सनातन धर्म में स्पष्ट है कि लक्ष्मी तब फलित होती हैं, जब वह गणेश के साथ होती हैं। यही कारण है कि किसी भी अच्छी शुरुआत को “श्रीगणेश करो” कहकर संबोधित करते हैं। अभिप्राय यह है कि संपदा बगैर बौद्धिकता के व्यर्थ होती है। हमारे गांव की एक कहावत है, “पूत कपूत तो क्या धन संचय, पूत सपूत तो क्या धन संचय”। स्पष्ट है कि अगर बौद्धिकता नहीं होगी तो पुत्र कपूत हो जाएगा और सब बरबाद कर देगा। पुत्र बौद्धिक होगा तो वह स्वतः संसाधन जुटा लेगा, उससे खुद भी सुख हासिल करेगा और दूसरों की भी मदद करेगा। हम ऋषि-मनीषी परंपरा वाले देश हैं। हमारे ग्रंथ बताते हैं कि राजा सदैव खुद ऋषियों-मनीषियों के यहां जाकर उनसे समय-समय पर मार्गदर्शन लेता था। ऋषि-मनीषी असल में विषय विशेषज्ञ और विज्ञानी होते थे, वह मूर्ति पूजा में नहीं बल्कि समाजहित में शोध और विशेषज्ञता के लिए कार्य करते थे। कमोबेश आज भी जो शीर्ष के विश्वस्तरीय विशेषज्ञ हैं, उनमें सभी क्षेत्रों के करीब सवा दो लाख भारतीय मूल के हैं। अगर हमारे सत्तानशीन उनके आगे याचक बनकर जाते तो तय है कि देश कहने भर को नहीं बल्कि सच में विश्वगुरू होता। हमने शोध एवं विकास पर जोर ही नहीं दिया। हमारे यहां आरएंडडी पर जीडीपी का 0.6 फीसदी खर्च होता है, जो विश्व में सबसे कम है, जबकि समर्थ देशों में इस पर सवा दो फीसदी से अधिक खर्च होता है।
हम धर्म की बड़ी-बड़ी बातें करते हैं मगर वास्तव में उससे सीखते नहीं। हमारा धर्म सबसे बड़ा मार्गदर्शक है। कौटिल्य “चाणक्य” का अर्थशास्त्र और कूटिनीति, अनुकरणीय है। नोबेल विजेता अमर्त्य सेन, अभिजीत बनर्जी जैसे अर्थशास्त्री हमारे हैं। प्रणव वर्धन, गीता गोपीनाथन, कौशिक बासु और राज चेट्टी जैसे अर्थशास्त्रियों से डूबती अर्थव्यवस्था को लेकर चिंतन का आग्रह किया जा सकता था। सत्तानशीन राजनेता अपने गलत फैसलों के लिए देश से माफी मांगकर पुर्नसृजन पर काम शुरू कर सकते हैं। अंतरराष्ट्रीय गणितज्ञ मंजुल भार्गव हों या फिर समित कचरू, शिक्षाविद् गीता मोहन हो या संजय शर्मा और आईटी में आरोग्य स्वामी जैसे बौद्धिक विशेषज्ञों सहित विश्व के तमाम अहम क्षेत्रों के करीब साढ़े तीन लाख शीर्ष स्तर के व्यवसायिक विशेषज्ञ भारतीय हैं, जिन्हें विश्व का चाणक्य माना जाता है। इतना सब होने के बाद भी हमारा देश असहाय क्यों है? इसका जवाब है कि न तो हमने उनकी मदद लेने की कोशिश की और न ही उनको सम्मान के साथ भारत लाने पर जोर दिया। हमारे देश में तो बाबुओं को संजोया जाता है, जो फाइलों को फंसाते हैं। उन्हें सम्मान के साथ पैसा भी मिलता है, जबकि विज्ञानियों और विशेषज्ञों के लिए समाज में कोई अहम जगह नहीं है।
