जैसे जैसे समय बीतता जा रहा है वैसे वैसे देश की आर्थिक स्थिति गंभीर होती जा रही है। रिजर्व बैंक आॅफ इंडिया, नीति आयोग, विदेशी वित्त पर्यवेक्षक कम्पनियां और देश के पूंजीपति घराने, विभिन्न मजदूर संगठन और अन्य अर्थशास्त्र में रुचि रखने वाले लोग, भले ही उनकी विचारधारा कुछ भी हो, पर वे इस निष्कर्ष पर पहुंच रहे हैं कि देश की आर्थिक स्थिति मंदी की ओर जा रही है। आर्थिक मंदियां आती जाती रहती हैं यह अर्थव्यवस्था का एक आवश्यक तत्व है। पर हैरानी इस मंदी पर नहीं बल्कि मंदी को लेकर देश के सत्ता तंत्र में जिस जागरूकता, चिंता और उस व्याधि से निपटने जी इच्छा शक्ति की आवश्यकता है, वह वर्तमान परिस्थितियों में कहीं भी दिख नहीं रही है, पर है । या तो सरकार, आर्थिक मोर्चे पर दिशाहीन है या उसे गंभीरता का अंदाजा नहीं है। आज का विमर्श इसी विषय पर है।
2014 की परिस्थितियों को ध्यान से याद कीजिए तो उस समय यूपीए 2 की सरकार घोटालों के आरोपों से घिरी हुई थी और नरेंद मोदी के नेतृत्व में भाजपा एक भ्ष्टार्चार मुक्त और समृद्ध भारत के सपने को लेकर जनता के बीच आई थी। उस समय के संकल्पपत्र में भाजपा के सारे वादे आर्थिक मुद्दों से जुड़े थे। गुजरात मॉडल को विकास के आदर्श मॉडल के रूप में देश मे प्रस्तुत किया गया था। अन्ना हजारे के लोकपाल लाओ आंदोलन ने यूपीए 2 को बैकफुट पर ला दिया था और भाजपा विशेषकर नरेंद मोदी एक त्राता के रूप में उभरते आ रहे थे। जो आर्थिक वादे भाजपा द्वारा किए गए, उसमें विकास के कई वायदों के साथ साथ 2 करोड़ लोगो को प्रतिवर्ष रोजगार देने, विदेशी निवेश बढ़ाने, देश का औद्योगिक विकास तेज करने, भ्रष्टाचार मुक्त प्रशासन देने आदि आदि लुभावने वादे किए गए थे। आदतन नेताओं ने वादे किए और आदतन हमने उन वादों पर यकीन भी कर लिया। खूब धूम धड़ाके से चुनाव हुआ और भाजपा सरकार बनी तथा नरेन्द्र मोदी प्रधानमंत्री बने।
2014 से 2019 तक की कोई आर्थिक उपलब्धि सरकार खुद ही 2019 के चुनाव प्रचार में नहीं बता पाई। सरकार ने जानबूझकर चुनाव प्रचार की दिशा और मुद्दा पुलवामा हमले के 40 शहीद सीआरपीएफ के जवानों और बालाकोट एयर स्ट्राइक तक ही सीमित रखा। कारण साफ था कि मंदी की सुगबुगाहट हो गई थी और उद्योग से लेकर किसानों तक निराशा पसरी पड़ी थी। 2019 में फिर सरकार की वापसी हुई। पर न मंदी के कदम थमें न मजदूर और किसानों की बेहतरी हुई।
2014 के बाद भाजपा सरकार की क्या आर्थिक नीति होगी यह किसी को पता नहीं था। आज भी सरकार की आर्थिक नीति क्या है यह भी सरकार को पता नहीं है। 2014 से 2016 तक सामान्य रूप से आर्थिक दशा चलती रही। पर अचानक 2016 में सरकार ने जब 1000 और 500 रुपए के नोट चलन से बाहर कर दिए तो आर्थिक स्थिति पर एक ब्रेक लगा और तभी से आर्थिक स्थिति गिरने लगीं। सरकार ने नोटबंदी क्या सोच कर की, यह तो सरकार ही बता पाएगी। आज तक सरकार ने यह नहीं बताया कि जिन आर्थिक लक्ष्यों की पूर्ति के लिए यह मास्टरस्ट्रोक उठाया गया उनमे से कितने पूरे हुए और कितने पूरे नहीं हुए।
