Madras High Court का ऐतिहासिक फैसला, अब जाति के आधार पर मंदिरों पर नही होगी पुजारियों की नियुक्ति

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आशीष सिन्हा
आशीष सिन्हा
Aaj Samaj (आज समाज),Madras High Court, नई दिल्ली :
उत्तराखंड उच्च न्यायालय ने राज्य सरकार को आठ सप्ताह के भीतर लोकायुक्त की नियुक्त करने का दिया निर्देश 
उत्तराखंड उच्च न्यायालय ने राज्य सरकार को आठ सप्ताह की अवधि के भीतर लोकायुक्त की नियुक्त करने का निर्देश दिया।मुख्य न्यायाधीश विपिन सांघी और न्यायमूर्ति राकेश थपलियाल की पीठ ने भ्रष्टाचार निरोधक संस्था को पर्याप्त व्यय आवंटित किए जाने के बावजूद लोकायुक्त की नियुक्ति में लंबे समय से हो रही देरी पर कड़ा असंतोष जाहिर किया।
पीठ ने सरकार को तय समय सीमा के भीतर लोकायुक्त नियुक्त करने और यह सुनिश्चित करने का आदेश दिया है। इसके अतिरिक्त, इसने राज्य सरकार को अनुपालन रिपोर्ट प्रस्तुत होने तक लोकायुक्त कार्यालय से संबंधित सभी खर्चों को निलंबित करने का निर्देश दिया हैं।
 उच्च न्यायालय का यह निर्णय हलद्वानी (गौलापार) के निवासी और सामाजिक कार्यकर्ता रविशंकर जोशी द्वारा दायर एक जनहित याचिका (पीआईएल) पर आया है।  जनहित याचिका में इस तथ्य पर प्रकाश डाला गया है कि लोकायुक्त संस्था पर सालाना 2 से 3 करोड़ रुपये का खर्च हो रहा है, फिर भी राज्य सरकार अब तक लोकायुक्त नियुक्त करने में विफल रही है।
 जनहित याचिका पर 10 अगस्त को फिर से सुनवाई होनी है। लोकायुक्त नियुक्ति की आवश्यकता पर जोर देते हुए याचिका में कहा गया है कि राज्य की सभी जांच एजेंसियां वर्तमान में सरकार के नियंत्रण में हैं।  इसमें आगे तर्क दिया गया है कि उत्तराखंड में किसी भी जांच एजेंसी के पास सरकार की पूर्व अनुमति के बिना अधिकारियों के खिलाफ भ्रष्टाचार का मामला शुरू करने या जांच के बाद किसी भी अदालत में आरोप पत्र दायर करने का अधिकार नहीं है।
मुंबई कोर्ट ने एनसीपी प्रमुख शरद पवार को कथित जान से मारने की धमकी देने वाले शख्स को जमानत दी
 मुंबई की एक अदालत ने पुणे के एक निवासी को जमानत दे दी, जिसे कथित तौर पर सोशल मीडिया पर राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (एनसीपी) प्रमुख शरद पवार को जान से मारने की धमकी देने के आरोप में गिरफ्तार किया गया था।
 अतिरिक्त मुख्य मेट्रोपॉलिटन मजिस्ट्रेट (एस्प्लेनेड कोर्ट) एल एस पधेन ने आरोपी सागर बर्वे की जमानत याचिका स्वीकार कर ली, जो एक निजी फर्म के डेटा फीडिंग और एनालिटिक्स डिवीजन में कार्यरत है।
 अभियोजन पक्ष के अनुसार, शिकायतकर्ता को 9 जून को सोशल मीडिया पर एक पोस्ट मिली, जिसमें राकांपा नेता को धमकी दी गई थी। दाभोलकर की 20 अगस्त, 2013 को पुणे में गोली मारकर हत्या कर दी गई थी।
अपराध शाखा ने बाद में आरोपी को जान से मारने की धमकी देने में कथित संलिप्तता के आरोप में गिरफ्तार कर लिया।