हाल में एक खबर आई कि भूटान ने हमारे किसानों को मिलने वाला सिंचाई का पानी रोक दिया। सीतामढ़ी सीमा पर नेपाल के प्रहरियों ने गोलीबारी कर दी, उसने अपना मानचित्र भी भारत के खिलाफ पारित कर दिया। एनआरसी के फैसले के बाद बांग्लादेश और भारत के रिश्तों में खटास आई। चीन से मिठास बढ़ी है। श्रीलंका ने भी भारत को उपेक्षित करना शुरू कर दिया है। उसने सामरिक महत्व के अपने पोर्ट को चीन के हाथों सौंप दिया है। पाकिस्तान हमारा जन्मजात दुश्मन है। म्यानमार भी चीन के करीबी आ गया है। इस कूटनीतिक असफलता के कारण हम चारो ओर से घिर गये हैं। चीन ने इन सभी से न सिर्फ कारोबारी रिश्ते बनाये हैं बल्कि राजनीतिक मजबूती भी कायम की है। अचानक कल खबर आई कि इन हालात में अमेरिका अपने 9500 सैनिक इस क्षेत्र में तैनात करेगा। मतलब साफ है कि अब उसकी निगाह हमारे क्षेत्र पर है क्योंकि यही काम उसने मध्य एशिया में किया था। इतिहास बताता है कि अमेरिका ने अपने प्रभुत्व की लड़ाई कभी अपनी धरती पर नहीं लड़ी बल्कि विवादित इलाकों में या विवाद पैदा करके वहां लड़ता है और थानेदार बन जाता है। वह लंबे समय से यही तो करना चाहता था मगर हमारे तत्कालीन राजनीतिज्ञों ने कभी अमेरिका के इन मंसूबों को पूरा नहीं होने दिया। उन्होंने सदैव कूटिनीति में बौद्धिक संपदा का सहयोग लिया।
हमें समझना होगा कि हमारे देश के भीतर की बौद्धिकता लोक सेवकों में सिमटी हुई है। औसत बुद्धि के प्रशासनिक और पुलिस अधिकारी तमाम विद्वानों पर भारी पड़ते हैं। वह नीतियों पर अपनी सोच थोपते हैं। चूंकि यह अफसर राजनीतिज्ञों के कमाऊ पूत होते हैं, इसलिए सत्ता उनके मुताबिक चलती है। अब इसमें कारपोरेट और उच्च न्यायपालिका भी शामिल हो गई है। नतीजतन संविधान की मूल भावना खत्म हो रही है। उसकी व्याख्या या संरक्षा वाला सुप्रीम कोर्ट अपंग हो गया है। लचर लोकतंत्र और भ्रष्ट व्यवस्था सत्ता का आधार बन गये हैं। संगठित भ्रष्टाचार ने राष्ट्रवाद और राजस्व का रूप ले लिया है। अब दाल में नमक नहीं खाया जाता बल्कि दाल ही नमक की बनाई जाती है। चहेती कंपनियों को ठेका पट्टा नहीं दिया जाता बल्कि उनके अनुकूल नीतियां और कानून में बदलाव कर दिया जाता है। पहले कॉमनवेल्थ, 2जी, कोयला और बोफोर्स खरीद जैसे घोटालों के आरोप होते थे मगर अब उसकी जरूरत ही नहीं रही। अब तो रॉफेल खरीद हो या फिर रिलायंस को 4जी का लाइसेंस, कोल ब्लॉक आवंटन हो या भूमि-पोर्ट, रेलवे के पट्टे सभी के लिए नियम ही चहेती कंपनियों के अनुकूल बना दिये जाते हैं। न पर्यावरण, न मानव-जीव जीवन की आपत्तियां, जो आड़े आये, उसके लिए नियम-कानून और नीतियों को कंपनियों के मुताबिक बदल दिया जाता है।
