प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने गत दिवस राज्यसभा में राष्ट्रपति के अभिभाषण पर बोलते हुए अपने ‘अमूल्य’ विचार व्यक्त किये। आशा की जा रही थी कि लगभग ढाई महीने से दिल्ली के द्वार पर बैठे लाखों किसानों की समस्याओं व उनकी चिंताओं के निदान संबंधी कुछ घोषणाएँ प्रधान मंत्री के भाषण में सुनी जा सकती हैं। यह भी उम्मीद की जा रही थी कि देर से ही सही परन्तु आंदोलन के दौरान अपनी जान गँवाने वाले किसानों के परिवार के प्रति सहानुभूति के दो शब्द भी प्रधान मंत्री बोल सकते हैं। प्रधानमंत्री से अब भी अत्यधिक उम्मीदें पालने वाले कुछ लोग तो यहाँ तक सोच बैठे थे कि शायद तीन नए कृषि कानूनों को लेकर भारी दबाव झेल रही सरकार इन विवादित कृषि कानूनों को वापस लिए जाने की घोषणा भी कर सकती है।
परन्तु ठीक इसके विपरीत प्रधानमंत्री का भाषण न केवल आंदोलनरत किसानों की सभी उम्मीदों पर पानी फेर गया बल्कि वर्तमान किसान आंदोलन को अनिश्चितता के अंधेरे में भी धकेल गया। साथ साथ प्रधानमंत्री के संबोधन से यह भी स्पष्ट हो गया कि वे न ही इस आंदोलन को गंभीरता से ले रहे हैं न ही नए विवादित कृषि कानूनों को वापस लिए जाने का सरकार का फिलहाल कोई इरादा है,जैसा कि किसान उम्मीद लगाए बैठे हैं। अपने संबोधन में प्रधानमंत्री ने केवल किसानों को ही निराश नहीं किया बल्कि और भी इस तरह की कई बातें कीं जो कम से कम देश के सर्वोच्च पद पर बैठे व्यक्ति के मुंह से और वह भी देश की संसद अर्थात संविधान के मंदिर को माध्यम बनाकर बोलना कतई शोभा नहीं देता।
गौर तलब है कि जब मई 2014 में पहली बार नरेंद्र मोदी ने संसद की दहलीज पर कदम रखा था उस समय उन्होंने संसद की सीढ़ियों पर माथा टेक कर संसद की गरिमा व उसके मान सम्मान की रक्षा का प्रतीकात्मक सन्देश दिया था। उम्मीद की जा रही थी कि शायद वे अन्य पूर्व प्रधान मंत्रियों की तुलना में भारतीय संसद,संसदीय मयार्दाओं व भारतीय संविधान को कुछ ज्यादा की महत्व व तरजीह देंगे। ऐसी उम्मीद इसलिए थी क्योंकि किसी अन्य पूर्व प्रधानमंत्री ने संसद की सीढ़ियों पर ‘सजदा ‘ करने जैसा ‘प्रदर्शन’ पहले कभी नहीं किया था। परन्तु जिस प्रकार उन्होंने अपने भाषण में आंदोलनों व आंदोलनकतार्ओं का मजाक उड़ाया वह कम से कम प्रधानमंत्री स्तर के किसी भी नेता को शोभा नहीं देता। उन्होंने आन्दोलनों व आंदोलनकतार्ओं का मजाक ही नहीं उड़ाया बल्कि उनके लिए ‘आन्दोलनजीवी ‘ व ‘परजीवी’ जैसे शब्द कहकर उन्हें अपमानित भी किया। समय समय पर शब्दों से खिलवाड़ करने में महारत रखने वाले प्रधानमंत्री ने सरकारी स्तर पर प्रयोग किये जाने वाले एफ डी आई का नाम देकर एफ डी आईजैसे शब्द को नकारात्मक रूप में पेश किया। गौर तलब है कि यह वही संसद है जहाँ उस भारतीय संविधान की रक्षा होती है जिसमें विपक्ष व विरोध प्रदर्शनों को लोकतंत्र के लिए जरूरी बताया गया है।