 वकील धृतिमान जोशी के माध्यम से दायर जमानत याचिका में बर्वे ने कहा कि उन्हें मामले में गलत तरीके से फंसाया गया है।  याचिका में कहा गया की आरोप नर्मदाबाई पटवर्धन नाम के एक व्यक्ति से जुड़े थे, और अभियोजन पक्ष आरोपी और उल्लिखित खाते या टिप्पणी के लेखक के बीच सीधा संबंध स्थापित करने में विफल रहा था।
 इसके अलावा, याचिका में कहा गया कि अभियोजन पक्ष ने इस दावे को साबित करने के लिए कोई सबूत पेश नहीं किया कि आरोपी उक्त खाता संचालित करता था।
मद्रास हाई कोर्ट का ऐतिहासिक फैसला, अब जाति के आधार पर मंदिरों पर नही होगी पुजारियों की नियुक्ति
मद्रास उच्च न्यायालय ने एक अहम फैसला सुनाते हुए कहा कि किसी भी मंदिर में पुजारी कि नियुक्ति अब उसकी जाति के आधार पर नहीं होगी।
न्यायमूर्ति एन आनंद वेंकटेश ने टिप्पणी करते हुए कहा कि मंदिरों में पुजारी के रूप में नियुक्त होने के लिए यह महत्वपूर्ण होता है कि उन्हें मंदिर की परंपराओं और सिद्धांतों का अच्छे से ज्ञान हो और वे पुजारी पद के लिए प्रशिक्षित हों। उन्होंने यह भी कहा कि पुजारी की नियुक्ति में जाति कि कोई भूमिका नहीं होगी।
इस फैसले के साथ ही न्यायालय ने यह भी कहा कि धार्मिक सेवा करना धर्म का अभिन्न अंग है और इसमें किसी व्यक्ति के पंथ या जाति का कोई भी महत्व नहीं होना चाहिए। इसलिए, पुजारी के पद के लिए किसी भी व्यक्ति को नियुक्त किया जा सकता है जो मंदिर में विशेष आगमों और अनुष्ठानों में पारंगत और निपुण हो। न्यायालय ने अपने फैसले में उचित प्रक्रिया का पालन करने के निर्देश दिए हैं और उन्हें एक नया विज्ञापन जारी करने के लिए कहा है,जिसमें पुजारी की नियुक्ति के चयन में याचिकाकर्ता भी भाग ले सके।
दरअसल यह याचिका तमिलनाडु के सलेम जिले में श्री सुगवनेश्वर स्वामी मंदिर के कार्यकारी अधिकारी (ईओ) द्वारा जारी एक अधिसूचना को चुनौती देते हुए दायर की गई थी, जिसमें उन्होंने मंदिर के पुजारी का पद भरने के लिए आवेदन मांगे थे। याचिकाकर्ता  ने दलील दी कि पुजारियों को यह पद विरासत में मिलना चाहिए और अदालत को बताया यह अधिसूचना पुजारी का पद संभालने के उनके पीढ़ी दर पीढ़ी में मिलने वाले अधिकारों का उलंघन करती है, क्योंकि वह उत्तराधिकार की पंक्ति में रीति-रिवाजों और प्रथाओं के अनुसार मंदिर में सेवा कर रहे थे।
*चर्च करवा रहा विधि विरुद्ध धर्म परिवर्तन, इसलिए प्रार्थना सभा की इजाजत नहीं- डीएम का हाईकोर्ट में हलफनामा*
आजमगढ़ के जिलाधिकारी ने इलाहाबाद हाईकोर्ट को बताया है कि एक खास चर्च में प्रार्थना सभा आयोजित करने की इजाजत नहीं दी जा सकती, क्योंकि इस चर्च के खिलाफ तीन साल में विधि विरुद्ध धर्म परिवर्तन के 20 मामले विभिन्न थानों में दर्ज हुए हैं। आजमगढ़ के जिलाधिकारी ने यह बात हलफनामे पर लिख कर हाईकोर्ट को दी है।
