- राज्यों के प्रति उदासीनता पड़ेगी महंगी
National News | अजीत मेंदोला । नई दिल्ली। कांग्रेस आलाकमान के रवैया से ऐसा लगता है कि वह राज्यों को गंभीरता से नहीं ले रहा है। यही वजह है कि पार्टी जीते जाने वाले राज्य भी हार रही है। हरियाणा के बाद महाराष्ट्र में हुई दुर्गति ने कांग्रेस को फिर से अब तक के सबसे बुरे दौर में ला कर खड़ा कर दिया है।
राहुल अगर इसी तरह उदासीनता की राजनीति करते रहे तो बीजेपी का कांग्रेस मुक्त भारत का नारा अपने आप साकार हो जायेगा। हार से सबक न लेने का नतीजा हरियाणा और महाराष्ट्र तो हैं ही दिल्ली की हालत और खस्ता है। दिल्ली में स्थाई अध्यक्ष नहीं है।
अंतरिम अध्यक्ष से काम चल रहा है। प्रभारी गायब हैं। हरियाणा में करारी हार के बाद पार्टी विधायक दल नेता का चयन ही नहीं कर पाई। आलाकमान पूर्व सीएम भूपेंद्र सिंह हुड्डा को लेकर इतना दबाव में है कि महाराष्ट्र और झारखंड के चुनाव परिणामों के बाद एक्शन की सोचेगा। यही वजह रही है कि मुख्यमंत्री नायब सिंह की दूसरी पारी के पहले सत्र में कोई प्रतिपक्ष का नेता चुना ही नहीं गया।
दिल्ली में 2 महीने बाद विधानसभा चुनाव, भाजपा व आप की तैयारी पूरी, कांग्रेस को नहीं मिला अध्यक्ष
इधर दिल्ली में दो माह बाद विधानसभा का चुनाव होना है। कांग्रेस आलाकमान पांच माह से पंजाब राज्य के प्रभारी देवेंद्र यादव को अंतरिम अध्यक्ष बना काम चला रहा है। जबकि विरोधी पार्टी आप ने चुनाव के लिए अपनी पहली सूची जारी भी कर दी है और बीजेपी तैयारी में है।
लेकिन इस बीच देवेंद्र यादव ने दिल्ली में कांग्रेस के पक्ष में माहौल बनाने के लिए न्याय यात्रा शुरू की हुई है। जो महज औपचारिकता जैसी दिख रही है। लोकसभा चुनाव से पहले मौजूदा प्रदेश अध्यक्ष अरविन्द्र सिंह लवली इस्तीफा दे बीजेपी में शामिल हो गए थे तब पंजाब के प्रभारी देवेंद्र यादव को कांग्रेस आलाकमान ने अंतरिम अध्यक्ष के रूप में जिम्मेदारी दी थी।
समझा जा रहा था कि लोकसभा चुनाव बाद पार्टी को स्थाई अध्यक्ष मिल जाएगा। जिसकी अगुवाई में विधानसभा का चुनाव लड़ा जाता। नेता और कार्यकर्ता इसी बात की इंतजारी कर रहे थे कि जल्द नया नेता मिलेगा और चुनाव में जुट जाएंगे। लेकिन ऐसा हुआ नहीं। यादव खुद ही पार्टी का झंडा उठा न्याय यात्रा पर निकल पड़े। सूत्रों का कहना है कि यात्रा की सफलता के लिए पंजाब के कुछ नेताओं से हर तरह की मदद ली जा रही है। ऐसे में पंजाब के बाकी कांग्रेसियों भी नाराजगी है।
दिल्ली में कांग्रेस की न्याय यात्रा में नहीं दिख रहे कांग्रेस के बड़े नेता
गौर करने वाली बात यह है कि पार्टी के सर्वोच्च नेता राहुल गांधी, कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे के पोस्टर यात्रा में गिनी चुनी जगह ही दिखाई दे रहे हैं। कही जगह तो नेताओं के पोस्टर ही नजर आ रहे हैं। दिल्ली के प्रभारी दीपक बाबरिया तो हरियाणा की हार के बाद से लापता हैं।
हरियाणा के परिणाम आने से पहले उनकी तबियत खराब होने की खबर सामने आई थी। अब वह नजर ही नहीं आ रहे हैं। यात्रा के असल कर्ताधर्ता यादव खुद ही बने हुए हैं। 8 नवंबर से यात्रा की शुरूआत हुई थी। यात्रा किस्तों में की जा रही।
राहुल गांधी ने दूसरे चरण में अपनी यात्रा का नाम न्याय यात्रा रखा था। इसलिए यादव के नेतृत्व में दिल्ली कांग्रेस ने अपनी यात्रा का नाम भी न्याय यात्रा रखा हुआ है। राहुल गांधी की तरह ही टी शर्ट पहन यादव यात्रा पर निकलते हैं।
ऐसा लगता है कि वह पार्टी की कम अपनी मार्केटिंग ज्यादा कर रहे हैं। पोस्टर बाजी से लेकर जो भी दिखाया जा रहा है राहुल की तरह दिखने की कोशिश की जा रही है। गांधी टोपी और खादी की ड्रेस गायब हो गई है। क्योंकि सर्वोच्च नेता नहीं पहन रहें तो दिल्ली के नेता भी नहीं पहन रहे हैं।
