- लंपी रोग को लेकर मुख्य सचिव की सभी डीसी, एसपी व पशुपालन विभाग के अधिकारियों के साथ वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग
- पशु पालक घबराएं नहीं बल्कि सावधानी बरतें : उपायुक्त
नीरज कौशिक, Mahendragarh News:
प्रदेश में गोवंशीय पशुओं में फैले लंपी स्किन रोग (गांठदार चर्चा रोग) के नियंत्रण एवं प्रभावी रोकथाम के लिए आज हरियाणा के मुख्य सचिव संजीव कौशल ने राज्य के सभी उपायुक्त पुलिस अधीक्षक तथा पशुपालन विभाग के अधिकारियों के साथ वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग की। वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के बाद उपायुक्त डॉ. जय कृष्ण आभीर ने जिला के अधिकारियों की बैठक ली तथा आवश्यक दिशा निर्देश जारी किए।
पशुपालकों को जागरूक करें
उपायुक्त ने पशुपालन विभाग के अधिकारियों को निर्देश दिए कि वे पशुपालकों को जागरूक करें कि वे सावधानी बरतें तथा घबराने की बिल्कुल भी जरूरत नहीं है। डीसी ने कहा कि रविवार शाम तक जिला महेंद्रगढ़ की सभी गोशालाओं में पशुओं को वैक्सीनेशन का कार्य पूरा हो जाएगा। अधिकारी इसकी पूरी रिपोर्ट पोर्टल पर अपलोड करें। प्रदेश के मुख्यमंत्री खुद वैक्सीनेशन की कार्य पर नजर रखे हुए हैं। जिला महेंद्रगढ़ की गोशालाओं में लगभग 21 हजार गोवंश है। जिला में सरकार की ओर से बीस हजार वैक्सीनेशन की डोज मिल चुकी हैं। जिला में लगभग 51 हजार गोवंश है। जिन पशुओं को यह रोग पहले से ही है उन्हें यह टीका नहीं लगाया जाएगा।
पशु मेले पर फिलहाल रोक
डीसी ने कहा कि जिला में पशु मेले पर फिलहाल रोक है। इसी प्रकार पशुओं की दूसरे राज्य से आवाजाही पर भी रोक है। राजस्थान से अलग से सभी नाकों पर पुलिस को निर्देश दिए जा चुके हैं।
इस बैठक में डीएसपी नरेंद्र सांगवान, डिप्टी डायरेक्टर डॉ. नसीब सिंह, एसडीओ डॉ. इंद्रपाल चौहान, डॉ. बलजीत सिंह तथा डॉ. जगबीर सिंह के अलावा अन्य अधिकारी मौजूद थे।
क्या लम्पी स्किन रोग
लम्पी स्किन रोग (एलएसडी) एक वायरल रोग है, यह वायरस केप्रिपॉक्स, जोकि पॉक्स परिवार का वायरस है। लम्पी स्किन रोग मुख्य रूप से गोवंश को प्रभावित करता है। लम्पी स्किन रोग अथवा गांठदार त्वचा रोग गौवंशीय एवं भैंसवंशीय पशुओं का एक संक्रामक रोग है।
यह एक गैर-जूनोटिक रोग है जो पशुओं से इंसानों में नहीं होता है। रोग के कारण पशुओं में होने वाली मृत्यु दर 1 से 5 प्रतिशत तक हो सकती है।
रोग के लक्ष्ण
रोगग्रस्त पशुओं में आरंभ में बुखार, आंख से पानी आना, नाक से साव आना, चलने-फिरने में अनिच्छा, लार गिरना तथा दूध उत्पादन अचानक से घटने जैसे लक्षण आते हैं। इसके बाद पशु के पूरे शरीर पर अथवा विशेषकर सिर, गर्दन, छाती, थनों के आस-पास एवं पैरों में रोग के विशिष्ट लक्षण के रूप में कठोर गोल उभार बन जाते हैं जो 2 से 5 सेन्टीमीटर व्यास के हो सकते हैं। गादी, छाती, गले के नीचे और पैरों में सूजन आ सकती है।
इन उभारों से मवाद आने और त्वचा पर घाव हो जाने जैसी स्थिति भी बन सकती है। पशु चल-फिर नहीं पाता और बेहद कमजोर हो जाता है। दो से तीन सप्ताह में रोग में सुधार होकर गांठे या तो समाप्त हो जाती हैं अथवा त्वचा का भाग गांठ वाला भाग कठोर हो जाता है और बाद में यह हिस्सा शरीर से झड़ जाता है ।
रोग फैलने के कारण
रोगी पशु से अन्य स्वस्थ पशुओं में रोग का प्रसार रक्त चूसने वाले अथवा काटने वाले कीटों, जैसे मच्छर काटने वाली मक्खी, जूं चींचड़े एवं मक्खियों आदि से होता है। यह रोग रोगी पशु के सम्पर्क से, लार से गांठों के मवाद / जख्म से सक्रमित चारा / पानी से फैलता है। यह रोग पशुओं के आवागमन से फैलता है।
रोग से बचाव के लिए पशुपालकों क्या करें
गौवंशीय एवं भैंसवंशीय पशुओं के इस संक्रामक रोग के नियंत्रण एवं रोकथाम का सर्वोत्तम उपाय, स्वस्थ पशुओं को संक्रमण की चपेट में आने से बचाना है। पशुओं के बाड़े में मच्छर काटन वाली मक्खी, जू चींचड़े एवं मक्खियों आदि को नियंत्रित करें। पशुओं के बाहय परजीवियों की रोकथाम हेतु पशु चिकित्सक की सलाह पर परजीवी नाशक दवाओं का उपयोग करें। पशु आवास एवं उसके आस-पास साफ-सफाई एवं स्वच्छता पर लगातार ध्यान दें।