नोटबंदी के बाद कर सुधार के नाम पर जीएसटी कानून लागू हुआ। यह एक अच्छा कदम था, पर अपनी प्रक्रियागत जटिलताओं और अनेक किंतु परंतु के कारण यह कर सुधार भी सफल नहीं हो सका। पहले सोचा गया था कि इन दोनों सुधारात्मक कदमो से जो मंदी आ रही है वह अस्थायी होगी, और बाजार स्वत: इसे दुरुस्त कर लेगा, पर यह न हो सका। सरकार एक आलमे बदहवासी में नजर आई और फिर धीरे धीरे, औद्योगिक उत्पादन गिरा, बाजार में क्रय शक्ति घटी, रियल इस्टेट सेक्टर बैठना शुरू हुआ, टेक्सटाइल में सुस्ती आई, जब यह सब हुआ तो नए रोजगार सृजन की बात तो छोड़ ही दीजिए, जो नौकरियां थीं वह भी कम होने लगीं। इस सुस्ती और मंदी का असर कर संग्रह पर पड़ा। जब कर संग्रह पर असर पड़ा तो राजकोषीय घाटा बढ़ा। आयात निर्यात का संतुलन बिगड़ा तो व्यापार घाटा बढ़ा। फिर यह मंदी जिसे केवल आर्थिक मामलों के जानकार ही भांप रहे थे अब सबको दिखने लगी। रोग तो दिखा पर रोग का कारण लोग नहीं समझ पाए।
आर्थिक मंदी के खबरों के बीच सबसे बड़ी चिंता यह है कि सरकार इस मंदी को लेकर न तो चिंतित दिख रही है और न ही स्वीकार कर रही है कि ऐसी कोई गिरावट अर्थव्यवस्था में आ रही है। जबकि इस गिरावट की ओर सबसे पहले संकेत सरकार के ही आर्थिक सलाहकार अरविंद पनगढ़िया ने ही दिए थे। पनगढ़िया ने आर्थिक सलाहकार का अपना पद छोड़ा और वे अमेरिका वापस चले गए। फिर आरबीआई की तरफ से गिरावट की चेतावनी मिलने लगी। सरकार के पास धन की कमी हो गई और आरबीआई से संचित धन लेने की उसे जरूरत पड़ी। इस मुद्दे पर आरबीआई के गवर्नर उर्जित पटेल और डिप्टी गवर्नर विरल आचार्य ने अपने पद से त्यागपत्र दे दिया। नए गवर्नर शशिकांत दास आए तो उन्होंने संचित धन से 1,76,000 करोड़ रुपए सरकार को दे भी दिए, पर यह भी आगाह किया कि यह गिरावट तेजी से असर कर रही है। फिर कुछ उद्योगपतियों के बयान आए कि इस गिरावट का असर उनके यहां भी पड़ने लगा है। भाजपा के ही सांसद सुब्रमण्यम स्वामी का भी बयान आया कि यह मंदी है और उन्होंने तो यह भी कहा कि इस मंदी से निपटने के लिए सरकार के पास न तो इच्छाशक्ति है और न ही काबिल लोग। सरकार के ही अर्थशास्त्री रथिन राय ने एक लंबा लेख लिखकर में इस मंदी के बारे में स्पष्ट संकेत भी दिए।
