आज समाज डिजिटल, नई दिल्ली:
शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती का रविवार को निधन हो गया। मध्यप्रदेश के नरसिंहपुर के झोतेश्वर मंदिर में उन्होंने अंतिम सांस ली। वे 98 साल के थे। 99वें साल में प्रवेश के साथ से ही वे बीमार चल रहे थे। वे द्वारका की शारदा पीठ और ज्योर्तिमठ बद्रीनाथ के शंकराचार्य थे। हाल ही में 3 सितंबर को उन्होंने जन्मदिन मनाया था।
राम मंदिर के लिए लड़ी थी कानूनी लड़ाई
शंकराचार्य ने राम मंदिर निर्माण के लिए लंबी कानूनी लड़ाई लड़ी। आजादी के आंदोलन में भी भाग लिया। स्वरूपानंद सरस्वती को हिंदुओं का सबसे बड़ा धर्मगुरु माना जाता था। अंतिम समय में शंकराचार्य के अनुयायी और शिष्य उनके समीप थे। उनके बृह्मलीन होने की सूचना के बाद आसपास के क्षेत्रों से भक्तों की भीड़ आश्रम की ओर पहुंचने लगी।
पोथीराम था बचपन का नाम
स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती का जन्म मध्यप्रदेश राज्य के सिवनी जिले के दिघोरी गांव में ब्राह्मण परिवार में हुआ था। उनके माता-पिता ने इनका नाम पोथीराम उपाध्याय रखा था। महज नौ साल की उम्र में उन्होंने घर छोड़ धर्म की यात्रा शुरू कर दी थी। इस दौरान वो उत्तरप्रदेश के काशी भी पहुंचे और यहां उन्होंने ब्रह्मलीन श्री स्वामी करपात्री महाराज वेद-वेदांग, शास्त्रों की शिक्षा ली। आपको जानकर हैरानी होगी कि साल 1942 के इस दौर में वो महज 19 साल की उम्र में क्रांतिकारी साधु के रुप में प्रसिद्ध हुए थे। क्योंकि उस समय देश में अंग्रेजों से आजादी की लड़ाई चल रही थी।
स्वामी स्वरूपानंद ने ली दंड दीक्षा
स्वामी स्वरूपानंद ने साल 1950 में वे दंडी संन्यासी बनाये गए और 1981 में शंकराचार्य की उपाधि मिली। साल 1950 में ज्योतिषपीठ के ब्रह्मलीन शंकराचार्य स्वामी ब्रह्मानन्द सरस्वती से दंड-संन्यास की दीक्षा ली और स्वामी स्वरूपानन्द सरस्वती नाम से जाने जाने लगे।
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