हाईकोर्ट के न्यायमूर्ति महेश चंद्र त्रिपाठी और न्यायमूर्ति प्रकाश पाडिया की खंडपीठ धर्म परिवर्तन अधिनियम के दुरुपयोग के खिलाफ गॉड टू ग्लोरी चैरिटेबुल ट्र्स्ट की ओर से दाखिल जनहित याचिका पर सुनवाई कर रही थी।
याची ट्रस्ट के वकील मोहम्मद कलीम का कहना था कि आजमगढ़ पुलिस और प्रशासन द्वारा ईसाई धर्म के प्रचार-प्रसार के लिए शनिवार और रविवार को लगने वाली प्रार्थना सभा को मानमाने ढंग से रोका जा रहा है। विधि विरुद्ध धर्म परिवर्तन अधिनियम का दुरुपयोग करते हुए ईसाई धर्मावलंबियों के खिलाफ झूठे आपराधिक मुकदमे लगाए जा रहे हैं, जो संविधान विरोधी कार्यवाही है।
न्यायालय ने याची द्वारा लगाए गए आरोपों पर जिलाधिकारी आजमगढ़ से व्यक्तिगत हलफनामा दाखिल करने का आदेश दिया था। जिसके क्रम में जिलाधिकारी आजमगढ़ ने शपथपत्र दाखिल कर बताया कि आजमगढ़ जिले में विगत तीन वर्षों में विधि विरुद्ध धर्म परिवर्तन के 20 मामले दर्ज किए गए हैं। उन्होंने यह भी आरोप लगाया कि प्रार्थना सभाओं के नाम पर दूसरे धर्म के प्रति घृणा फैलाई जाती है, इसलिए आजमगढ़ प्रशासन द्वारा प्रार्थना सभाओं के आयोजन की अनुमति नहीं दी जा रही है।
जिलाधिकारी द्वारा दाखिल शपथपत्र पर याची ने आपत्ति दर्ज करवाई। कहा कि शपथपत्र साक्ष्य विहीन है। राज्य सरकार की ओर से पेश स्थायी वकील की प्रार्थना पर जिलाधिकारी आजमगढ़ को पूरक शपथ पत्र दाखिल करने का एक और अवसर प्रदान किया गया। कोर्ट ने पूर्व लंबित समान प्रकृति की एक अन्य जनहित याचिका के साथ इस जनहित याचिका की सुनवाई के लिए 3 जुलाई नियत की है।
 *आरक्षण का लाभ उठाने वालों के प्रमाण पत्रों की जांच कराई जाए- बॉम्बे हाईकोर्ट*
बॉम्बे हाई कोर्ट की गोवा पीठ आरक्षण का लाभ उठा रहे लोगों की जाति प्रमाणपत्रों की जांच का आदेश किया है। हाई कोर्ट ने राज्य सरकार को तीन महीने के भीतर यह सुनिश्चित करने का निर्देश दिया है कि जो लोग जाति-आधारित आरक्षण का लाभ उठा रहे हैं, उनके प्रमाणपत्रों को जाति जांच समिति द्वारा सत्यापित किया जाए।
स्थानीय नगरपालिका परिषद के एक पार्षद, तारक अरोलकर द्वारा दायर एक याचिका पर सुनवाई करते हुए हाई कोर्ट ने कहा कि जाति आधारित आरक्षण का लाभ उठाने वालों की जाति की स्थिति का सत्यापन सुनिश्चित करने के लिए राज्य में कोई तंत्र नहीं है। जबति कुमारी माधुरी पाटिल के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने इसे अनिवार्य किया था। तारक अरोलकर का जाति प्रमाण पत्र जाति जांच समिति द्वारा रद्द कर दिया गया था और वो अयोग्य घोषित कर दिए गए थे।