हम एक वैश्विक अर्थव्यवस्था के युग मे हैं। पूरी दुनिया की अर्थव्यवस्था एक दूसरे को प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से प्रभावित करती है। ऐसी स्थिति में दुनियाभर की प्रमुख सर्वेक्षण और आर्थिक एजेंसियां भी महत्वपूर्ण देशों की अर्थव्यवस्था पर नजर रखती है। भारत की इस मंदी को सबसे पहले विश्व बैंक ने भांपा और भारत का विकास दर (जीडीपी) गिरने की बात कही, फिर आईएमएफ ने चेतावनी दी, फिर तो निवेश की राय देने वाली एजेंसी मूडीज ने भी यह मान लिया कि देश मे आर्थिक मंदी का असर आ रहा है। दो दिन पहले आईएमएफ के प्रमुख ने बयान दिया कि वैसे तो मंदी का असर पूरी दुनिया मे है, पर भारत मे इसका असर और व्यापक होगा। आज ही अखबार में छपी एक खबर के अनुसार, आरबीआई ने पहले अनुमानित विकास दर, 6.9 बतायी थी, अब वह दर उसने घटा कर 6.1 % कर दिया है। इसी प्रकार अंतरराष्ट्रीय रेटिंग एजेंसियों, मूडीज ने पहले घोषित दर 6.8 को 6.2, फिंच ने 6.8 से 6.6 और एडीबी ने 7 से घटाकर 6.5 कर दिया है। जब इरादा और घोषणा 5 ट्रिलियन अर्थव्यवस्था का हो तो क्या सरकार अपने ही संस्थान आरबीआई, नीति आयोग और अंतरराष्ट्रीय संस्थान विश्व बैंक, आईएमएफ और मूडीज के इन चेतावनी पर ध्यान दे रही है ?
इसका उत्तर है नहीं। सरकार के किसी भी मंत्री का बयान इन आर्थिक संकेतकों से दिखती हुई आर्थिक मंदी की आहट की ओर जा रहा है, ऐसा संकेत नहीं देता है। इसके विपरीत वित्तमंत्री का बयान कि कोई मंदी नहीं है, और कानून मंत्री का बयान कि एक दिन में फिल्में जबरदस्त कमाई कर रही हैं अत: मंदी कहां है जैसे प्रत्यक्ष मूर्खतापूर्ण, हास्यास्पद और असंवेदनशील बयान आ रहे हैं। प्रधानमंत्री इन मसलों पर पहले भी नहीं बोलते थे और अब भी वे नहीं बोलते हैं। सरकार की प्राथमिकता में वित्त व्यवस्था जैसी कोई चीज, लगता है, है ही नहीं। अगर होती तो निश्चय ही सरकार कोई न कोई ऐसा कदम उठाती जिससे यह गिरावट थमती और कुछ सार्थक संकेत मिलते।
2014 की परिस्थितियों को ध्यान से याद कीजिए तो उस समय यूपीए 2 की सरकार घोटालों के आरोपों से घिरी हुई थी और नरेंद मोदी के नेतृत्व में भाजपा एक भ्ष्टार्चार मुक्त और समृद्ध भारत के सपने को लेकर जनता के बीच आई थी। उस समय के संकल्पपत्र में भाजपा के सारे वादे आर्थिक मुद्दों से जुड़े थे। गुजरात मॉडल को विकास के आदर्श मॉडल के रूप में देश मे प्रस्तुत किया गया था। अन्ना हजारे के लोकपाल लाओ आंदोलन ने यूपीए 2 को बैकफुट पर ला दिया था और भाजपा विशेषकर नरेंद मोदी एक त्राता के रूप में उभरते आ रहे थे। जो आर्थिक वादे भाजपा द्वारा किए गए, उसमें विकास के कई वायदों के साथ साथ 2 करोड़ लोगो को प्रतिवर्ष रोजगार देने, विदेशी निवेश बढ़ाने, देश का औद्योगिक विकास तेज करने, भ्रष्टाचार मुक्त प्रशासन देने आदि आदि लुभावने वादे किए गए थे। आदतन नेताओं ने वादे किए और आदतन हमने उन वादों पर यकीन भी कर लिया। खूब धूम धड़ाके से चुनाव हुआ और भाजपा सरकार बनी तथा नरेन्द्र मोदी प्रधानमंत्री बने।
