कांग्रेस पार्टी में एकबार फिर से राहुल गांधी का कद बढ़ता दिख रहा है। हालांकि कुछ लोग पूछेंगे कि कांग्रेस में राहुल से बड़ा नेता है कौन? जवाब ये है, सोनिया गांधी और अन्य बुजुर्ग नेता। यद्यपि सभी लोग राहुल गांधी को पसंद करते हैं, लेकिन इधर कुछ महीनों से पार्टी और संगठन के भीतर उनकी स्वीकार्यता पहले से ज्यादा बढ़ती दिख रही है। इस तरह की बातें सूत्रों के हवाले से सामने आ रही है। कहा जा रहा है कि राहुल गांधी का सेवाभाव सभी कांग्रेस जनों पर भारी पड़ रहा है। आपको बता दें कि कांग्रेस के वरिष्ठ नेता व वायनाड से सांसद राहुल गांधी की उम्र पचास वर्ष हो गई है। कांग्रेस पार्टी के सांगठनिक पदों पर रहने का उन्हें 12 बरस का तजु़र्बा है। सियासत में आने के बाद उन्होंने सवा तीन साल तक संगठन में कोई पद नहीं संभाला था और अब कांग्रेस-अध्यक्ष की ज़िम्मेदारी छोड़े उन्हें लगभग एक साल पूरा होने वाला है। बीते वर्ष जुलाई में राहुल ने जब अपना इस्तीफ़ा ट्वीट कर ख़ुद को फालतू कयासों से अंततः मुक्त करने का एलान किया था तो सनसनी के साथ सन्नाटा भी पसर गया था। कुछ ने उनकी ज़िद को बाल-हठ बताया और कुछ ने राज-हठ। सब का ख़्याल था कि चंद रोज़ की बात है, वे मान जाएंगे और लौट आएंगे। मगर मनाने की तमाम कोशिशें नाकाम हो गईं। राहुल नहीं माने। पर उनकी ज़िद न बाल-हठ साबित हुई, न राज-हठ। वह हठ-योग साबित हुई।
जाते-जाते अपने इस्तीफ़े में राहुल ने 2019 के आम चुनावों में कांग्रेस की हार को अध्यक्ष के नाते अपनी ज़िम्मेदारी बताया और कहा कि भावी संवृद्धि के लिए जवाबदेही बहुत ज़रूरी है। फिर उन्होंने चंद और बेहद अहम बातें कहीं। एक, पुनर्निमाण के लिए कांग्रेस को कठोर फ़ैसले लेने होंगे और 2019 की हार के लिए बहुत-से लोगों को जवाबदेह ठहराना होगा। दो, मेरा संघर्ष राजनीतिक सत्ता के लिए सामान्य लड़ाई कभी भी नहीं था। मैं अपने मुल्क़ के बुनियादी ताने-बाने को बचाने का अनवरत संग्राम लड़ रहा हूं, जो एक ज़माने से चल रहा है। हमने पूरी शिद्दत और गरिमा के साथ चुनाव लड़ा। मैं निजी तौर पर प्रधानमंत्री, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और उन संस्थानों के खि़लाफ़ लड़ा, जिन पर कब्ज़ा कर लिया गया है। कई बार इस युद्ध में मैं ने अपने को अकेला पाया, मगर मुझे इस बात का भी गर्व है। मैं ने कार्यकर्ताओं और पार्टी के सहयोगियों के जज़्बे और प्रतिबद्धता से बहुत कुछ सीखा। तीन, इस चुनाव में सत्ता दोबारा जिन तत्वों के चंगुल में गई है, उससे आने वाले दिनों में किसानों, बेरोज़गार नौजवानों, महिलाओं, आदिवासियों, दलितों और अल्पसंख्यकों की ज़िंदगी दूभर होने वाली है। अर्थव्यवस्था चौपट होने वाली है। आगे के चुनाव अब सिर्फ़ औपचारिकता भर रह जाएंगे। चार, भारत के सभी लोगों को मिल कर जनतांत्रिक और संवैधानिक संस्थाओं को पुनर्जीवित करना होगा। मुल्क़ की आवाज़ बनना उसका फ़र्ज़ है। गहरे वैचारिक संघर्ष में बड़ी भूमिका का निर्वाह करने के लिए कांग्रेस को जड़-मूल से रूपांतरित होना पड़ेगा।
कांग्रेस की दीवार पर लिखी वेदना भरी इस इबारत के एक साल बाद 135 बरस पुरानी पार्टी आज किस मुक़ाम पर है? अर्थव्यवस्था और वंचितों की मुसीबतों के बारे में कही गई राहुल की बातें तो सच निकलीं। कांग्रेस के वरिष्ठ नेता व लेखक पंकज शर्मा कहते हैं कि भविष्य के चुनावों के स्वरूप को ले कर उनके अंदेशे भी सही साबित होते लगते हैं। अध्यक्ष पद पर न रहने के बावजूद राहुल इस बीच अपने बुनियादी कर्मों से कतराते भी नहीं दिख रहे हैं। लेकिन क्या शिखर पर उनकी अनुपस्थिति ने कांग्रेस को जड़-मूल से रूपांतरित करने की दिशा में