इससे भी आश्चर्यजनक बात तो यह है कि 2014 तक देश के लगभग सभी आन्दोलनों व विरोध प्रदर्शनों में मुखर रहने वाली तथा अब भी गैर भाजपा शासित राज्यों में बात बात पर विरोध प्रदर्शन व सरकार का विरोध करने वाली भाजपा सरकार के प्रधानमंत्री आज आंदोलनकारियों को ‘आन्दोलनजीवी ‘ व ‘परजीवी’ जैसे व्यंग्यपूर्ण शब्दों से नवाज रहे हैं? आज यदि विपक्षी दल किसान आंदोलन में किसानों के साथ खड़े हैं तो इसमें किसानों को भड़काने या गुमराह करने की बात करना मुनासिब नहीं। विपक्ष वही तो कर रहा है जो भाजपाई 2014 से पहले किया करते थे ? उस समय की यू पी ए सरकार के किसी नेता ने विपक्षी आन्दोलनों या विरोध प्रदर्शनों को ‘आन्दोलनजीवी ‘ व ‘परजीवी’ जैसी उपमा से तो नहीं नवाजा था ? गैर भाजपाई दल के लोग या तथाकथित धर्मनिरपेक्ष राजनीति करने वाले भाजपाई विचारधारा के लोगों को फासिस्ट व सांप्रदायिक विचारधारा का पोषण व प्रसार करने वाला तो बताते थे परन्तु कभी उनके लिए (एफ डी आई)जैसे शब्द प्रयोग नहीं करते थे।
परन्तु प्रधानमंत्री व उनके कई सहयोगियों ने तथा उनके इशारों पर चलने वाले गोदी मीडिया ने तो गोया केंद्र सरकार को भारतीय इतिहास की सबसे बड़ी राष्ट्रवादी सरकार तथा सरकार के आलोचकों व विपक्ष को अथवा सरकार की नीतियों का विरोध करने वाले किसी भी वर्ग को राष्ट्र विरोधी प्रचारित करने का बीड़ा उठा रखा है? जून 2018 में प्रधानमंत्री ने संत कबीर के निर्वाणस्थल मगहर का दौरा किया था। उस समय उन्होंने संत कबीर से जुड़ी वाणियां भी साझा की थीं। परन्तु कबीर की ही सबसे प्रमुख वाणी पर शायद उनकी नजर नहीं पड़ी जिसमें वे कहते हैं कि -निंदक नियरे राखिए, आँगन कुटी छवाय, बिन पानी, साबुन बिना, निर्मल करे सुभाय।
अर्थात ‘जो हमारी निंदा करता है, उसे अपने अधिकाधिक पास ही रखना चाहिए। वह तो बिना साबुन और पानी के हमारी कमियाँ बता कर हमारे स्वभाव को साफ करता है। परन्तु विपक्षियों व आलोचकों के लिए तो प्रधानमंत्री के विचार ही ठीक इसके विपरीत हैं। प्रधानमंत्री का कांग्रेस मुक्त भारत का नारा देना,धन बल सत्ता लोभ व भय दिखा कर देश के अनेक राज्यों में दल बदल को बढ़ावा देना और इसी बाजीगरी के बल पर चुनाव हारने के बावजूद विपक्ष से सत्ता में आ जाना यह साबित करता है कि भाजपा का लोकताँत्रिक मूल्यों में कितना ‘विश्वास’ है। और यह भी कि वह विपक्ष को कैसा सम्मान देती है।
संत कबीर ने ही यह भी कहा है कि ऐसी वाणी बोलिये मन का आपा खोय। औरन को शीतल करे, आपहुं शीतल होय। अर्थात हमें ऐसी मधुर वाणी बोलनी चाहिए, जिससे दूसरों को शीतलता का अनुभव हो और साथ ही हमारा मन भी प्रसन्न हो उठे। मधुर वाणी दवा की तरह होती है,जबकि कड़वी बोली से लोग एक झ्र दूसरे के दुश्मन बन जाते हैं । इसलिए हमेशा मीठा और उचित ही बोलना चाहिए, जो दूसरों को तो प्रसन्न करता ही है और खुद को भी सुख की अनुभूति कराता है। हमें उन वचनों का त्याग करना चाहिए, जो द्वेषपूर्ण हों। हमारी वाणी से ही हमारी शिक्षा, दीक्षा, संस्कार,परंपरा व मयार्दा आदि का पता चलता है। इसलिए जैसा कि कबीर दास ने फरमाया है कि हमें हमेशा लोगों से प्रेम भरी मीठी वाणी में बात करनी चाहिए।
निर्मल रानी
(लेखिका स्वतंत्र पत्रकार हैं। यह इनके निजी विचार हैं।)