सुप्रीम कोर्ट ने जाति प्रमाणपत्रों के सत्यापन के लिए विस्तृत प्रक्रिया निर्धारित की थी। इस संबंध में संबंधित राज्य सरकार द्वारा किसी कानून के अभाव में यह प्रक्रिया लागू की जानी है। जस्टिस एम एस सोनक और भरत देशपांडे की हाई कोर्ट की पीठ ने कहा, “दुर्भाग्य से, गोवा राज्य में, किसी भी कानून या कार्यकारी संस्थान को आरक्षित निर्वाचन क्षेत्र से चुने गए उम्मीदवार के नामांकन पत्र दाखिल करने से पहले या आरक्षित निर्वाचन क्षेत्र से चुने जाने के बाद कुछ उचित अवधि के भीतर उनके जाति प्रमाण पत्र के सत्यापन की आवश्यकता नहीं होती है। परिणामस्वरूप, हमें यकीन है कि ऐसे कई निर्वाचित उम्मीदवार, नियुक्त व्यक्ति या यहां तक कि छात्र भी होंगे जिन्हें कुमारी माधुरी पाटिल की प्रक्रिया के बाद सीएससी से अपना अनंतिम जाति प्रमाण पत्र सत्यापित कराना बाकी है।”
कोर्ट ने कहा, “यह स्थिति संतोषजनक नहीं है। किसी भी कानून या कार्यकारी निर्देश के अभाव के कारण, अयोग्य व्यक्ति आरक्षण का लाभ ले सकता है और जरूरतमंद ऐसे लाभों से वंचित रह सकते हैं।’ हाईकोर्ट ने निर्देश दिए कि राज्य सरकार उचित कदम उठाने पर विचार करे ताकि डिप्टी कलेक्टरों और एसडीओ द्वारा जारी किए गए अनंतिम जाति प्रमाणपत्रों को उचित अवधि के भीतर सत्यापित किया जा सके, और जो लोग आरक्षित जाति से संबंधित नहीं हैं, लेकिन अभी तक इसका लाभ प्राप्त कर रहे हैं उन्हें पहचान कर अलग किया जाए।”
केरल बाल अधिकार निकाय ने रेबीज के संदेह वाले आक्रामक आवारा कुत्तों की इच्छामृत्यु की मांग करते हुए सुप्रीम कोर्ट का रुख किया
 केरल राज्य बाल अधिकार संरक्षण आयोग ने कुत्तों के हमलों की समस्या से निपटने के लिए राज्य में रेबीज होने के संदेह वाले आक्रामक आवारा कुत्तों को इच्छामृत्यु देने की आवश्यकता पर जोर देते हुए सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया है। बाल अधिकार संगठन ने ऐसे व्यक्तियों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई का भी आह्वान किया है जो लापरवाही से ऐसे कुत्तों को छोड़ देते हैं। याचिका में कहा गया है कि आयोग को आवारा कुत्तों के उपद्रव और उनके द्वारा घातक रूप से काटे गए बच्चों की दुर्दशा के बारे में कई शिकायतें मिली हैं। इतना ही नहीं आवारा कुत्तों के बार-बार हमलों की सूचना मिल रही है। आवारा कुत्तों में एक वफादार पालतू जानवर की तरह स्वभाव नहीं होता है। यह एक कीड़े की तरह है और जब वे एकत्र हो जाएंगे तो उनकी हमलावर प्रकृति दिखाई देगी और खतरनाक हो जाएगी। याचिका में कहा गया कि आवारा कुत्तों की समस्या से निपटने के लिए राज्य द्वारा कई योजनाएं बनाई गई हैं, लेकिन उनमें से कोई भी पूर्ण समाधान नहीं है।
याचिका में कहा गया कि  “नसबंदी और रेबीज रोधी टीकाकरण के बाद भी, उन्हें सड़क पर छोड़ दिया जाता है और चूंकि उनके पास भोजन और आश्रय की उचित व्यवस्था नहीं होती है, इसलिए वे बच्चों और आम लोगों के लिए खतरा और दुःस्वप्न बन जाते हैं। यह बच्चों की सुरक्षा के लिए आवश्यक है।”  और सार्वजनिक कल्याण के लिए सभी आवारा कुत्तों को पकड़कर सुरक्षित स्थान पर रखा जाएगा।
