गुरु पूर्ण होता है और गुरु पूर्णिमा के दिन न केवल आप अपने शख्सी गुरु से कृपा पाते हैं बल्कि अगर हृदय सही स्थिति में हो, मन विचारों से खाली हो, तो गुरु ही क्या, परमगुरु की कृपा भी मिलती है। आज तक संसार में जितने भी बुद्धपुरूष हुए हैं, उन सभी महान आत्माओं का, उन सभी महान व्यक्तियों का कृपा-प्रसाद आज के इस गुरुपूर्णिमा के दिन प्राप्त किया जा सकता है, अगर मन खाली हो तो। मन को पूरे के पूरे ढंग से खाली हो जाने दें। और जो भी शब्द रूप से मिले, उसको पीते जाना, और जो भी इन शब्दों के साथ आज तुम्हें ऊर्जा प्राप्त होगी, उसे पीते जाना, क्योंकि जिस शिष्य ने गुरुपूर्णिमा को ठीक ढंग से मना लिया, वह पूरे वर्षभर के लिए ही तो क्या, सही मायने में पूरे जन्म के लिए गुरु के साथ आत्मिक संबंध स्थापित कर लेता है। गुरु से शारीरिक संबंध – भाव शरीर के पास रहना, शरीर को देखना, शरीर की सेवा करनी, यह भी एक संबंध होता है। पर जैसे शरीर अस्थाई है, वैसे ही यह संबंध भी अस्थाई होता है। गुरु के साथ आप मन का संबंध भी बना सकते हैं – प्रेम का, भावना का, श्रद्धा का। पर मन भी बदल जाते हैं, इसलिए मन के साथ जोड़ा हुआ संबंध बहुत दिन तक नहीं चलता। आप गुरु के साथ बुद्धि से संबंध भी जोड़ सकते हैं अर्थात जो भी गुरु कह रहा है उसे बुद्धि से समझते गए, जानते गए और समझते- समझते तुम्हारी बुद्धि विकसित हो गई। तुम बड़े संस्कारी हो गए, बड़े ज्ञानी हो गए। पर बुद्धि से अगर गुरु का संबंध जुड़ा तो वह भी कोई बहुत बढ़िया बात नहीं है, बुद्धि का भी नास हो जाता है। सद्गुरु से सच्चा संबंध वही है, जिसमें आप उससे जुड़ते हैं वहाँ, जहाँ वह जुड़ा है, पूर्णता में, पूर्ण शून्यता में, उस अस्तित्व में और उस अस्तित्व से एकीकार हो जाने के बाद शिष्य और गुरु दो न होकर एक हो जाते हैं। इस एकता का, इस एकत्व का अनुभव करने के लिए यात्रा है, साधना है, समझ है, विवेक है, समर्पण है, श्रद्धा है, सब कुछ है।
गुरोध्यानेर्नैव नित्यं देही ब्रह्ममयो भवेत
स्थितश्रच यत्रकूत्रापि मुक्तो२सौ नात्र संशय:
गुरूगीता का यह श्लोक कहता है, गुरु का जो ध्यान करता है वह स्वयं ब्रह्मरूप हो जाता है। गुरुध्यान किया, ब्रह्म हो गए। क्या ब्रह्म और गुरु एक की हैं शास्त्र कहता है कि हाँ, ये दोनों एक ही हैं। क्योंकि गुरु हुआ ही वही है जिसने ब्रह्मानुभूति की है। और ब्रह्मानुभूति किसको कहते हैं ब्रह्मानुभूति करने वाला शख्स ब्रह्म से जुदा नहीं रह जाता है। ब्रह्मविद ब्रह्मेव भवति, कहा कि जो ब्रह्म को जानता है, वह ब्रह्मरूप हो जाता है। परमात्मा को आप किसी वस्तु की तरह नहीं जान सकते कि वस्तु देखी, वस्तु अलग रह गई, आप अलग रह गए। परमात्मा का मिलना तो