हमें याद आता है कि देश की आजादी के वक्त में भारत-चीन के बीच कोई बड़ा फर्क नहीं था। 1990 तक भारत प्रति व्यक्ति आय हो या फिर भारतीय उत्पादों के निर्यात और उत्पादन, सभी में चीन से आगे था। वजह, उस वक्त देशी-विदेशी भारतीय बौद्धिक संपदा को सम्मान देकर उनकी मदद ली जाती थी। जब वैश्वीकरण की दौड़ में कारपोरेट और काम अटकाने वाले बाबुओं को तरजीह देने की शुरुआत हुई, तो बौद्धिकता उपेक्षित होती गई। नतीजा, आज प्रतिव्यक्ति आय में हम लगभग सवा लाख रुपये सालाना हैं, तो चीन पौने आठ लाख रुपये सालाना। चीन 2.65 ट्रिलियन डॉलर का निर्यात करता है और हम 0.54 ट्रिलियन का। हमारे यहां मॉस लेबर अनस्किल्ड है और उनके यहां स्किल्ड। हमारे यहां स्किल इंडिया और स्टार्टअप प्रोजेक्ट घोटालों में तब्दील हो जाते हैं। हमने विभिन्न क्षेत्रों में उत्पादकता बढ़ाने के लिए शोध और विकास को उपेक्षित रखा जबकि चीन सहित सभी समर्थ देशों ने उसके लिए विशेष ध्यान और बजट दिया। हालात यह हैं कि विश्व के तमाम उत्पादक देशों ने सिर्फ भारत की बाजार पर आरएंडडी के लिए 42 बिलियन डॉलर खर्च किया। उसका नतीजा है कि हम भंवर जाल में फंसे हैं। डर पैदा करके अमेरिका, रूस और फ्रांस जैसे देशों ने अपने हथियार हमें बेचने का सौदा कर डाला। हम उसी में खुश होकर झूम रहे हैं। यह उनकी कूटनीतिक सफलता है कि भारत भविष्य में युद्ध की विभीषिका में फंसा हथियार खरीदेने में व्यस्त है।
हमारे सत्तानशीनों को बौद्धिकता शायद पसंद ही नहीं। उन्हें समीक्षा और आलोचना में देशद्रोह दिखता है क्योंकि राजनीतिज्ञों को मुनाफा तो चापलूस बाबूशाही और कारपोरेट दिलाता है। यही कारण है कि जब हम चीन-भारत सीमा विवाद में उलझे थे, तब सत्ता की चहेती कारपोरेट कंपनियां और सरकार चीन से एमओयू, बिजनेस डील करने में व्यस्त थीं। जब जनता देशप्रेम में पागल हो चीन के सामान का बहिष्कार कर रही थी, तभी अडानी, अंबानी और सरकार ने चीन के साथ दो दर्जन व्यवसायिक समझौते कर लिये। बौद्धिकता के अभाव में हमारे लोग सेनेटाइजर और मॉस्क, मनरेगा में ही जूझते रहे, उधर, अंबानी की जियो ने लॉकडाउन में भी पौने दो लाख करोड़ रुपये का निवेश हासिल कर लिया। हमारी ताकत बौद्धिक संपदा रही है, न कि हथियार। अगर हम उसको संभाल सकें और बुद्धिजीवियों को समझ सकें तो शायद विश्व गुरु बनकर धन-सम्मान और आत्मनिर्भरता सभी पाएंगे। अन्यथा, सिर्फ रोजगार के लिए लाइन लगाने वाले बनकर रह जाएंगे। कारपोरेट-ब्यूरोक्रेसी-ज्युडीशरी का सियासी कॉकस हमें बंधुआ मजदूर बना देगा और देश बेहाल असहाय ही रह जाएगा।
जयहिंद!
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(लेखक आईटीवी नेटवर्क के प्रधान संपादक हैं)