यक्तिगत जीवन में गांधीजी के प्रति बहुत आदर का भाव रखते थे। विदेश में अपने सशस्त्र क्रान्ति के अभियान की शुरुआत के अवसर पर सबसे पहले आपने ही अपने रेडियो प्रसारण में बापू से आशीर्वाद लेते हुए श्रद्धाभाव से उन्हें पहली बार राष्ट्रपिता कहकर संबोधित किया था। विचारों का टकराव अपनी जगह था और एक-दूसरे के प्रति सम्मान व सद्भाव अपनी जगह।
वो बड़े लोग एक दूसरे का सम्मान करके खुश होते थे और आज कुछ लोग उन बड़े लोगों की आपस मे तुलना करके और स्वघोषित परिणामों के आधार पर बड़े और छोटे कद के रूप में एक दूसरे को वर्गीकृत करके आत्मसंतुष्टि पाते हैं। अगर उन लोगों में कद और पहचान को लेकर इतनी महत्त्वाकांक्षा होती तो शायद एक पार्टी और प्रतिद्वंद्वी साथी के साथ इतने लंबे समय तक काम करना उनके लिए संभव न होता। अलग पार्टी बनाने का विकल्प तब भी खुला रहता था पर तब पार्टियां सिद्धांतों के आधार पर गठित होती थीं न कि अपनी पहचान व कद को बचाने की खातिर ।।
दरअसल व्यक्तित्व और कृतित्व का यह तुलनात्मक विश्लेषण तो महज एक बहाना है, असल चीज तो पूर्व निर्धारित एजेंडे को आगे बढ़ाना है। इसीलिए सेलेक्टिव तथ्यों के आधार पर इच्छित निष्कर्षों वाली पटकथा का लेखन किया जाता है। इधर इतिहास के पुनर्लेखन की आड़ में जिन दो लोगों पर सर्वाधिक निशाना साधा गया है, वह हैं गांधी और नेहरू। गांधीजी तो फ़िर आलोचना में थोड़ी रियायत पा जाते हैं पर नेहरू के प्रति ऐसी कोई रियायत नहीं। नेहरू के चरित्र हनन की नित-नयी कहानियां गढ़ी जा रहीं हैं। जिन नेहरू के जिंदा रहते उनके कटु विरोधियों तक ने उनके प्रति कोई ऐसी अशोभनीय बात नहीं की, वही नेहरू आज सर्वाधिक लांछना के शिकार हैं। जिन नेहरू की मृत्यु पर भाजपा के सबसे बड़े नेता आदरणीय अटलजी भावविह्वल हो यह कहते हुए अपने को रोक नहीं पाते हैं कि “नेता चला गया। अनुयायी रह गए। सूर्य अस्त हो गया। अब तारों की छाया में हमें अपना मार्ग ढूढना है” वह संसद में नेहरू जी के प्रति श्रद्धांजलि व्यक्त करते हुए बहुत भावुक हो जाते हैं और कहते हैं कि “मृत्यु ध्रुव है। शरीर नश्वर है। कल, कंचन की जिस काया को हम चंदन की चिता पर चढ़ाकर आये, उसका नाश निश्चित था। लेकिन क्या यह ज़रूरी था कि मौत इतनी चोरी छिपे आती? जब संगी-साथी सोये पड़े थे, जब पहरेदार बेख़बर थे, तब हमारे जीवन की एक अमूल्य निधि लुट गयी। भारत माता, आज शोकमग्ना है – उसका सबसे लाड़ला राजकुमार खो गया। मानवता, आज खिन्नमना है – उसका पुजारी सो गया। शान्ति, आज अशान्त है – उसका रक्षक चला गया। दलितों का सहारा छूट गया। जन-जन की आँख का तारा टूट गया। यवनिका पात हो गया। विश्व के रंगमंच का प्रमुख अभिनेता अपना अन्तिम अभिनय दिखाकर अन्तर्ध्यान हो गया।” आज उन्हीं उदारमना अटल जी के अनुयायी निर्ममता से नेहरू के चरित्र की हत्या कर रहें हैं। और प्रकारांतर से अपने सर्वप्रिय नेता के द्वारा कही गयी बातों को झूठा भी साबित कर रहें हैं।