सुप्रीम कोर्ट ने आवारा कुत्तों के मामले की सुनवाई 12 जुलाई को तय की है। इसके अलावा, कन्नूर पंचायत ने बच्चों पर आवारा कुत्तों के हमले की हाल की दो घटनाओं के कारण मामले में पक्षकार बनने का अनुरोध किया है।  प्राथमिक मामला केरल उच्च न्यायालय के 2006 के फैसले के खिलाफ चुनौती से संबंधित है, जिसने स्थानीय स्व-सरकारी संस्थानों को आवारा कुत्तों को इच्छामृत्यु देने का अधिकार दिया था।  केरल में बाल अधिकार संगठन ने जिम्मेदार पालतू स्वामित्व के बारे में भारतीय आबादी के बीच जागरूकता की कमी और पालतू जानवरों को छोड़ने से जुड़े जोखिमों के बारे में चिंता जताई है।
 जुलाई 2022 में, जम्मू और कश्मीर उच्च न्यायालय ने केंद्र शासित प्रदेश में आवारा कुत्तों की आबादी और रेबीज विरोधी पहल के बारे में जानकारी मांगी।
 उसी वर्ष सितंबर में, शीर्ष न्यायालय ने मौखिक रूप से सुझाव दिया कि केरल सरकार को सार्वजनिक सुरक्षा और पशु अधिकारों दोनों को ध्यान में रखते हुए, आवारा कुत्तों के मुद्दे के समाधान के लिए एक संतुलित दृष्टिकोण खोजने का प्रयास करना चाहिए।  इसके बाद, केरल उच्च न्यायालय ने सरकारी अस्पतालों को कुत्ते के काटने के पीड़ितों को मुफ्त चिकित्सा उपचार और आवश्यक टीके प्रदान करने का निर्देश दिया, जब तक कि राज्य आवारा कुत्तों की बढ़ती समस्या से निपटने के लिए एक उचित तंत्र स्थापित नहीं कर लेता।
 अप्रैल 2023 में, बॉम्बे हाई कोर्ट ने मुंबई में एक आवासीय सोसायटी को उन सुरक्षा गार्डों के बारे में निवासियों की शिकायतों का समाधान करने का निर्देश दिया, जो जानवरों को डराने, धमकाने या नुकसान पहुंचाने के लिए लाठियों का इस्तेमाल करते हैं।
 नवंबर 2022 में, शीर्ष अदालत ने बॉम्बे हाई कोर्ट के उस आदेश पर असहमति व्यक्त की, जिसमें नागपुर में आवारा कुत्तों को खाना खिलाने वाले व्यक्तियों पर जुर्माना लगाया गया था।
*आदिपुरुष पर सेंसर बोर्ड को इलाहाबाद हाईकोर्ट ने लगाई फटकार, मनोज मुंतशिर को नोटिस जारी*
इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने बॉलिवुड मूवी ‘आदिपुरुष’ के संवाद लेखक मनोज मुंतशिर शुक्ला को फिल्म की स्क्रीनिंग पर रोक लगाने की मांग वाली याचिका में प्रतिवादी के रूप में शामिल करने के आवेदन को अनुमति दे दी। कोर्ट ने इस बावत मनोज मुंतशिर शुक्ला को भी नोटिस जारी कर दिया है। हाई कोर्ट ने केंद्र को भी नोटिस जारी किया है और पूछा है कि कि सिनेमैटोग्राफ एक्ट 1952 के तहत क्या कार्रवाई की जा सकती है। इससे पहले सोमवार को, इलाहाबाद उच्च न्यायालय की लखनऊ पीठ ने सेंसर बोर्ड और आदिपुरुष के निर्माताओं को कड़ी फटकार लगाई थी।
‘आदिपुरुष’ में कुछ विवादास्पद संवादों के बारे में एक याचिका पर सुनवाई के दौरान, अदालत ने पूछा, “सेंसर बोर्ड क्या करता रहता है? आप आने वाली पीढ़ियों को क्या सिखाना चाहते हैं?”
