अजीब प्रश्न है न कि मीडिया भी परेशान है। वह खुद नहीं समझ पा रहा है कि क्या करे? क्या लिखे? क्या दिखाए? क्या बोले? किस पर बहस करे? किस मुद्दे को उठाए? दलित के आगे दलित लिखे या ऐसे ही जाने दे? रेप पीड़िता के प्रत्यक्षदर्शी की बातों को देश के सामने लाए या फिर टीआरपी बटोरने के लिए पैसे खर्च कर पीड़िता या प्रत्यक्षदर्शी का इंटरव्यू करे? तमाम ऐसे प्रश्न हैं जिनसे मीडिया आजकल जूझ रहा है। मीडिया के सामने यह प्रश्न पहले मौजूं नहीं था। पर हाल के वर्षों में खासकर 2014 से लेकर 2019 के लोकसभा चुनाव के बाद आम लोगों में मीडिया को देखने, सुनने, समझने, पढ़ने की क्षमता में जबर्दस्त परिवर्तन आया है। यह परिवर्तन कोई साधारण परिवर्तन नहीं है। इस पर गहराई से मंथन की जरूरत है। अजीत अंजुम के खुलासे पर चर्चा इसलिए भी जरूरी है कि क्योंकि जिन चैनल्स ने निर्भय के उस पुरुष मित्र को पैसे देकर उसका इंटरव्यू किया वह खुद को कहां खड़ा पाते हैं। अगर सही में तमाम चैनल्स ने मोटे पैसे देकर इंटरव्यू किया तो उन्हें सच्चाई स्वीकार करते हुए इस बात को सामने लाने की जरूरत है। और अगर सच में उस चैनल के पास वह स्टिंग मौजूद है तो उसे भी आज दुनिया के सामने लाना चाहिए। अंजुम ने अपनी बातों बड़ा खुलासा तो कर दिया है, लेकिन साथ ही उन्होंने मीडिया की विश्वसनियता पर भी बड़ा प्रश्न चिह्न खड़ा कर दिया है।
लोकतांत्रिक व्यवस्था में मीडिया को चौथा महत्वपूर्ण स्तंभ कोई ऐसे नहीं मान लिया गया है। इसके पीछे लंबा और संघर्षपूर्ण समय गुजारा गया है। जब इलेक्ट्रॉनिक मीडिया का युग नहीं आया था तब जो समाचारपत्रों में पढ़ लिया उसे ही अंतिम सत्य मान लिया जाता था। लोगों के विश्वास और पत्रकारिता की विश्वसनियता ने ही इसे चौथे स्तंभ के रूप में ख्याति दिलाई थी। पर अब यह बातें कथा कहानियों में अच्छी लग रही है। आज मीडिया को सीधी चुनौती मिल रही है। चुनौती दे रहा है आधुनिक तंत्र, जो सोशल मीडिया के नाम से हमारे बीच मौजूद है। सोशल मीडिया ने मीडिया को एक ऐसे दोराहे पर ला खड़ा किया है जहां विश्वास, विश्वसनियता के बाद अब विवशता ने अपना स्थान बना लिया है।
पूरा भारत मुख्यत: दो विचारधाराओं में बंट गया है। एक विचारधारा वह है जो मोदी के सपोर्ट में है। दूसरी विचारधारा वाले मोदी के विरोधी हैं। एक ब्रिटीश अखबार ने हाल में लिखा कि यह मोदी युग है, जिसमें दो विचारधाराओं के बीच लड़ाई है। यह काफी हद तक सच भी है। पर इन सबसे ऊपर मीडिया पर खतरे बढ़ गए हैं। अगर आप मोदी सरकार के काम काज या प्रधानमंत्री मोदी के बेहतर विजन पर कुछ लिखते हैं, प्रोग्राम बनाते हैं या बहस करते हैं तो आपके ऊपर बीजेपी के प्रवक्ता होने का ठप्पा लग जाता है। आपको भक्त की संज्ञा दे दी जाती है। अगर आपने मोदी सरकार के कामकाज पर सवालिया निशान लगा दिया तो आपके अखबार या चैनल को कांग्रेस पोषित बता दिया जाएगा। अगर आप पत्रकारिता के जाने पहचाने चेहरे हैं तो सोशल मीडिया पर आपकी वो आरती उतारी जाएगी कि आप खुद को पहचान नहीं पाएंगे। भूल से भी अगर आपने केजरीवाल के ट्वीट को री-ट्वीट कर दिया तो फिर तो पूछिए मत।