यह श्रद्धांजलि भारतीय राजनीति के अजातशत्रु कहे जाने वाले अटलजी के उदार व्यक्तित्व को तो दर्शाती ही है साथ ही आज की दलीय आग्रहों वाली राजनीति जो कि राष्ट्रीय नायकों को दलीय खांचों में रख करके देखने की हिमायती है, को भी आत्मावलोकन के लिए कहती है। इस प्रवृत्ति ने इतर स्रोतों और सोशल मीडिया के जरिये राजनीतिक व सामाजिक परिवेश को बहुत ही नुकसान पहुंचाया है।राजनीतिक लाभ हेतु कपोलकल्पित दस्तावेजों के सहारे मनमाफ़िक इतिहास-लेखन किया जा रहा है। ऐसा नहीं है कि गांधी,नेहरू या अन्य कोई आलोचना से परे हैं,या उनके राजनीतिक निर्णयों की मीमांसा नहीं की जा सकती पर आलोचना तर्कसंगत और स्वस्थ होनी चाहिए; पूर्वाग्रहसे प्रेरित नहीं। कई निर्णयों के लिये गाँधीजी और पंडित नेहरू की निर्मम आलोचना की जाती है, की भी जानी चाहिए यदि ईमानदार विवेचना की ऐसी मांग हो; यदि उनके निर्णयों से देश की दशा और दिशा नकारात्मक रूप से प्रभावित होती हो।
निश्चित रूप से इन राष्ट्रीय नायकों के कुछ निर्णय अदूरदर्शिता पूर्ण रहें हैं जिन पर समकालीन चिंतकों ने आपत्ति भी जताई थी पर किसी ने उनपर दुर्भाव मनःस्थिति का लांछन नहीं लगाया…. ऐसे निर्णय राजनीतिक प्रक्रिया के अभिन्न हिस्सा हैं। 1916 में गरमदल के स्वनामधन्य नेता हिन्दू धर्मग्रंथों कर प्रखर मीमांसक तिलक महराज जो कि कांग्रेस-मुस्लिम लीग के समझौते के प्रमुख शिल्पी थे, ने लीग की कई अप्रिय शर्तों को स्वीकार कर लिया था, तो इसलिये कि तत्कालीन परिस्थितियों में ऐसा करना उन्हें ठीक लगा होगा। हालांकि इस निर्णय ने जो कि मूल रूप से हिंदू-मुस्लिम एकता की भावना से अनुप्राणित था, लीग के नेतृत्व की विशिष्ट राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं को जगा दिया। निश्चित रूप से इस समझौते ने कालांतर में होने वाले भारत-पाक बंटवारे की भूमिका को और मजबूती दे दी।उल्लेखनीय है कि इस भूमिका का श्रीगणेश 1909 के मार्ले-मिंटो एक्ट से ही हो गया था। पर बावजूद इसके किसी ने भी तिलकजी की पवित्र भावना पर सवाल नहीं खड़े किए …… किसी ने भी यह नहीं कहा कि उन्होंने बुरी नीयत से ऐसा किया। वह लीग की अलगाववादी सोंच व नीतियों के जितने प्रखर आलोचक थे उतने ही वह हिन्दू-मुस्लिम एकता के प्रबल पक्षधर भी।
जो लोग भारत के बंटवारे को नेहरू के सत्ताई लालच की परिणति मानते हैं उन्हें पता होना चाहिए कि जिन्ना की हठधर्मिता के चलते तत्कालीन परिस्थितियों में बंटवारा अपरिहार्य हो गया था। उस समय नेहरू से ज़्यादा सरदार पटेल बंटवारे के पक्ष में थे। क्या वो भी सत्ता के लालची थे ??? इसे कौन स्वीकार कर लेगा!!! उन्होंने कहा था कि अगर हमने बंटवारा स्वीकार नहीं किया तो भारत के प्रत्येक दफ्तर में लीग की एक शाखा होगी। बाद में जिन्ना ने कहा कि”मैंने अपने सचिव तथा उसके टाइपराइटर की सहायता से पाकिस्तान प्राप्त किया”।
आज कांग्रेस वाले (तथाकथित कुछ लोग) भाजपा और उसके पूर्ववर्ती संगठन के पितृ-पुरुषों की जिनकी स्वतंत्रता संग्राम में अमिट उल्लेखनीय भूमिका रही है, को देशद्रोही अंग्रेज-भक्त बताते नहीं थकते तो बीजेपी वाले कांग्रेसी नेताओं के चरित्र हनन में समर्पित भाव से जुटे हैं।
कुलमिलाकर अगर हम अगली पीढ़ी को निष्पक्ष इतिहास सौंपकर उन्हें जिम्मेदार नागरिक बनाना चाहते हैं तो हमें यथार्थ तथा उदार दृष्टि रखनी चाहिए ताकि इतिहास के साथ-साथ राष्ट्रीय नायकों के प्रति हम सच्चा न्याय कर सकें।
– संजीव शुक्ल
(यह लेखक के निजी विचार हैं।)