Make policies in public interest, not for agenda: एजेंडे के लिए नहीं, जनहित में बनें नीतियां 

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चीन लद्दाख में हमारी सीमा में आठ किमी अंदर तक काबिज है। बैठकों के कई दौर के बाद भी वह चंद कदम पीछे हटकर जम गया है। चीन को फिंगर 8 के पीछे होना चाहिए मगर वह फिंगर 5 पर बैठा है। चंद दिन पहले वह फिंगर चार तक पहुंच गया था। हमारी सेना समझौते के मुताबिक दो किमी पीछे आ चुकी है। दो साल पहले यही डोकलाम में हुआ था। चीन ने अपनी सड़क भी बना ली है, जो उसे भूटान तक आसानी से पहुंचा देती है। यह हमारे और भूटान दोनों के लिए चिंता का विषय है। हमारी सरकार ने चीन से निपटने के लिए उस पर आर्थिक हमले की नीति अपनाई और पांच दर्जन एप्स बंद कर दिये। कुछ निविदायें और व्यवसायिक समझौते रद्द कर दिये गये। इन फैसलों से चीन को जितना नुकसान हुआ, उससे बहुत ज्यादा हमारे देश को। अमेरिका हमारे कंधे पर रखकर अपनी बंदूक दाग रहा है। हमें कुछ हासिल नहीं हो रहा मगर नुकसान जरूर है। वजह, हम बहुत हद तक चीन पर निर्भर हैं। इसके जवाब में हमारे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा कि हम आत्मनिर्भर बनें। बिल्कुल सही कहा मोदी ने। हमें आत्मनिर्भर तो बनना ही चाहिए। जब 1952 में हमारे पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू ने यही संदेश दिया था तो सैकड़ों उद्यम भी सार्वजनिक क्षेत्र में शुरू किये थे। आज स्थिति बिल्कुल उलट है। सार्वजनिक उद्यम बंद हो रहे, जबकि चुनिंदा कारपोरेट घराने समृद्ध हो रहे हैं।

हमारी सरकार को अमेरिका और चीन की तनातनी से दूर अपने वैश्विक एवं आर्थिक हितों पर काम करना चाहिए। यह वक्त किसी एक की तरफ झुकने का नहीं बल्कि तटस्थ रहकर अपने विनिर्माण को बढ़ावा देने का है। हमें उच्च प्रौद्योगिकी वाली औद्योगिक इकाइयों में धन निवेश करने के निजी सार्वजनिक भागीदारी (पीपीपी) के तहत काम करना चाहिए, जिससे हमारी सरकार न कारपोरेट के आगे दबाव महसूस करे और न वैश्विक। अधिक गुणवत्ता वाले उत्पादों की आपूर्ति स्थानीय और बाहरी बाजार में करने की हमें क्षमता बढ़ानी चाहिए। अगर ऐसा हुआ तो हमारे लोगों को रोजगार और गुणवत्तापूर्ण जीवन मिलेगा। इससे कारपोरेट को भी जनता हित पर सोचना पड़ेगा। हमें राजनीतिक सूझ के साथ काम करना होगा। अपनी कूटनीतिक को मैत्रीपूर्ण बनाकर हम तमाम पड़ोसी देशों को आश्रित बना सकें, इसके लिए उत्पादक देश बनना होगा। चीन से यह बात सीखी जा सकती है। चीन ने अपने उत्पादों के जरिए न सिर्फ खुद को समृद्ध किया बल्कि विश्व के 50 से अधिक देशों को आश्रित भी बनाया है। बगैर चिंतन के चीन से अलग-थलग पड़कर आत्मनिर्भर बनने की बात असल में एक जुमले के सिवाय कुछ नहीं है। हमें चीन की तरह कम लागत में अधिक उत्पादन करने और उसके लिए बाजार उपलब्ध कराने की नीति पर काम करना चाहिए। दुख तब होता है, जब सरकार इस दिशा में काम करने के बजाय सिर्फ सियासी एजेंडे सेट करती है। विरोध की आवाज कुचलने के बजाय उनसे सीखने और गलतियों को सुधारने पर जोर देना चाहिए।

