इसके बाद 30 जनवरी 2006 को महिला और बाल विकास मंत्रालय को भी एचआरडी से अलग कर दिया गया और इन फैसलों के साथ एचआरडी मंत्रालय केवल एक औपचारिक नाम ही रह गया। हाल में आई नई शिक्षा नीति (एनईपी) से शिक्षा की तस्वीर बदलने की संभावना है। भारत में पहली बार एनईपी की जरूरत 1964 में महसूस हुई थी और उसी वर्ष- डीएस कोठारी की अध्यक्षता में एक 17 सदस्यीय शिक्षा आयोग का गठन किया गया। इसके सुझावों के आधार पर, 1968 में पहली शिक्षा नीति पारित हुई। इसके बाद दूसरी एनईपी 1986 में आई, जिसे 1992 में संशोधित किया गया। और अब इस नई (तीसरी) एनईपी के तेहत भारतीय उच्च शिक्षा को विदेशी विश्वविद्यालयों के लिए खोला गया है। इसके साथ यूजीसी, एआईसीटीई और एमफिल कार्यक्रम को खत्म करने, चार-वर्षीय स्नातक कार्यक्रम को विकल्प के साथ छोड़ने की अनुमति सहित कई बदलाव किए हैं। स्कूली शिक्षा के पाठ्यक्रम को ओवरहाल किया गया है।
इसके अलावा नई एनईपी में 1986 10+2 संरचना नीति की जगह अब 5+3+3+4 डिजाइन बनाई है। साथ-ही मिडडे मील को प्री-स्कूल तक बढ़ाया जाएगा। बरहाल ये तो नई शिक्षा नीति का एक संक्षिप्त विवरण है। लेकिन एनईपी में संवैधानिक और आर्थिक बाधाएं आ सकती हैं। सनद रहे कि एनईपी केवल एक दिशा प्रदान करेगी और इसका पालन करना अनिवार्य नहीं है। शिक्षा एक समवर्ती विषय है और प्रस्तावित सुधार केवल केंद्र और राज्यों द्वारा सहयोगात्मक रूप से लागू किए जा सकते हैं। यह तुरंत नहीं होगा। सरकार ने पूरी नीति को लागू करने के लिए 2040 का लक्ष्य रखा है। इसके अलावा इस नीति पर आर्थिक खर्च भी महत्वपूर्ण है; 1968 में एनईपी फंड की कमी की वजह से काफी प्रभावित हुई थी।
सरकार ने एनईपी के प्रत्येक पहलू के कार्यान्वयन के लिए केंद्र और राज्य दोनों स्तरों पर मंत्रालयों के सदस्यों के साथ विषयवार समितियों की स्थापना की योजना बनाई है। यह एचआरडी मंत्रालय, राज्य शिक्षा विभागों, स्कूल बोर्डों, एनसीआरटी, सीएबीई और एनटीए सहित कई निकायों द्वारा की जाने वाली कार्रवाइयों को सूचीबद्ध करेंगी। हालांकि ये योजना नई नहीं है, देश के अधिकांश सरकारी स्कूल पहले से ऐसा कर रहे हैं। यह संभावना नहीं है कि निजी स्कूलों को अपने शिक्षा के माध्यम को बदलने के लिए हा जाए। साथ ही मातृभाषा पर प्रावधान राज्यों के लिए अनिवार्य नहीं है। एनईपी में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि बच्चों को उनकी मातृभाषा या क्षेत्रीय भाषा में जहां भी संभव हो, पढ़ाया जाए। इसके अलावा विदेशी विश्वविद्यालयों पर सरकार की वर्तमान स्थिति यूपीए-2 के वक्त लाए गए विदेशी शिक्षा संस्थानों विधेयक (2010) से बिलकुल उलट है। उस वक्त भारत में विदेशी विश्वविद्यालयों को संचालित करने की अनुमति देने के विरोध में भाजपा का तर्क था कि- इससे शिक्षा की लागत बढ़ेगी और एक बड़ी आबादी शिक्षा की पहुंच से बाहर हो जायेगी। और अब सरकार ने दुनिया के शीर्ष 100 विश्वविद्यालयों को भारत में परिसर स्थापित करने की अनुमति दे दी है।
हालांकि यह शीर्ष 100 को परिभाषित नहीं किया गया है। सरकार इसके लिए ह्लक्यूएस वर्ल्ड यूनिवर्सिटी रैंकिंगह्व का उपयोग कर सकती है क्योंकि अतीत में इस पर भरोसा किया गया है। यह तब ही शुरू हो सकता है जब एचआरडी मंत्रालय एक नया कानून लाए जिसमें विदेशी विश्वविद्यालय के भारत में संचालन का विवरण हो। अभी यह भी साफ नहीं है कि नया कानून विश्वविद्यालयों को भारत में परिसर की स्थापना के लिए उत्साहित करेगा या नहीं? 2013 में भी एक समान कोशिश करी गई थी।
लेकिन एक रिपोर्ट के मुताबिक उस वक्त येल, कैम्ब्रिज, एमआईटी, स्टैनफोर्ड और ब्रिस्टल सहित शीर्ष 20 वैश्विक विश्वविद्यालयों ने भारतीय बाजार में आने में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई थी। सनद रहे कि भारत में समय-समय पर नीतियां आती रही हैं लेकिन ज्यादातर नीतियां फण्ड की कमी कि वजह से नीचे नहीं उतर पातीं और कुछ में संवैधानिक पेंच में फंस जाती हैं। इन सबके अलावा यह बात तो साफ है कि विपक्ष में रहते वक्त जो नीतियों का राजनैतिक पाटीर्यां विरोध करती हैं, सरकार में आने के बाद वही उनके लिए अच्छी हो जाती हैं।
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं। यह इनके निजी विचार हैं।)