Marathon talk: मैराथन की बात 

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दौड़ने की आदत किसी वरदान से कम नहीं है। हमारी जीवनशैली ही कुछ ऐसी है कि पंद्रह करोड़ लोग मोटापे, दस करोड़ ब्लड प्रेशर, पाँच करोड़ हृदय-रोग, चार करोड़ डाइबीटीज़ और पाँच करोड़ डिप्रेशन के मरीज़ हैं। दुनियाँ के पच्चीस नाख़ुश देशों में हम शुमार है। दौड़ का चलन इन सबका एक कारगर काट साबित हो सकता है। ये आसानी से नशे की लत की जगह ले सकता है। दोनों डोपमीन नाम के हार्मोन के श्रोत है, जो फ़ील-गुड कराता है और लत का कारण है। फ़र्क़ इतना है कि एक जीवनवर्धक है और दूसरा बँटाधार करता है।
दौड़ सस्ता और आसान भी है। उपकरण के नाम पर एक जोड़ी जूते चाहिए। थोड़ा सवेरे जाग जाएँ तो इलाक़े की सारी सड़कें ही प्लेग्राउंड है। लेकिन विडम्बना ये है कि जब भी हम खेलों की सोचते हैं तो बड़े मेडल के अलावा हमें कुछ और सूझता ही नहीं। कर्ता-धर्ता ये मानने को तैयार ही नहीं हैं कि तरक़्क़ी का एक ज़रिया ये भी है कि लोगों को एक सक्रिय और सकारात्मक जीवन शैली के लिए प्रेरित किया जाय।
खेलों की बात करें तो मैराथन ४२.१९५ किलोमीटर का एक रोड-रेस है। कहते हैं इसकी जड़ ईसा पूर्व ४९० की ऐथेंस की एक घटना में है। मैराथन नाम के जगह पर ग्रीस और पर्सिया में भीषण संग्राम छिड़ा हुआ था। फ़ायडिफ़िडेस नाम का ग्रीस का एक संदेशवाहक था। पहले तो वो स्पार्टा लड़ाई में मदद माँगने के लिए दो दिन में २४० किलोमीटर दौड़कर गया। फिर युद्ध में ग्रीस की जीत की ख़बर लेकर मैराथन से ऐथेंस तक ४० किलोमीटर दौड़ा। मक़सद उलाहना देना था कि इस लड़ाई में स्पार्टा ने ग्रीस की मदद क्यों नहीं की। कहते हैं कि काउन्सिल में घुसते ही उसने ‘निक़ोमेन’ – हम जीत गए – की आवाज़ लगाई। फिर उसका शरीर जवाब दे गया।
आगे चलकर रॉबर्ट ब्राउनिंग नाम के कवि ने १८७९ में ‘फ़ायडिफ़िडेस‘ शीर्षक एक कविता लिखी। काफ़ी लोकप्रिय हुई। इतिहास और किवदंतियों से निकलकर मैराथन से ऐथेंस की चालीस किलोमीटर की ये दौड़ ग्रीस के गौरवशाली अतीत की साक्षी बन गई। जब ओलम्पिक खेल १८९६ में दोबारा शुरु हुआ तो ग्रीस ने बड़ा ज़ोर लगाया कि इस दूरी की दौड़ को मैराथन के नाम से इसमें शुमार किया जाय। इन खेलों के कर्ता-धर्ता पियरे डे कुबरटिन भी सहमत थे। तब से ये परम्परा है कि मैराथन ओलम्पिक खेलों के आख़िरी दिन आयोजित होता है। इसके विजेताओं को मेडल समापन समारोह में दिया जाता है।