हमारी सरकार की समस्या यह है कि उसने गलतियों से सीखने पर जोर नहीं दिया। रचनात्मक आलोचनाओं को विरोधी स्वर समझा गया। इसके लिए तमाम संवैधानिक संस्थाओं और जांच एजेंसियों को कैसे काबू करके उनसे अपने राजनीतिक विरोधियों को खत्म किया जाये, की नीति अपनाई गई। सभी जगह सरकार बनाने की जल्दी में स्वस्थ परंपराओं को तोड़ा गया। डराने-धमकाने और तोड़ने के लिए जो तरीके अपनाये गये, उनसे राजनीतिक भ्रष्टाचार चरम पर पहुंच गया है। हर दल का विधायक-सांसद बिकने को तैयार बैठा है। तमाम महत्वपूर्ण पदों पर नाकाबिल लोगों को बैठाकर अपने एजेंडे पर संस्थाओं को चलाने की परंपरा शुरू हो चुकी है। इससे न्यायपालिका और सैन्य बल भी पीछे नहीं रहे। वह देश और देश के संविधान, सीमाओं पर ध्यान केंद्रित करने के बजाय सत्तानशीनों के इशारों का इंतजार करते हैं। इस कार्य में लगे लोग जब सत्तारूढ़ दल के लिए गलत करेंगे, तो निश्चित है कि वह अपने फायदे के लिए और भी गलत करने को हर समय तैयार रहेंगे। ऐसा होने पर कानून का राज खत्म होता है। अराजकता स्थापित होती है। संवैधानिक संस्थायें ही जब स्वतंत्र विचार प्रस्तुत नहीं करेंगी, तो किसी अन्य सरकारी एजेंसी से ईमानदारी की उम्मीद छोड़ देनी चाहिए।

इस वक्त राजस्थान में सियासी संकट खड़ा है। संकट का कारण बिकाऊ विधायक और सत्ता की भूख है। राजस्थान कांग्रेस के अध्यक्ष एवं उपमुख्यमंत्री सचिन पायलट अपने राष्ट्रीय अध्यक्ष से अपना मेहनताना नहीं मांग रहे बल्कि कुछ विधायकों के साथ मिलकर अपनी ही सरकार गिराने की हर जुगत भिड़ा रहे हैं। इसमें भाजपा पीछे से वह हर काम कर रही है, जो उसे एक चरित्रवान दल के रूप में नहीं करना चाहिए। न्यायपालिका केंद्रीय सत्ता के अधीन विभाग की तरह व्यवहार कर रही है। न्याय और संविधान की बात अदालतों में भी नहीं हो रही। यहां तो सिर्फ सियासी घटनाचक्र चल रहा है। सुप्रीम कोर्ट के जज अरुण मिश्र कहते हैं कि क्या लोकतंत्र में जनता और जनता के प्रतिनिधियों को अपने विरोधी स्वर रखने का अधिकार नहीं है, होना ही चाहिए। उस वक्त वह भूल जाते हैं कि देश की तमाम अदालतों में तमाम संभ्रांत और युवा सिर्फ इसलिए मुलजिम बने खड़े हैं क्योंकि उन्होंने सरकारी फैसलों पर अपना विरोध जताया था। हमें याद आता है कि यूपी में कोरोना से पीड़ित हुए एक समुदाय के लोगों के खिलाफ यह वायरस फैलाने के सैकड़ों मुकदमें दर्ज कर लिये गये हैं। वह तो स्वयं पीड़ित थे मगर उनकी बात को अनसुना कर दिया गया। इन सभी मामलों में हमारी संस्थायें और अदालतें, सरकारी एजेंट की तरह काम करती नजर आईं। सरकार की इन्हीं नीतियों के चलते एक वर्ग विशेष के लोगों को मारा जाने लगा। जिन राज्यों ने यह नीति अपनाई, वहां अराजकता चरम पर है। यूपी में कानून का राज खत्म हो गया है। वहां जंगलराज जैसे हालात उत्पन्न हो गये हैं। अपराधियों के हौसले बुलंद हैं और पुलिस वर्दी वाला गुंडा बनकर खुश है। पुलिस राज स्थापित करने के लिए कानूनों को तोड़-मरोड़ कर सरकारी अपराध हो रहे हैं।

संविधान सभा ने जब 26 नवंबर 1949 को भारत का संविधान हमें समर्पित किया था, तो उसमें लोक कल्याण की अवधारणा थी। हमारे देश में प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री चुनने की व्यवस्था नहीं है बल्कि सांसद एवं विधायक चुनने की है। चुने गये, जनप्रतिनिधि अपने बीच से एक श्रेष्ठ व्यक्ति को नेता सदन चुनते हैं, जो प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री बनता है। ऐसा होने से वास्तविक जनप्रतिनिधि के हाथ में सत्ता आती है। दुर्भाग्य से अब संविधान के विपरीत हो रहा है। इससे जवाबदेही सदन और जनता के प्रति होने के बजाय नेता के प्रति हो रही है। हमें लोककल्याण और लोकसत्ता के प्रति संजीदा होना होगा। अगर ऐसा नहीं हुआ तो हमारा संविधान ही नहीं, जीवन भी खतरे में पड़ेगा। कोई संस्था आपको न्याय नहीं दे सकेगी। यह फंदा धीरे-धीरे हम सभी के गले में पड़ जाएगा। ऐसा होने से हमारी सीमाएं भी असुरक्षित होंगी और देश के नागरिक भी। इससे जरूरी है कि हम किसी एजेंडे पर नहीं बल्कि जनहित की नीतियों पर काम करें।

जयहिंद!

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(लेखक आईटीवी नेटवर्क के प्रधान संपादक हैं)