यह मीडिया और मीडियाकर्मियों दोनों के लिए संक्रमण का काल है। यह संक्रमण कैसे और कब प्रवेश कर गया है पता नहीं। पर धीरे-धीरे यह संक्रमण मीडिया की विश्वसनियता को निश्चित तौर पर कम कर रहा है। सोशल मीडिया की ताकत ने बड़े ही शातिराना अंदाज में इस विश्वसनियता के ऊपर प्रश्नचिह्न लगा दिया है। आपकी हर एक खबर, हर एक प्रोग्राम, हर एक बहस, हर एक आर्टिकल पर सोशल मीडिया नजरें गड़ा कर बैठा है। आपने कुछ गलत किया नहीं कि सोशल मीडिया आपकी क्लास लेनी शुरू कर देगा। यह सब बड़े ही प्लान तरीके से अंजाम दिया जा रहा है। सभी पार्टियों, संगठनों ने अपने यहां साइबर सेना बना रखी है। इस साइबर सेना के सिपाही बेहद पढ़े लिखे, टेक्नो फ्रेंडी युवा हैं। इस साइबर सेना का बस एक ही काम है मीडिया की निगरानी। कब किस मुद्दे को और किस बात को ट्रेंड करवाना है यह इन्हें बखूबी आता है। इन्हें सिर्फ इंतजार रहता है अपने सेनापतियों के दिशा-निदेर्शों का। यह साइबर सेना ट्रेंड सेट करती है। इसके बाद आम लोग इसे सत्य मानकर सोशल मीडिया की उलझनों भरी दुनिया में कूद पड़ते हैं।
भारतीय संविधान के बाद साइबर एक्ट ने भी सोशल मीडिया पर मौजूद लोगों को फ्रीडम आॅफ एक्सप्रेशन के नाम से ऐसी स्वतंत्रता दे दी है जिसने सबकुछ उल्टा पुल्टा कर दिया है। यह अच्छी बात है कि सोशल मीडिया ने आम लोगों को काफी ताकतवर बना दिया है। पर सबसे अधिक खतरा मीडिया पर है। अपनी जर्नलिस्टिक एथिक्स के कारण जिन बातों को मीडिया प्रकाशित नहीं कर सकती या दिखा नहीं सकती है वह सोशल मीडिया पर इस कदर गदर मचाती है कि मीडिया की विश्वनियता धरी की धरी रह जाती है। आज सोशल मीडिया पर हर एक व्यक्ति पत्रकार बन चुका है। फोटोजर्नलिस्ट बन चुका है। ऐसे में मंथन जरूरी हो जाता है कि मीडिया की साख को कैसे सुरक्षित रखा जाए।
मीडिया के लिए सबसे अहम बात यह है कि इसमें आलोचना की स्वतंत्रता है। किसी दूसरे प्रोफेशन में आप इसकी कल्पना नहीं कर सकते हैं। सिर्फ मीडिया एक ऐसा प्रोफेशन बचा है जहां मीडियाकर्मी खुद एक दूसरे की कमियों पर बात करते हैं। खुलकर चर्चा और लड़ाई करते हैं। चाहे चैनलों के राष्टÑभक्त होने की बात हो या फिर मीडियाकर्मियों के मोदी भक्त होने की बात हो, हर तरफ बहस की स्वतंत्रता है। हालांकि आम पाठक और दर्शकों को इससे कोई मतलब नहीं होता है, फिर भी यह आलोचना खुले आम होती है। टीवी के परदे पर होती है सोशल मीडिया के प्लेटफॉर्म पर होती है। सोशल मीडिया की दिन ब दिन मजबूत होती ताकत के बीच यह यक्ष प्रश्न मीडिया के सामने आ चुका है कि वह अपनी ताकत, अपनी विश्वसनियता, अपने तेवर को कैसे संरक्षित करे। संक्रमण के इस दौर में वह कौन सी युक्ति अपनाई जाए कि दर्शकों और पाठकों का विश्वास भी कायम रहे और सरकार की ‘बुरी नजरों’ से बचा जा सके। मंथन करने के बाद अगर आपके पास भी कोई युक्ति हो तो मीडिया से जरूर साझा करे। नहीं तो सोशल मीडिया तो है ही।
(लेखक आज समाज के संपादक हैं।)