शुक्रवार सुबह एक दर्दनाक हादसे की सूचना कानपुर से मिली कि कई आपराधिक वारदातों में वांछित विकास दुबे ने एक डीएसपी सहित आठ पुलिस कर्मियों को गोलियों से भून दिया। उसकी गोलियों से सात पुलिसकर्मी घायल हो गये। 2001 में तत्कालीन राज्यमंत्री संतोष शुक्ल को भी उसने शिवली थाने के भीतर गोलियों से भून दिया था। उस वक्त दुबे पर तत्कालीन मंत्री प्रेमलता कटियार का वरदहस्त था। तब भी वह भाजपा नेता की हत्या के बाद फरार हो गया था। कई महीनों बाद जब अदालत में पेश हुआ तो, पुलिस उसके खिलाफ न पुख्ता गवाहियां और न सबूत पेश कर सकी थी, जिससे वह बरी हो गया। इस घटना ने उस उभरते आपराधिक मानसिकता के युवक को इलाके का माफिया बना दिया। उसका सियासी संरक्षण भाजपा, बसपा और सपा का साथ मिलने से मजबूत हो गया। नतीजतन उस बेखौफ अपराधी ने अब यह भयावह घटना अंजाम दी है। एक हाथी के मरने पर शोर मचाने वाला मीडिया इस मसले पर खानापूरी करके सो गया। यह घटना उसी क्षेत्र से आई, जहां 80 के दशक में कभी फूलनदेवी ने तीन दर्जन राजपूत बिरादरी के दबंगों को गोलियों से भून दिया था। फूलनदेवी को भी सियासी संरक्षण मिला और वह समाजवादी पार्टी की सांसद बनीं थीं। वैसे यूपी का इतिहास है कि वहां दबंग और अपराधी किस्म के लोगों को जनता अपना प्रतिनिधि चुनने में गर्व महसूस करती है। यही कारण है कि यहां राजनीति में अपराधीकरण और चुनाव सुधार कभी मुद्दा नहीं होता। पुलिसकर्मी ऐसे लोगों के पास नियुक्ति और तबादलों के लिए शरणागत होते हैं।
इस वक्त देश सीमाओं से लेकर अंदर तक तमाम आर्थिक, सामाजिक संकटों से जूझ रहा है। मौजूदा हालात में यह जरूरत है कि तमाम तरह के बड़े उपक्रमों को सार्वजनिक क्षेत्रों में सशक्त किया जाये। उसमें हमारे योग्य युवाओं को काम मिले और बेहतरीन उत्पाद के जरिए हम अपने देश के लोगों की जरूरतें प्रतिस्पर्धी कम कीमतों पर उपलब्ध करायें। ऐसे वक्त में भी हमारी सरकार छोटे उपक्रमों से लेकर बड़े से बड़े उपक्रम को निजी हाथों में सौंपने में लगी है। यह सभी जानते हैं कि कारपोरेट कंपनियां न देश के लिए काम करती हैं और न जनता के लिए। वह तो अधिक से अधिक मुनाफा कमाने के लिए कुछ भी करने पर यकीन रखती हैं। देश को जब अंग्रेजी हुकूमत से आजादी मिली तब हम उत्पादन के क्षेत्र में कहीं नहीं थे। तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू ने तीन उद्देश्य लेकर काम शुरू किया। देश को आर्थिक-समाजिक और वैज्ञानिक रूप से सशक्त बनाना है। देश में कुशल और विद्वान विषय विशेषज्ञ युवाओं की फौज तैयार करनी है। सभी को समर्थ बनाने के लिए देश को हर क्षेत्र में समयानुसार उत्पादन के क्षेत्र में आत्मनिर्भर बनाना है। इसके बेहतरीन परिणाम सामने आये, हमने विश्व को कुशल इंजीनियर, डॉक्टर, विज्ञानी और शिक्षाविद् दिये, जिन्होंने हमारे देश की तस्वीर बदलने में मदद की। उत्पादन और शोध बढ़ने से रोजगार पनपे। सामाजिक स्तर ऊपर उठा, अनाज का भंडारण शुरू हो गया। आज हालात बिल्कुल उलट हैं। हमने यह सभी काम धीरे-धीरे निजी कंपनियों को सौंप दिये और जो बचे हैं, उन्हें सौंप रहे हैं। नतीजा, शोषण और भ्रष्टाचार जीवन का हिस्सा बन गये हैं। असुरक्षा जीवन को लाचार बना रही है।
