(Mahendragarh News) सतनाली। करीब तीन से चार दशक पहले दक्षिण हरियाणा के सतनाली, लोहारू क्षेत्र में भारी मात्रा में चने की पैदावार की जाती थी परंतु अब चने की बिजाई कहीं कहीं पर ही देखने को मिलती है। उम्मीद के अनुरूप चने की पैदावार न मिलने से चने की बुवाई का रकबा गिरता ही जा रहा है। ध्यान रहे कि कम बरसात होने के चलते रबी फसल में चने की पैदावार लेकर किसान प्रसन्न नजर आते थे। प्रत्येक किसान के यहां सैकड़ों मन चना होता था। खाने पीने के लिए भी जहां चने की रोटी, मेसी रोटी खाते थे वहीं देसी सब्जियों से बहुत ज्यादा साग बनाकर मन को ललचाते थे। चना उस जमाने में प्रमुख रूप से उगाया जाता था।
विवाह शादियों पर लड्डू बनाकर जब खाते तो एक आध दिन नहीं एक एक महीने तक लोग मजे से खाते थे। लेकिन समय में बदलाव के साथ ही अब तो लड्डू को विवाह शादियों तक में नापसंद किया जाने लगा है। बुजुर्गों को आज भी याद है हरे चने का साग और नमक मिर्च। उस जमाने में जब चने कुछ बड़े हो जाते थे तो लोग उन्हें हरे रूप में तोडकर इल्ली की तरह खाते थे। अपने साथ नमक मिर्च और लहसुन मिलाकर जेब में एक कागज में डालकर ले जाते थे। नमक मिर्च से खेत में बैठकर घंटों तक हरा साग खाते थे। जब मन भर जाता तो तोड़ कर अपने साथ लाते और घर में चटनी जिसे कुट्टी नाम से जाना जाता था बनाकर खाते थे।
आज भी कुछ लोगों के जेहन में ये बातें रंगी बसी हुई हैं। नावा निवासी किसान ओंकार पडतलिया बताते हैं कि वे आज भी चने से इतने प्रभावित है तथा 3 से 4 एकड़ जमीन पर चने उगाते हैं। उन्होंने बताया कि जब छोटे थे तो हरे चने खाकर बहुत आनंद महसूस करते थे। अब तो लोग चने को भूलते जा रहे हैं। चने उगाने के बाद किसान भूखा नहीं रहता था। किसान हरे साग को तोडक़र तत्पश्चात ठाट लग जाती उनको छोले के रूप में प्रयोग करते। चटनी बनाकर छाछ के संग मजे से खाता था।
सारा काम चने से करते थे रोटी, चटनी, सब्जी खाटा का साग, रायता, कोफ्ता परांठे तथा विभिन्न रूपों में चने का प्रयोग करते थे। चने बड़े होने पर होले बनाता था और उन्हें भी चाव से खाता था और पक जाते चने निकालकर न केवल विभिन्न रूपों में उसे रोटी आदि के रूप में प्रयोग करता था। चने का चारा भी पशुओं के काम आता था। कृषि वैज्ञानिक बताते हैं कि चने की जड़ों में गांठ होती है और इन पौधों की जड़ों में गांठों में सूक्ष्म जीव निवास करते हैं जो खेत की पैदावार बढ़ाते हैं। इसलिए समय-समय पर दलहन जाति के पौधे जरूर उगाए जिससे पैदावार बढ़ जाती है।
बारानी क्षेत्रों में ही जहां पानी की कमी होती है वहीं पर चने पैदावार देते हैं अन्यथा नहीं दे पाते। आज चने की पैदावार घट गई है। क्षेत्र में कहीं कहीं पर अब भी चने की खेती मिल जाती है परंतु आने वाले वर्षों में चने के बिजाई क्षेत्र में कमी आने की संभावना है क्योंकि आशानुरूप पैदावार न मिलने से किसानों का चने की खेती से मोहभंग होता जा रहा है।
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