रहनुमाओं की अदाओं पे फिदा है दुनिया, इस बहकती हुई दुनिया को संभालो यारों। दुष्यंत कुमार की यह पंक्तियां आज बहुत कुछ कहती हैं, जिसको हम समय रहते समझ सकें, तो शायद देश को बचा सकें। देश की अर्थव्यवस्था हो या सामाजिक और राजनीतिक दशा सभी का संतुलन बिगड़ चुका है। हमारी सीमाएं नित नई समस्याओं से जूझ रही हैं। हर दिन हमारे जवान अपनी जान गंवा रहे हैं। विपक्षी दलों के नेता सिर्फ सरकार और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को कोसकर अपने कर्तव्य की इतिश्री कर देते हैं। दुख तब होता है, जब वह अपनी नाकामी पर चर्चा नहीं करते। उनकी यही नाकामी मोदी की सियासी ताकत में इजाफा कर रही है। यही कारण है कि करीब 65 फीसदी मतदाता जिसे नहीं पसंद करते, वही सत्ता सिंहासन संभाल रहे हैं। हमारे देश के तमाम विपक्षी दल किसी एक व्यक्ति और परिवार के इर्दगिर्द सिमटे हैं। सत्ता को उसे नियंत्रित करने के लिए केवल उस व्यक्ति विशेष को घेरना पर्याप्त है। वह घिरा नहीं, कि पार्टी घिर गई। पिछले छह सालों में आपने भी देखा ही है कि जैसे ही मुलायम, लालू और मायावती को घेरा गया, उनके नेताओं के स्वर बदल गये। नितिश कुमार और वाईएसआर सत्ता का चारण करने लगे। ममता बनर्जी, बीजू पटनायक और अरविंद केजरीवाल के तेवर खत्म हो गये। देश के एक दर्जन राज्यों में गैर भाजपा सरकारें हैं मगर केंद्रीय सत्ता उसे कुछ नहीं समझती। विपक्षी एकता की बातें हवा में उड़ गई हैं। फिलहाल सत्ता पर सवाल उठाने वाला कोई नहीं दिखता।
वित्त मंत्रालय और अर्थशास्त्रियों की रिपोर्ट बताती है कि देश की अर्थव्यवस्था गर्त में जा रही है। चालू वित्तीय वर्ष की पहली तिमाही की रिपोर्ट आई तो भले ही विश्व के तमाम देश आश्चर्य से भरे थे मगर हमें कोई हैरानी नहीं हुई, क्योंकि हम लगातार बदहाल होती अर्थव्यवस्था को लेकर चेताते चले आ रहे हैं। इन बदतर हालात को लेकर कांग्रेस के उपाध्यक्ष राहुल गांधी और कुछ अर्थविशेषज्ञ, पूर्व वित्त मंत्रियों के अलावा किसी के मुंह से आवाज भी नहीं निकली। राहुल गांधी ने ट्वीटर पर हमला बोलते हुए कहा कि यह मोदी सरकार निर्मित आपदा है कि देश की जीडीपी -23.9%, बेरोजगारी पिछले 45 साल में सबसे अधिक, 12 करोड़ रोजगार खत्म, केंद्र सरकार राज्यों के जीएसटी का हिस्सा नहीं दे रही, कोविड केस बढ़ने में हम विश्व में सबसे आगे पहुंच गये हैं। सीमाओं पर दूसरे देश कब्जा कर रहे हैं। राहुल के अलावा किसी भी अन्य दल के नेता ने इस पर कोई प्रतिक्रिया नहीं दी, जैसे उन्हें देश से कोई सरोकार ही न हो। कुछ संजीदा पत्रकारों और विद्वान एक्टीविस्ट्स को छोड़कर सभी खामोश हैं। सामूहिक विपक्ष और जनता की खामोशी ही मोदी सरकार की ताकत बन जाती है। जिससे साफ हो जाता है कि विपक्ष में यह क्षमता नहीं बची कि वह आंदोलन बनकर सरकार को यह आइना भी नहीं दिखा सकते कि आप सरकार चलाने योग्य नहीं हैं।
इस वक्त देश के जो हालात हैं, वह सरकार को घेरने के लिए विपक्ष के पास स्वर्णिम मौका है मगर वह इसमें भी सफल नहीं हो रहे। इस वक्त न विद्यार्थियों के लिए उचित शिक्षा और न स्वास्थ की व्यवस्था है। आनलाइन स्कूलिंग भी 70 फीसदी बच्चों को नहीं मिल पा रही। विश्वविद्यालयों की हालत बेहद खराब है। देश के 50 केंद्रीय विश्वविद्यालयों में भी आनलाइन पढ़ाने की उचित व्यवस्था न होने से परीक्षा के लिए तय पाठ्यक्रम भी पूरा नहीं हो सका है। देश में स्वास्थ सेवाएं ध्वस्त हो गई हैं। जहां सेवाएं मिल भी रही हैं, उनकी इतनी भारी कीमत अदा करते आमजन, उनका भुगतान करने की स्थति में कंगाल हो जाता है। सरकार के स्तर पर कोई मदद नहीं मिल पा रही है। देश का सामाजिक ढ़ांचा भी डगमगा गया है। इंटरनेशनल सोशल इंडेक्स में भारत 102 नंबर पर पहुंच गया है, जहां वह नेपाल, भूटान और श्रीलंका जैसे देशों से भी नीचे है। डॉ काफिल को बगैर किसी गुनाह के 200 दिनों तक सिर्फ एक कौम से घृणा के कारण जेल में डालने से विश्व में भारत की क्षवि खराब हुई है। इस पर भी यूपी के सियासी दल सरकार को नहीं घेर पा रहे। डॉ काफिल की रिहाई के लिए कांग्रेस की प्रियंका गांधी मुख्यमंत्री को चिट्ठी लिखती हैं मगर किसी के कान में जूं भी नहीं रेंगी।