ऐसे ही है जिसको आप यूँ कह सकते हैं कि नमक की पुतली सागर में जाए, तो सागर का रूप हो जाती है। नमक की पुतली जो सागर में जाती है, वह लौटकर वापिस बाहर नहीं आ सकती, एक हो गई। इसी तरह से परमात्मानुभूति भी जब होती है तो इसी प्रकार से तुम्हे और परमात्मा को एक कर देती है। कर देती है कहने के लिए आ रहा है। सच्चाई तो यह है की वह एक है ही। एक है ही, एक था ही। लेकिन एक की समझ नहीं थी, एक का पता नहीं था। तो जिसको उस एकता का पता चल गया, उसी को कहा गुरु। याद रहे, जिसको उस ब्रह्मता का अनुभव नहीं हुआ, उसके चाहे लाखों-करोड़ों चेले- चपाटे हो जाएँ, इसके बावजूद वह गुरु नहीं है। लाखों-करोड़ों चेलों की भीड़ कह दे कि हमारे गुरुजी जिंदाबाद, हमारे गुरु की जय, सत्गुरुमहाराज की जय, कह देने से वह गुरु नहीं हो जाएगा। और जो गुरु है, जिसने ब्रह्मता का बोध किया है, ऐसी ब्रह्मता का बोध कर चुके व्यक्ति के पीछे चाहे एक आदमी न खड़ा हो, तब भी वह गुरु है। एक आदमी भी उसकी जाकर आज गुरुपूर्णिमा के दिन पूजा न करे, तब भी वह गुरु है। और चाहे उसके पास हजारों की भीड़ खड़ी हो जाए, तब भी वह गुरु है। इसी तरह से कोई गुरु किसी शिष्य के कारण गुरु नहीं होता। पास में एक भी शिष्य न हो , न कोई चेला हो, पर है वह ब्रह्मज्ञानी, तो क्या वह गुरु नहीं है वह गुरु है। भतरिहरी जी वैराग्य शतक में कहते हैं, बहुत सुंदर श्लोक आया कि, मुझ भत्रिहरी का एक ही शिष्य है, वह भी बड़ा काबिल , वह है उसका अपना मन। उनसे पूछो कि आप किसके गुरु हैं, वह कहते कि हम अपने ही गुरु हैं। पूछा कि आपका शिष्य कौन है तो कहते कि मेरा मन ही मेरा शिष्य है। सच तो यह है जिसका मन ही उसका शिष्य नहीं हो पाया, वह किसी और को शिष्य क्या बनाएगा जिसका मन ही उसके नियंत्रण में नहीं है, या यह कहिए कि जिसका मन अभी सोया हुआ है, जिसका अपना मन जागा नहीं, वह किसी और को क्या जगाएगा। भतरिहरी ने बाहर किसी व्यक्ति को चेला नहीं बनाया, किसी को शिष्य नहीं बनाया। क्योंकि उन्होने कहा कि मेरा अपना मन ही काबिल शिष्य हो जाए, तो बस उतना ही काफी है, मुझे और किसी को शिष्य नहीं बनाना। भतरिहरी भी गुरु हैं, पर किसके वे स्वयं के गुरु हैं। पर वस्तुत: सच्चाई यह है कि जिसने अपने भीतर गुरु माने ज्ञानस्वरूप ब्रह्म को पाया, वही तो गुरु हुआ। जिसने अपने भीतर ज्ञानस्वरूप परमात्मा को न जाना, वह गुरु नहीं है और ऐसे बोधवान का ध्यान करने पर, गुरूगीता कहती है, ऐसे बोधवान गुरु का ध्यान करने वाला ब्रह्मरूप हो जाता है।
गुरोध्यानेर्नैव नित्यं देही ब्रह्ममयो भवेत
स्थितश्रच यत्रकूत्रापि मुक्तो२सौ नात्र संशय:
कहा कि बिल्कुल भी संशय न करना, गुरु का ध्यान करने वाला, गुरु का स्मरण करने वाला भी ब्रह्मरूप हो जाएगा। यह नहीं कह रहे की ब्रह्म प्राप्त करेगा, बल्कि ब्रह्मरूप ही हो जाएगा।
गुरुगोबिंद सिंह भी यही कह रहे हैं – आप ही मैं गुरु हूँ, मैं आप ही चेला हूँ। गुरुनानक की बाणी में कहा कि –
किसनूं कहिए नानका
सब किछ आपे आप
किससे कहूँ, कौन कहे, कहने वाला कौन है वही गुरु है, वही शिष्य है, वही हर हृदय में है, वही सब मन में, वही सब बुद्धि में आप ही आप। कौन गुरु कहे कौन शिष्य कहे तो गुरु की स्थिति है यहाँ, जो आप ब्रह्म है, और अपनी उस ब्रह्मता में किसी को अपने से कम नहीं देखता है। जो अपने आपको दूसरों से बड़ा, और जो अपने को दूसरों से श्रेष्ठ समझता है, और जो अपने आपको दूसरों से बड़ा ज्ञानी जानता है, वह गुरु हो ही नहीं सकता। ख़्याल करना, इन सूत्रों को और अच्छे से समझना। हालाँकि तुम सब मेरे शिष्य हो, इसके बावजूद कभी-कभी तुम्हारी बुद्धि भटक जाती है। कभी-कभी तुम्हारी बुद्धि समझ नहीं पाती, और कभी-कभी दूसरे लोगों को देखकर भी मन में भाव उठता है कि यह गुरु है कि नहीं है। हालाँकि जो शिष्य हो गया, उसको तो बस छोड़ देना चाहिए, टिक जाना चाहिए। बाकी कोई गुरु है कि नहीं है, अब इस माथा-पच्ची में पड़ना ही नहीं चाहिए। हमें क्या लेना, कोई गुरु होगा कि नहीं होगा तो ………।
गुरूगीता का दूसरा श्लोक कहता है –
यस्य ज्ञात मत तस्य, मत यस्य न वेदस:
अनन्य भाव भावाय तस्मै श्री गुरुवे नम:
कहा, जिसको सच्चे ज्ञान की प्राप्ति हो गई है, जो सदगुरु पदवी पर स्थित हो गया है, वह कोई व्यभिचार नहीं करेगा। वह कोई आडंबर नहीं करेगा। वह कोई पाखण्ड नहीं करेगा। बस अपनी मस्ती में चलता रहेगा। और यह भी शायद कोशिश न करे कि कोई जाने उसको, कि वह कुछ पा चुका है। शायद उसकी कोशिश यह भी हो कि कोई न समझे, कोई न जाने, किसी से कोई मतलब न रखे। और जो जरा सा भी अपना आपको नहीं दिखा रहा, जो अपने संकल्प से अपने आपको समाज से, लोगों से दूर करके बैठा है, याद रखिए उसको कोई नहीं पकड़ सकता। ऐसे सद्गुरु को न तो कोई पहचान सकेगा और न ही उससे कुछ लाभ ले पाएगा। अगर वह यह सोच ले कि जो मैने पाया है, उस मस्ती में मस्त रहूँगा, दूसरों से कोई संपर्क नहीं रखूँगा, जो इस भाव से भी ऊपर उठ गया है, वह कुछ ऐसा आचरण भी कर सकता है, कि कोई उसको पहचाने ही नहीं। गुरु कोई गद्दी का नाम नहीं होता, किसी पदवी का नाम नहीं होता। गुरु वह है, जो तुम्हारे जीवन में प्यार की वर्षा, आनंद की वर्षा करता है, शांति की वर्षा करता है। और ऐसी आनंद और प्रेम की वर्षा से जब भीग जाता है आदमी, तो उसके हृदय में भिगाने वाले गुरुरूपी बादल के प्रति प्रेम की हिलोरें उठती है, भाव उठाते। ऐसा सच्चा सद्गुरु पाना बड़ा कठिन है, जो तुमसे तुम्हारे धन के कारण नाता न रखे, जो तुमसे तुम्हारे , मान, प्रतिष्ठा, यश के कारण नाता न रखे, जो तुम्हारे कल्याण के लिए, जो तुम्हारे उद्धार के लिए, तुम्हारे सिर पर कृपा भरा हाथ रखे। गुरूगीता का तीसरा श्लोक लेती हूँ।