देश आर्थिक, सामाजिक संकट के साथ ही सीमा और कूटनीति के क्षेत्र में भी युद्ध के हालात में है। युवाओं का भविष्य अंधकारमय हो रहा है। देशवासी स्वास्थ को लेकर भय में जी रहे हैं। निजी अस्पताल लूट का अड्डा बन गये हैं। आर्थिक शक्ति मगरमच्छ कारपोरेट कंपनियों के हाथ में आ गई है। देश की सुरक्षा बेहाल है, वह चाहे आंतरिक हो या बाहरी। दूसरे विश्व युद्ध के बाद संयुक्त राष्ट्र संघ बना, जिससे युद्ध की विभीषिका से बचा जाये और मानवता को विकास की दिशा में शांति-पूर्ण खुशहारी के साथ ले चला जाये मगर हम इस बुरे दौर में हथियार बेचने वाले देशों के चुंगुल में फंस गये हैं। हथियार बेचने वाले देश चीन-पाक पर बयान देकर भारत को हथियार बेच रहे हैं और हम खरीद रहे हैं। इस खेल पर जब हम चर्चा करते हैं, तो देश की आजादी के दौर में तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू की आलोचनाओं में उलझ जाते हैं। हमारे देश के अर्धज्ञानी तत्कालीन गृह मंत्री सरदार वल्लभ भाई पटेल को हीरो बनाकर पंडित नेहरू को नीचा दिखाते हैं। उनकी तीन हजार करोड़ रुपये की सबसे बड़ी मूर्ति बनाकर यह बताया जाता है कि वह प्रधानमंत्री पद के दावेदार थे मगर उन्हें नहीं बनाया गया, जबकि सत्य यह है कि 1946 में कांग्रेस अध्यक्ष पद के लिए वह भी दावेदार थे मगर नेहरू चुने गये। दोनों में कई बार किसी बात पर वैचारिक मतभेद हुआ मगर कभी किसी ने एक दूसरे का विरोध नहीं किया। यह नेहरू का बड़प्पन था कि उन्होंने अपने गृहमंत्री को इतनी ताकत दी, अन्यथा शेष लोग अपने अनुचर की तरह उपयोग करते हैं। आज उन बातों से सीखने का वक्त है, न कि उनकी बातों को तोड़ मरोड़कर सियासी खेल करने का।
इस वक्त देश जिस संकट से जूझ रहा है। ऐसे वक्त में मदारी का खेल तालियां बजवा सकता है मगर देश को सशक्त नहीं बना सकता। चीन, अमेरिका, रूस सहित तमाम देश हमें मदारी की तरह खेल दिखा रहे हैं। हम उनके खेल में फंसकर अपना लुटाकर भी ताली बजा रहे हैं। जरूरत अपनी क्षमताओं और बाजार को ताकत बनाकर उत्पादन बढ़ाने की है। हम इतने उत्पादकता वाले देश बनें कि हमें किसी से कुछ खरीदने की जरूरत ही न पड़े। इसके लिए अपने बुद्धिजीवियों-विषय विशेषज्ञों की मदद लें। सीमाओं के विवाद अंतरराष्ट्रीय मंच पर स्पष्ट रूप से सुलझायें। किसी एक देश को बिचौलिया बनाने के बजाय समस्या को खुद हल करें। आवश्यक है कि हम आंतरिक व्यवस्था और सुरक्षा पर ध्यान दें, जिससे हमारी उत्पादकता बढ़ाने के लिए अनुकूल माहौल मिले। अगर हम ऐसा कर सके और सच को देख-दिखा सके तो देश का भला हो सकता है।
जयहिंद!
(लेखक आईटीवी नेटवर्क के प्रधान संपादक हैं)
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