बढ़ा दिया है? क्या कांग्रेस ने एक साल में कठोर फ़ैसले लेने की राहुल की सलाह पर कुछ क़दम उठाए हैं? कांग्रेस की पुनर्रचना राहुल सचमुच करना चाहते हैं तो अपना गांडीव उन्हें दोबारा उठाना ही होगा। यह वक्त राहुल गांधी का है। उनकी लोकप्रियता तेजी से बढ़ रही है। देश की शासन व्यवस्था हो या सांगठनिक प्रशासन व्यवस्था, विदुरों और शकुनियों को देखने के लिए कोई दूरबीन थोड़े ही चाहिए होती है। सत्ता ज़हर है, यह बात तो राहुल को सोनिया गांधी ने सात साल पहले 18-19 जनवरी 2013 की दरमियानी रात जयपुर में ही बता दी थी। यह बात तो राहुल के दिमाग़ में तभी से साफ़ थी कि उन्हें सत्ता के पीछे नहीं भागना है, लोगों के सशक्तिकरण के लिए काम करना है। कांग्रेस को नाउम्मीदी से बचाने की ज़रूरत है। हर प्रजाति की अमरबेलों से ख़ुद को मुक्त रखने का संकल्प ले कर अगर राहुल समय रहते वापस आ जाएं तो बात अब भी बन जाए।
अब जरा दूसरी बातें करते हैं। सत्ताधारी नेताओं की ओर से एक सवाल किया जाता है कि “राहुल गांधी कहां हैं?” यह एक ऐसा राजनीतिक सवाल है, जिसे इस देश के लोगों ने न जाने कितनी बार सुना है। अब राहुल गांधी पूछ रहे हैं, “प्रधानमंत्री कहां हैं?” दरअसल, कोविड महामारी के इस काल में राहुल गांधी विभिन्न मुद्दों को लेकर सरकार पर दबाव बनाने के लिए सुर्खियों में रहे। भारत में कोरोना का पहला मामला 30 जनवरी को आता है और राहुल 12 फरवरी से ही इस विषय पर गंभीर रूप से सक्रिय हो जाते हैं। तभी से वह ज्यादा टेस्ट करने, प्रवासी मजदूरों को नकद देने, पैदल घर जा रहे लोगों को भेजने की व्यवस्था करने वगैरह की मांग ट्वीट और वीडियो संदेश के माध्यम से करते रहे। इस दौरान उन्होंने वेब कान्फ्रेंस के जरिये चार बार मीडिया से बात की। स्वास्थ्य और अर्थव्यवस्था से जुड़े मसलों पर रघुराम राजन, अभिजीत बनर्जी, आशीष झा, जोहान गिसेक और राहुल बजाज जैसी हस्तियों के साथ बातचीत की। पूर्ण लॉकडाउन के दौरान भी उन्होंने कई प्रवासी मजदूरों से मुलाकात की और सड़क पर ही बैठकर उनसे बातचीत की। फिर भी एक पूर्व राजनयिक हाल ही में अपने कॉलम में वही घिसा-पिटा सवाल पूछते हैं कि, “जब आम लोग मुश्किलों का सामना कर रहे थे, तो उस दौरान राहुल गांधी कहां थे? कहां हैं वह?” यह अपने आप में अजीब सवाल है, बशर्ते इसका वास्तविक उद्देश्य सत्ता में बैठे लोगों को किसी बात के लिए जिम्मेदार ठहराना न हो और इसका स्वरूप ऐसा भी हो सकता है- सरकारी बयान कहां है, क्या कोई प्रेस कांफ्रेंस हुई, आंकड़ों, सरकारी नीतियों और इससे निपटने के तरीके पर कोई ब्रीफिंग हुई… वगैरह-वगैरह। ये वाजिब सवाल हैं।
याद है, पिछली बार कब किसी ने प्रधानमंत्री से इस तरह के सवाल पूछे गए थे? कोविड की इस वैश्विक महामारी के दौरान राहुल गांधी की जितनी सार्वजनिक गतिविधियां रहीं, प्रधानमंत्री मोदी की सक्रियता उसकी आधी भी नहीं रही। लगभग हर देश रोजाना प्रेस ब्रीफिंग कर रहा है, ज्यादातर राष्ट्राध्यक्ष नियमित तौर पर खुले प्रेस सेशन कर रहे हैं और देश का सामने आकर नेतृत्व कर रहे हैं, लेकिन मोदी ऐसा कुछ नहीं कर रहे। 19, मार्च को यानी 40 दिन बीतने के बाद मोदी कोरोना संकट पर पहली बार देश को संबोधित करते हैं। जैसा हमेशा होता है, मोदी सीधे प्रेस के सामने नहीं आते, रेडियो-टीवी के जरिये इकतरफा संवाद के तरीके पर कायम रहे। चीन की घुसपैठ के मुद्दे पर भी मोदी मौन रहे। इस मुद्दे पर भी उनकी चुप्पी पर राहुल गांधी 29 मई से ही सवाल उठा रहे हैं, लेकिन कोई जवाब नहीं आया। लब्बोलुआब ये है कि राहुल गांधी की लोकप्रियता बढ़ रही है। लोग यह मानने लगे हैं कि उनसे बेहतर कोई नहीं है