अब तो इस खेल का एक तरह से  वैश्वीकरण हो गया है। दुनियाँ भर में प्रति वर्ष ८०० से ऊपर मैराथन आयोजित किए जाते हैं। रंग-ढंग शहर के भव्य वार्षिक उत्सव का हो गया है। लोगों में इतना जुनून है कि बॉस्टन मैराथन जैसे पेशेवर इवेंट में भी ऑनलाइन रेजिस्ट्रेशन महज आठ-दस घंटे में ख़त्म हो जाता है। भले ही इसका अतीत ग्रीस में हो लेकिन बाजी अब अफ़्रीकन खिलाड़ी मार ले गए हैं। पुरुष वर्ग का ओलंपिक कीर्तिमान केन्या के समुअल वनजीरू के नाम है। उन्होंने ४२.१९५ किलोमीटर की दूरी दो घंटे, छः मिनट और बत्तीस सेकंड में पूरी की है। महिलाओं में  ईथोपिया के टिकी गेलेना शीर्ष पर हैं – दो घंटे, तैईस मिनट और सात सेकंड।
२०१५ में अंबाला में जब मैराथन के नाम पर कुछ स्कूली बच्चों को स्टेडियम का चक्कर कटवा दिया गया तो मुझे बड़ा अटपटा लगा। एक अच्छे स्तर के आयोजन की ठानी। बोलने वाले कहाँ चुप रहते है? सवाल खड़ा किया कि पंचकुला जैसे सोए जगह में दौड़ने जैसी चीज़ के लिए सवेरे-सवेरे उठकर कौन आएगा। लेकिन जब वो सुबह आयी तो उनका मुँह खुला रह गया। तीस हज़ार की ठसाठस भीड़ थी। लोगों में ग़ज़ब का उत्साह था। अंबाला, हिसार, जींद, सिरसा, यमुनानगर, पानीपत, रेवाड़ी में यही बात देखने को मिली। हर बार पहले से ज़्यादा भीड़ उमड़ी, पहले से अधिक उत्साह दिखा।
सवाल स्वाभाविक है कि आख़िर लोगों को क्या सूझा कि सवेरे-सवेरे दौड़ने जैसी चीज़ के लिए पहुँच गए? क्या मिलने वाला था कि वे इतने जोश में थे?
एक कारण मैराथन का एक कम्यूनिटी स्पोर्ट्स होना है। ये एक ऐसा खेल है जिसमें सारे खिलाड़ी हैं। लगता है कि लोग तमाशबीन बन-बन कर ऊब गए हैं। ख़ुद खेलना चाहते हैं। ये बात इंटरनेट जेनरेशन के युवाओं पर और भी ज़्यादा लागू होती है। दूसरा, टुकड़ों में बाँटा जाना उन्हें जंचता नहीं। मैराथन जाति-पाती, धर्म-समाज, ग़रीब-अमीर से ऊपर उन्हें एक साझी पहचान देता है। तीसरा, ये उनके लिए प्रतिष्ठा का प्रश्न है। रेस जीतने वाले तो जीतने के लिए दौड़ते हैं। बाक़ी की रुचि इस बात में होती है कि उनका मैराथन बग़ल वाले ज़िले से भव्य और बड़ा कैसे हो।
पुलिस विभाग के लिए तो ये बड़े काम की चीज़ है। युवाओं से सरोकार बढ़ाने का ये सबसे अच्छा ज़रिया है। मैराथन की तैयारी के बहाने पुलिसकर्मी और युवा एक दोस्ताना माहौल में मिलते हैं। महीनों इसके बारे में बात करते हैं। युवाओं पर प्रभाव रखने वाले लोगों की पहचान होती है। माहौल सकारात्मक बनता है। पुलिस की ज़मीनी पकड़ बनती है। ख़ुद ही दुनियाँ भर की बीमारियों और मोटापा से जूझ रहे पुलिस बल में फ़िट्नेस की संस्कृति विकसित करने का तो ये ब्रहमास्त्र है।
जीवशास्त्रियों का कहना है कि आदमी की शारीरिक बनावट एक दौड़ने वाले जीव की है। अच्छा होगा कि इस मानव-सुलभ व्यवहार को बढ़ावा दें। जिन्हें दौड़ने का शौक़ है उनसे ड्रग्स और बीमारी दूर ही रहेगी, इसमें कोई संदेह नहीं होना चाहिए।