पशु आवास के नजदीक पानी, मल-मूत्र एवं गंदगी एकत्र नहीं होने दें। किसी भी पशु में रोग के आरंभिक लक्षण दिखाई देते ही उसे अन्य स्वस्थ पशुओं से तुरंत अलग कर दें। पशुओं को यथासंभव घर पर ही बांध कर रखें तथा अनावश्यक रूप से उसे बाहर नहीं छोड़ें। स्वस्थ / रोगी पशुओं को चराई के लिए चारागाह या बाहर ना छोड़ें। रोग ग्रस्त होने पर पशु को घर में पृथक स्थान पर रखें। किसी भी स्थिति में खुला ना छोड़ें। यह रोग के फैलाव का बड़ा कारण हो सकता है। रोग से सक्रमित पशुओं की देखभाल करते समय सभी आवश्यक जैव-सुरक्षा, जैसे
दस्ताने, फेस मास्क, साबुन एवं सैनिटाइजर का भी नियमित उपयोग करें। पशु बाड़े अथवा आवास के प्रवेश पर चूने की दो फुट चौड़ी पट्टी बनाएं। यदि संभव हो तो रोगी पशुओं की देखभाल करने वाला व्यक्ति स्वस्थ पशुओं के समीप नहीं जाए। यदि यह संभव नहीं हो तो स्वस्थ पशुओं की देखभाल पहले करें एवं अंत में समस्त जैव- सुरक्षा उपायों के साथ रोगी पशु की देखभाल करें। रोग से सर्वमित परिसर, वाहन आदि को नियमित अंतराल पर सोडियम हाईपोक्लोराईट के 2 से 3 प्रतिशत घोल अथवा अन्य उपयुक्त रसायनों द्वारा विसंक्रमित करें।
पशु उपचार नजदीकी राजकीय पशु चिकित्सक की सलाह से ही कराएं। रोगी गाय के दूध का उपयोग कम से कम दो मिनट तक उबाल कर ही किया जाए। रोगी पशु को संतुलित आहार, हरा चारा, दलिया, गुड, बांटा, लीवर टोनिक आदि खिलायें ताकि पशु में रोग प्रतिरोधक क्षमता में वृद्धि हो सके।
अगर इस रोग से पशु की मौत हो तो वैज्ञानिक विधि से करें निस्तारण
इस रोग से मृत पशुओं को खुले में फेंक दिए जाने से रोग के फैलने की संभावना बहुत अधिक रहती है। रोगी पशु की मृत्यु हो जाने पर उसे स्थानीय प्रशासन के सहयोग से शीघ्र 10 फीट गहरे गड्ढे में चूना एवं नमक डालकर गाड़ दें ।
शवों के निस्तारण के लिए स्थान के चयन के समय यह ध्यान रखें की यह स्थान रिहाइशी क्षेत्र / पशु गहों / जल स्त्रोतों तथा मुख्य मार्गों से पर्याप्त दूरी पर कोई उँचाई वाला स्थान हो। मृत पशु को निस्तारण के लिये ले जाते समय उसे अच्छी तरह से ढक कर परिवहन किया जावे तथा इस के लिए उपयोग में लिए जाने वाले वाहन का उपयोग के पश्चात साडियम हाईपोक्लाराईट के 2 से 3 प्रतिशत घोल अथवा अन्य उपयुक्त रसायनों द्वारा विसंक्रमित करें।
मृत पशु के चारे दाने आदि को भी विसंक्रमति कर नष्ट कर दें एवं पुनः उपयोग में नहीं लें। पशु बाड़े को सोडियम हाईपोक्लाराईट अथवा अन्य उपयुक्त रसायनों द्वारा पूर्णतया विसंक्रमति करें अथवा जिस स्थान पर पशु की मृत्यु हुई है उस स्थान पर सूखी घास बिछाकर आग जला दें जिससे कि वह स्थान संक्रमण मुक्त हो जाए।
रोग से बचाव के लिए गोट पॉक्स वैक्सीन के उपयोग के सम्बन्ध में ये हैं दिशा-निर्देश :
रोग की रोकथाम के लिए सर्वमित ग्राम के चारों ओर पांच किलोमीटर परिधि में बाहरी क्षेत्र से भीतर की ओर आते हुए स्वस्थ पशुओं में रिंग वैक्सीनेशन किया जाता है। चार माह से अधिक आयु के समस्त स्वस्थ गो- पशुओं में टीकाकरण किया जा सकता है । टीकाकरण पशुपालन विभाग के पशु चिकित्सक की सलाह से ही करवाएं। किसी भी स्थिति में पशुपालक द्वारा सीधे ही अपने स्वयं के स्तर से अथवा अनाधिकृत व्यक्तियों से गोट पॉक्स वैक्सीन अथवा अन्य वैक्सीन नहीं लगवाएं।
टीकाकरण के पश्चात रोग प्रतिरोधक क्षमता आने में 14 से 21 दिन का समय लगता है अतः इस अवधि में संक्रमण की संभावना हो सकती है। इस रोग से संक्रमित गो-पशुओं का टीकाकरण नहीं किया जाए। अतः रोगग्रस्त क्षेत्र में टीकाकरण नहीं कराने की सलाह दी जाती है।
रोगी गो- पशुओं के सम्पर्क में आये समस्त स्वस्थ गो-पशुओं में टीकाकरण नहीं किया जाए क्योंकि रोगो पशु के सम्पर्क में आने वाले स्वस्थ पशु में 14 से 28 दिन के रोग के लक्षण आ सकते हैं। सवंगित गो- पशुओं अथवा उनके सम्पर्क में आये गो-पशुओं में टीकाकरण करने से रोग की तीव्रता बढ़ने की सम्भावना रहती है।