2014 से 2019 तक की कोई आर्थिक उपलब्धि सरकार खुद ही 2019 के चुनाव प्रचार में नहीं बता पाई। सरकार ने जानबूझकर चुनाव प्रचार की दिशा और मुद्दा पुलवामा हमले के 40 शहीद सीआरपीएफ के जवानों और बालाकोट एयर स्ट्राइक तक ही सीमित रखा। कारण साफ था कि मंदी की सुगबुगाहट हो गई थी और उद्योग से लेकर किसानों तक निराशा पसरी पड़ी थी। 2019 में फिर सरकार की वापसी हुई। पर न मंदी के कदम थमें न मजदूर और किसानों की बेहतरी हुई।
2014 के बाद भाजपा सरकार की क्या आर्थिक नीति होगी यह किसी को पता नहीं था। आज भी सरकार की आर्थिक नीति क्या है यह भी सरकार को पता नहीं है। 2014 से 2016 तक सामान्य रूप से आर्थिक दशा चलती रही। पर अचानक 2016 में सरकार ने जब 1000 और 500 रुपए के नोट चलन से बाहर कर दिए तो आर्थिक स्थिति पर एक ब्रेक लगा और तभी से आर्थिक स्थिति गिरने लगीं। सरकार ने नोटबंदी क्या सोच कर की, यह तो सरकार ही बता पाएगी। आज तक सरकार ने यह नहीं बताया कि जिन आर्थिक लक्ष्यों की पूर्ति के लिए यह मास्टरस्ट्रोक उठाया गया उनमे से कितने पूरे हुए और कितने पूरे नहीं हुए।
नोटबंदी के बाद कर सुधार के नाम पर जीएसटी कानून लागू हुआ। यह एक अच्छा कदम था, पर अपनी प्रक्रियागत जटिलताओं और अनेक किंतु परंतु के कारण यह कर सुधार भी सफल नहीं हो सका। पहले सोचा गया था कि इन दोनों सुधारात्मक कदमो से जो मंदी आ रही है वह अस्थायी होगी, और बाजार स्वत: इसे दुरुस्त कर लेगा, पर यह न हो सका। सरकार एक आलमे बदहवासी में नजर आई और फिर धीरे धीरे, औद्योगिक उत्पादन गिरा, बाजार में क्रय शक्ति घटी, रियल इस्टेट सेक्टर बैठना शुरू हुआ, टेक्सटाइल में सुस्ती आई, जब यह सब हुआ तो नए रोजगार सृजन की बात तो छोड़ ही दीजिए, जो नौकरियां थीं वह भी कम होने लगीं। इस सुस्ती और मंदी का असर कर संग्रह पर पड़ा। जब कर संग्रह पर असर पड़ा तो राजकोषीय घाटा बढ़ा। आयात निर्यात का संतुलन बिगड़ा तो व्यापार घाटा बढ़ा। फिर यह मंदी जिसे केवल आर्थिक मामलों के जानकार ही भांप रहे थे अब सबको दिखने लगी। रोग तो दिखा पर रोग का कारण लोग नहीं समझ पाए।
आर्थिक मंदी के खबरों के बीच सबसे बड़ी चिंता यह है कि सरकार इस मंदी को लेकर न तो चिंतित दिख रही है और न ही स्वीकार कर रही है कि ऐसी कोई गिरावट अर्थव्यवस्था में आ रही है। जबकि इस गिरावट की ओर सबसे पहले संकेत सरकार के ही आर्थिक सलाहकार अरविंद पनगढ़िया ने ही दिए थे। पनगढ़िया ने आर्थिक सलाहकार का अपना पद छोड़ा और वे अमेरिका वापस चले गए। फिर आरबीआई की तरफ से गिरावट की चेतावनी मिलने लगी। सरकार के पास धन की कमी हो गई और आरबीआई से संचित धन