कांग्रेस में जिम्मेदारी तय करने की नहीं रही परंपरा
संगठन महासचिव के सी वेणुगोपाल के करीबी होने के चलते यादव संगठन में जमे हुए हैं। उत्तराखंड की हार के बाद उन्हें पंजाब की जिम्मेदारी दी तो वहां भी पार्टी हाशिए पर आ गई। कांग्रेस में जिम्मेदारी तय करने की परंपरा रही नहीं इसलिए ऊपरी नेताओं से अच्छे संबंधों के चलते हटाया नहीं जाता है।
हालांकि देवेंद्र यादव दिल्ली में किसी भी लिहाज से फिट नहीं बैठते है, लेकिन आलाकमान की ऐसी मजबूरी हो गई कि संगठन महासचिव जिसकी सिफारिश करते हैं उसे मौका मिल जाता है। दिल्ली के असल नेता अजय माकन तो पार्टी के कोषाध्यक्ष बन गए हैं और राज्यसभा से सांसद। चेहरे बहुत है, जुगाड़ नहीं है।
जे पी अग्रवाल, संदीप दीक्षित, सी पी मित्तल, अभिषेक दत्त, अलका लांबा,रोहित चौधरी आदि तो थे ही, लेकिन आजकल राहुल गांधी जिस तरह पिछड़ों की राजनीति कर रहे हैं तो वरिष्ठ नेता कई बार विधायक रहे जयकिशन, राजेश लिलोठिया और कृष्णा तीरथ में से किसी को मौका दिया जा सकता था।
कांग्रेस जीते जाने वाले राज्यों में भी हार रही
कांग्रेस आलाकमान के रवैया से ऐसा लगता है कि राज्यों के चुनावों को वह गंभीरता से नहीं लेते हैं। यही वजह है कि पार्टी जीते जाने वाले चुनाव भी हार जाती है। 2023 से पार्टी मध्यप्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़ जैसे राज्य केवल इसलिए हार गई कि आलाकमान ने राज्यों में चल रही आपसी लड़ाई को कभी गंभीरता से लिया ही नहीं।
तीनों राज्यों में सरकार के गठन की नींव झगड़े से ही पड़ी थी। मध्यप्रदेश जैसे राज्य में चुनी हुई सरकार केवल इसलिए गिर गई कि दिग्विजय सिंह और ज्योतिरादित्य सिंधिया की लड़ाई में जो दांव चले गए उसका पता न तो कमलनाथ को लगने दिया और ना ही गांधी परिवार को। कहा जाता है दांव पेंच में दिग्विजय सिंह सिंधिया पर भारी पड़े।
सिंधिया की गांधी परिवार से बोलचाल ही बंद करवा दी। जबकि राहुल और उनकी बहन प्रियंका गांधी अकेले पैदल ही सिंधिया के सरकारी आवास में पहुंच चर्चा करते थे, चाय इत्यादि पीते। पारिवारिक संबंध थे। कोई सोच भी नहीं सकता था कि सिंधिया पार्टी छोड़ेंगे, लेकिन ऐसी राजनीति हुई कि सिंधिया बोलचाल बंद होने पर पार्टी छोड़कर चले गए। सरकार गिर गई।
कमलनाथ को उम्मीद थी कि दिग्विजय सिंह के रहते सरकार को कोई खतरा नहीं है। क्योंकि उन्हें लगता था दिग्विजय संभाल लेंगे। यही आलाकमान राहुल गांधी को को लगता था कोई खतरा नहीं है। हल्के में सब कुछ ले लिया। इसके बाद राजस्थान में मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने जैसे तैसे अपनी सरकार को बचा पांच साल निकाले।
जीत के जैसा माहौल बनाया। लेकिन आलाकमान ने आंखे बंद कर सचिन पायलट और उनके समर्थकों की सरकार विरोधी कदमों की अनदेखी की और चुनाव हार गए। छत्तीसगढ़ में भी आपसी लड़ाई ले डूबी। राहुल गांधी और उनकी टीम ने कोई सबक नहीं लिया और जीता हुआ हरियाणा आपसी लड़ाई में हार गए। इसका असर दूसरे राज्यों में पड़ा।
हालांकि इस बीच लोकसभा में गठबंधन कर 99 सीटें जीत ली लेकिन राज्यों की हार ने मेहनत पर पानी फेर दिया। दरअसल पार्टी आज जिस दौर से गुजर रही है उसमें पार्टी आलाकमान का टालने वाले रवैया से कार्यकर्ताओं का मनोबल गिर रहा है। दिल्ली चुनाव में पार्टी कोई सुधार करती दिख नहीं रही है। हरियाणा के बाद महाराष्ट्र की करारी हार पार्टी झेलने की स्थिति में नहीं है। नेताओं और कार्यकर्ताओं में भारी निराशा है।
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