देश भयंकर आर्थिक संकट में फंस चुका है। संगठित भ्रष्टाचार, व्यवस्था और सरकार का अंग बन गया है। संगठित फ्रॉड के कारण बैंकिंग सेक्टर जर्जर हाल में पहुंच गया है। इस अव्यवस्था के चलते हमारी जीडीपी -23.9 फीसदी पर पहुंच गई है। इसमें असंगठित और एमएसएमई क्षेत्र शामिल नहीं है। अगर उसे भी जोड़ते हैं तो यह -35 फीसदी से भी अधिक होती है। जो भारत के इतिहास में पहली बार हुआ है। मगर हमारी सरकार सिर्फ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के प्रचार पर हर मिनट, एक लाख रुपये खर्च कर रही है। अगर चुनाव प्रचार की रकम को भी इसमें जोड़ लें, तो यह दो लाख रुपये होता है। केंद्र में अफसरशाही, जजों, मंत्रियों और सांसदों के वेतन पर हर मिनट ढाई लाख रुपये खर्च हो रहा है। दूसरी तरफ केंद्र सरकार जीएसटी में राज्यों का हिस्सा भी देने को तैयार नहीं है। हमारे असंगठित क्षेत्र को खत्म करने की साजिश चल रही है। एमएसएमई सेक्टर में कार्यरत लोगों को कारपोरेट का बंधुआ बनाने की योजना पर काम हो रहा है। ये वह क्षेत्र हैं जो सबसे अधिक रोजगार देते हैं। मगर ऐतिहासिक रूप से बरबाद होती अर्थव्यवस्था को विपक्षी दल जनांदोलन में तब्दील नहीं कर पाते।
हम जब देश के इतिहास के पन्ने पलटते हैं तो पाते हैं कि आजाद भारत में पहली बार पाकिस्तान युद्ध के कारण 1957-58 में जब जीडीपी -1.2 पर पहुंची, तो पंडित जवाहर लाल नेहरू ने स्वयं कमान संभाली और उसे सुधारा। इसी तरह जब 1965 में पुन: पाकिस्तान से युद्ध के चलते जीडीपी -2.6 फीसदी पर गई, तो लाल बहादुर शास्त्री ने कृषि के बूते उसे खड़ा किया। जनता पार्टी सरकार की आस्थिरता के चलते 1979-80 में जब जीडीपी पुन: -5.2 पर गई, तो सत्ता में आने पर इंदिरा गांधी ने उसे गति दी। जनता दल सरकार की असफलताओं के कारण जब 1990-91 में जीडीपी फिर -1.4 पर पहुंची, तो सत्ता में आने पर कांग्रेस के वित्त मंत्री डा. मनमोहन सिंह ने अर्थव्यवस्था को गति दी। अटल बिहारी वाजपेई सरकार में 2000-01 में एक बार फिर से बढ़ती अर्थव्यवस्था की रफ्तार पटरी से उतर कर जीडीपी 3.9 पर आई, तो डा. मनमोहन सिंह सरकार ने उसे साढ़े सात फीसदी पर पहुंचाकर मजबूत किया। मोदी सरकार ने भी जब डॉ. मनमोहन सिंह की वित्तीय नीतियों को आगे बढ़ाया तो जीडीपी 8 फीसदी पर पहुंची मगर नोटबंदी, गलत जीएसटी, और कारपोरेट हितैषी नीतियों तथा समाज में घृणा के चलते यह 2019-20 में 3.3 फीसदी पर आ गई। 2020-21 की पहली तिमाही में कोविड और पूर्व की गलत नीतियों के चलते यह नकारात्मक होकर -23.9 फीसदी पर पहुंच गई है। इस त्रासदी पर भी विपक्ष सरकार को सही तरीके से नहीं घेर पा रहा है। वह जनता को भी इससे पैदा होने वाली दुर्दशा को भी नहीं समझा पा रहा।
अगर वक्त रहते हमारे विपक्षी दलों ने सत्ता को आइना नहीं दिखाया। गलत नीतियों के खिलाफ जनांदोलन खड़े नहीं किये, तो तय है कि विपक्षी दलों का औचित्य ही खत्म हो जाएगा। मौजूदा सरकार यूं ही मनमानी करती रहेगी। जनता तालियां और मंदिरों के घंटे बजाती भिखारी बन जाएगी। सरकार ने भी जनहित को प्राथमिकता नहीं दी और सुधार नहीं किया तो जनता, यह मानने को मजबूर होगी कि उसके चुने गये प्रतिनिधियों में सरकार चलाने की योग्यता ही नहीं है। हमारी संवैधानिक व्यवस्था में प्रधानमंत्री नहीं सांसद चुना जाता है।
जय हिंद!
(लेखक आईटीवी नेटवर्क के प्रधान संपादक हैं)