लेने की उसे जरूरत पड़ी। इस मुद्दे पर आरबीआई के गवर्नर उर्जित पटेल और डिप्टी गवर्नर विरल आचार्य ने अपने पद से त्यागपत्र दे दिया। नए गवर्नर शशिकांत दास आए तो उन्होंने संचित धन से 1,76,000 करोड़ रुपए सरकार को दे भी दिए, पर यह भी आगाह किया कि यह गिरावट तेजी से असर कर रही है। फिर कुछ उद्योगपतियों के बयान आए कि इस गिरावट का असर उनके यहां भी पड़ने लगा है। भाजपा के ही सांसद सुब्रमण्यम स्वामी का भी बयान आया कि यह मंदी है और उन्होंने तो यह भी कहा कि इस मंदी से निपटने के लिए सरकार के पास न तो इच्छाशक्ति है और न ही काबिल लोग। सरकार के ही अर्थशास्त्री रथिन राय ने एक लंबा लेख लिखकर में इस मंदी के बारे में स्पष्ट संकेत भी दिए।
हम एक वैश्विक अर्थव्यवस्था के युग मे हैं। पूरी दुनिया की अर्थव्यवस्था एक दूसरे को प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से प्रभावित करती है। ऐसी स्थिति में दुनियाभर की प्रमुख सर्वेक्षण और आर्थिक एजेंसियां भी महत्वपूर्ण देशों की अर्थव्यवस्था पर नजर रखती है। भारत की इस मंदी को सबसे पहले विश्व बैंक ने भांपा और भारत का विकास दर (जीडीपी) गिरने की बात कही, फिर आईएमएफ ने चेतावनी दी, फिर तो निवेश की राय देने वाली एजेंसी मूडीज ने भी यह मान लिया कि देश मे आर्थिक मंदी का असर आ रहा है। दो दिन पहले आईएमएफ के प्रमुख ने बयान दिया कि वैसे तो मंदी का असर पूरी दुनिया मे है, पर भारत मे इसका असर और व्यापक होगा। आज ही अखबार में छपी एक खबर के अनुसार, आरबीआई ने पहले अनुमानित विकास दर, 6.9 बतायी थी, अब वह दर उसने घटा कर 6.1 % कर दिया है। इसी प्रकार अंतरराष्ट्रीय रेटिंग एजेंसियों, मूडीज ने पहले घोषित दर 6.8 को 6.2, फिंच ने 6.8 से 6.6 और एडीबी ने 7 से घटाकर 6.5 कर दिया है। जब इरादा और घोषणा 5 ट्रिलियन अर्थव्यवस्था का हो तो क्या सरकार अपने ही संस्थान आरबीआई, नीति आयोग और अंतरराष्ट्रीय संस्थान विश्व बैंक, आईएमएफ और मूडीज के इन चेतावनी पर ध्यान दे रही है ?
इसका उत्तर है नहीं। सरकार के किसी भी मंत्री का बयान इन आर्थिक संकेतकों से दिखती हुई आर्थिक मंदी की आहट की ओर जा रहा है, ऐसा संकेत नहीं देता है। इसके विपरीत वित्तमंत्री का बयान कि कोई मंदी नहीं है, और कानून मंत्री का बयान कि एक दिन में फिल्में जबरदस्त कमाई कर रही हैं अत: मंदी कहां है जैसे प्रत्यक्ष मूर्खतापूर्ण, हास्यास्पद और असंवेदनशील बयान आ रहे हैं। प्रधानमंत्री इन मसलों पर पहले भी नहीं बोलते थे और अब भी वे नहीं बोलते हैं। सरकार की प्राथमिकता में वित्त व्यवस्था जैसी कोई चीज, लगता है, है ही नहीं। अगर होती तो निश्चय ही सरकार कोई न कोई ऐसा कदम उठाती जिससे यह गिरावट थमती और कुछ सार्थक संकेत मिलते।