मुक्तिबोध के प्रति ललित मोहन श्रीवास्तव की भक्ति इस कदर थी कि समिति को आवंटित कुल जमा पचहत्तर रुपयों की राशि उद्घाटन कार्यक्रम में ही खर्च हो गई। उसमें से मुक्तिबोध को यथासम्भव पारिश्रमिक भी दिया गया। हलके रंग का सूती कोट पहने मुक्तिबोध ने गंभीर मुद्रा के अपने भाषण के बाद एकल काव्यपाठ भी किया। विज्ञान के विद्यार्थियों के कारण ‘मुर्गी अपनी जान से गई लेकिन खाने वालों को मजा नहीं आया’ वाला मामला हुआ। कोई छ: वर्ष बाद मैं बालाघाट के शासकीय महाविद्यालय में ललित मोहन श्रीवास्तव का प्राध्यापकीय सहकर्मी बना। तब तक मुक्तिबोध से परिचय और आत्मीयता का दौर प्रगाढ़ होकर उनके निधन के कारण खत्म भी हो गया था। कविता लिखने से मेरा बैर रहा है। कवियों को सुनना अन्यथा अच्छा लगता रहा। बहुत कोशिश करने के बाद भी मैं कविता नहीं लिख पाया। मुक्तिबोध के निधन का समाचार मुझमें भूकंप रच गया। मुक्तिबोध की यादें धूमिल होकर भी गुम नहीं हो सकीं। उनके व्यक्तित्व का असर जिस पर भी पड़ा, स्थायी हुआ है। मैं 23 का था, मुक्तिबोध 46 के और बख्शर जी 69 के। मेरे कुछ स्कूली सहपाठी पढ़ाई में व्यवधान होने के कारण संयोगवश मेरे छात्र हो गए थे। वे मुंहलगे मित्र-शिष्य हम तीनों अध्यापकों को कॉलेज से निकलकर खपरैल से बनी झोपड़ी में चाय की दूकान की ओर आते जाते देखने पर 23 का पहाड़ा पढ़ने लगते। मुक्तिबोध पितातुल्य उम्र के थे और बख्शीजी मेरे पिता के शिक्षक रहे)। मुक्तिबोध अमूमन चाय पीते, बख्शी जी कई बार कॉफी। मुक्तिबोध सिगरेट और बिड़ी दोनों पी सकते थे, बख्शी जी लगातार बिड़ी। बख्शी जी को इमरती भी भाती और भजिए कचौरी भी। मुक्तिबोध खाने से बचते, लेकिन दूसरा कप चाय पीने से पहले कप के बनिस्बत ज्यादा खुश होते। तीन पीढ़ियों का यह काफिला खाली पीरियड के पैंतालीस मिनटों में लौट आने की मयार्दा में बंधा रहता क्योंकि बख्शी जी के शिष्य, मुक्तिबोध के नियोक्ता और मेरे चाचा जी ही तो प्राचार्य थे। मुक्तिबोध के निधन के तीस वर्षों बाद मध्यप्रदेश गृह निर्माण मण्डल का अध्यक्ष पद मुझे मिला। मैंने अध्यक्षीय आदेश के तहत गृह निर्माण मण्डल की राजनांदगांव स्थित तीन कॉलोनियों का नामकरण बख्शीनगर, मुक्तिबोधनगर तथा बलदेवनगर रखा। राजनांदगांव को छत्तीसगढ़ का सांस्कृतिक केंद्र कहते नहीं अघाते भद्रजनों को अब तक यह अहसास नहीं है कि इन कॉलोनियों को इनके अधिकृत नामों से ही पुकारा जाए। रायपुर में तो माधवराव सप्रे नगर और कबीरनगर नामधारी हैं लेकिन मेरे गृहनगर ने ही इन शलाका पुरुषों को विस्मृत कर नाम धरा लिया है।
मुक्तिबोध के निधन का समाचार मुझे बालाघाट में मिला था। उनके अंतिम संस्कार में तत्काल पहुंच जाने का समय, प्रबंध और उद्यम कुछ भी हासिल नहीं था। उसी रात मैंने कवि के अवसान पर अपने जीवन की एकमात्र कविता लिखी और उसे जबलपुर के एक दैनिक में प्रकाशन के लिए भेज भी दिया। वह कविता पता नहीं कहां है। मुक्तिबोध परिवार के लिए पत्र लिखना भी मेरे लिए न जाने क्यों संभव नहीं हो पाया। थक हारकर मैंने एक तार रमेश के नाम से भेजा। मुझे मालूम था कि बालाघाट में मेरे नाम का अन्य कोई उनका परिचित नहीं होगा। इसलिए मैंने पूरा नाम लिखने के बदले तार में अंगरेजी में प्रेशक का नाम केवल तिवारी ही लिख दिया। तार विभाग की लापरवाही के कारण अंगरेजी के पहले दो अक्षरों ‘टी.आई.’ के बदले ‘आई.टी.’ लिख दिया गया। तार अपने लक्ष्य तक पहुंचा लेकिन मेरी संवेदना नहीं पहुंची। एक अरसा बाद रमेश से मुलाकात हुई। उन्होंने सभी सूचनाओं, चिट्ठियों और प्रतिक्रियाओं आदि को सहेजकर रखा था। रमेश ने उलाहना दिया कि मेरे लिए मुक्तिबोध का जाना मानो कोई घटना ही नहीं है। मैंने सफाई दी कि मैंने उसी दिन तार भेजा था। रमेश की फाइल में वह तार पड़ा था। उसे मुझ ‘तिवारी’ के बदले किसी ‘इतवारी’ ने भेजा था। रमेश को यह समझ ही नहीं आया था कि बालाघाट में कौन इतवारी है जो मुक्तिबोध के नहीं रहने पर त्वरित गति से द्रवित हो गया था। अंगरेजी में छपे हुए सूत्रबद्ध संदेशों का संबंधित नम्बर डालकर मैंने केवल अपना उपनाम लिख दिया था। मुक्तिबोध भी तो गजानन माधव नामक अपनी व्यक्तिवाचक संज्ञा के परे होकर पारिवारिक उपनाम के सार्थक ब्रांड अंबेसडर हो गए थे। इस घटना के कारण लेकिन मुझे अपने उपनाम से कोफ्त हो चली थी। कवि के परिवार से आज तक आत्मीय रूप से जुड़े रहने का मुख्य कारण रमेश का मुझे मेरे प्रथम नाम से पुकारना है। मुक्तिबोध मुझे इस नाम से नहीं पुकारते थे। वे अमूमन तो नाम से संबोधन ही नहीं करते थे। कभी करते तो मेरे नाम के पीछे जी लगा देते। वह ध्वनि उनकी कविता की पंक्ति में गूंज रही है ‘मुझे पुकारती हुई पुकार खो गई कहीं।’
(लेखक छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट में वरिष्ठ अधिवक्ता हैं। यह उनके निजी विचार हैं।)
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