नित्यं ब्रह्म निराकार निर्गुण बोधयेत परम,
भासयन ब्रह्मभाव च, दीपो दीपांतरं यथा
कहा कि परमात्मा की सत्ता नित्य है, ब्रह्म नित्य है, निराकार है। नित्य किसको कहते है जो सदा रहे, ऐसे को ही परमात्मा कहा। अब परमात्मा का आकार कैसा है औरत है आदमी है जानवर है बच्चा है वृक्ष है पहाड़ है क्या आकार है, उसका कहा कि वह निराकार है। उस नित्य, परमब्रह्म सर्वरूप में विराजमान ब्रह्म का अनुभव कैसे होता है कहा कि गुरु से होता है। गुरु कराएगा, यह तो समझ लग गई। पर फिर भी कैसे होता है इसका सिस्टम क्या है इसकी विधि क्या है कहा – दीपो दीपांतरं यथा एक जलता हुआ दीपक और उस जलते हुए दीपक के पास आप एक अनजले हुए दीपक को रख दो, उसे इतना पास रख दो कि दिए से दिया मिल रहा है और बाती से अनजली बाती मिलने लग जाए तो वह जली हुई जोत ऊछलकर उस अनजली बाती पर पहुँच जाए।
जैसे जली हुई ज्योति उस अनजले पर छलाँग मारकर पहुँच जाती है, कहा कि ठीक ऐसे की गुरु का ब्रह्म- अनुभव शिष्य के पास पहुँच जाता है। इसीलिए कहा कि गुरु के सान्निध्य में रहे। जैसे जला हुआ दीपक यहाँ है और अनजला हुआ दीपक वहाँ दो हजार मील दूर है तो क्या वह जल जाएगा अच्छा और नजदीक कर देती हूँ, एक किलोमीटर, तो क्या जल जाएगा कितना नजदीक होना चाहिए एक हाथ दूरी पर जलेगा नहीं जलेगा। अनजला दीपक, जले हुए दीपक के बिल्कुल समीप हो, तो जल जाता है। इसी को कहा कि गुरु के सान्निध्य में रहे।
गुरु के सान्निध्य में रहने पर वह बोध ट्रांसफर हो जाता है। ख़्याल करना, शब्दों से नहीं होगा, जो सोचते है कि गुरु के बताए, सुनाए शब्दों से हमें परमात्मा मिल जाएगा, वे बहुत बड़ी गलती में हैं, इस रहस्य को समझो। परमात्मानुभूति के लिए गुरु के सान्निध्य में रहे। यह सान्निध्य सिर्फ़ शरीर का ही नहीं, यह सान्निध्य मन का, हृदय का भी होना चाहिए। आप गुरु के सान्निध्य में नहीं हो, यह आपका दोष हो सकता है, पर यह न कहो कि यहाँ कुछ नहीं, क्योंकि यहाँ जो है, वह देखने को आँख चाहिए। और अगर तेरे पास आँख नहीं है अंधे! तो चूक तेरी है।
गुरु के सान्निध्य में रहे, शरीर से मन से, भाव से, हृदय से। फिर कह दूँ कि किसी गुरु- घंटाल के चक्कर में पड़ गए तो महाराज! यह बड़ी खतरनाक बात हो जाएगी। हर अच्छा गुरु एक अच्छे शिष्य की तलाश करता है। कौन सा शिष्य जिसको वह अपना बोध ट्रांसफर कर सके। बात गहरी है, होश से समझना इसको।
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