कोर्ट ने सुनवाई के दौरान निर्माता, निर्देशक और अन्य पक्षों की अनुपस्थिति पर भी सवाल उठाए थे।
ओम राउत द्वारा निर्देशित, ‘आदिपुरुष’, को  महाकाव्य रामायण का नाट्य रूपांतरण है बताया जाता है। इस फिल्म को रिलीज होने के बाद भारी आलोचना का सामना करना पड़ रहा है।
आलोचकों से लेकर समीक्षकों तक, कई लोगों ने फिल्म के कुछ संवादों पर संदेह व्यक्त किया। जिन डायलॉग्स को लेकर निर्माताओं की आलोचना हुई है उनमें ‘मरेगा बेटे’, ‘बुआ का बगीचा है क्या’ और ‘जलेगी तेरे बाप की’ शामिल हैं।
फिल्म में प्रभास भगवान राम, कृति सनोन देवी सीता, सनी सिंह लक्ष्मण और सैफ अली खान रावण की भूमिका में हैं। हालांकि ऐसा कहा जा रहा है कि सोशल मीडिया पर इस फिल्म को लेकर व्यक्त किए जा रहे आक्रोश नकारात्मक समीक्षाओं के बाद ‘आदिपुरुष’ के निर्माता -निर्देशकों ने  कुछ संवादों को बदल दिया है लेकिन लोगों का आक्रोश थमने का नाम नहीं ले रहा है।
*दृष्टिबाधित दिव्यांग की याचिका पर बॉम्बे हाईकोर्ट की महाराष्ट्र फिजियोथेरेपी परिषद को फटकार*
बॉम्बे हाई कोर्ट ने महाराष्ट्र राज्य व्यावसायिक थेरेपी और फिजियोथेरेपी परिषद को फटकार लगाते हुए कहा है कि हमारा सामूहिक प्रयास” उन लोगों की मदद करने के तरीके ढूंढना है जिन्हें सहायता की सबसे अधिक आवश्यकता है।  एक याचिका की सुनवाई करते हुए कोर्ट ने दृष्टिबाधित छात्र को फिजियोथेरेपी कोर्स करने की अनुमति देते हुए कहा कि एक समाज और राज्य सरकार के रूप में ऐसे लोगों की मदद करना है।
न्यायमूर्ति गौतम पटेल और न्यायमूर्ति नीला गोखले की खंडपीठ ने महाराष्ट्र राज्य व्यावसायिक थेरेपी और फिजियोथेरेपी परिषद को दिव्यांगों के लिए उसके रुख पर कड़ी फटकार लगाई। कोर्ट ने कहा कि जो छात्र आगे बढ़ना चाहते हैं उन्हें किसी भी हद तक आगे जाने की अनुमति दी जानी चाहिए।
अदालत ने यह आदेश में 40 प्रतिशत तक दृष्टिबाधित विकलांगता से पीड़ित छात्र ज़िल जैन द्वारा फिजियोथेरेपी पाठ्यक्रम में प्रवेश की मांग करने वाली याचिका को स्वीकार करते हुए दिया।
कोर्ट में  महाराष्ट्र राज्य व्यावसायिक थेरेपी और फिजियोथेरेपी परिषद ने जैन की याचिका का विरोध करते हुए कहा था कि फिजियोथेरेपिस्टों को ऑपरेशन थिएटरों, सर्जिकल इकाइयों और आईसीयू में भूमिका निभानी होती है और इसलिए फिजियोथेरेपी के अध्ययन या अभ्यास में किसी भी हद तक अंधेपन की अनुमति नहीं दी जा सकती है।
पीठ ने अपने आदेश में कहा कि ऐसे कई छात्र, वकील, सहायक और अन्य लोग हैं जो दृष्टिबाधित हैं और फिर भी भारत भर में कई अदालतों में सफलतापूर्वक काम कर रहे हैं। अदालत ने कहा, ‘हमें नियामक परिषद के इस दृष्टिकोण पर अपनी गहरी निराशा और नाराजगी व्यक्त करनी चाहिए। संवैधानिक अधिदेश बहिष्करण के और तरीके खोजने का नहीं है। यह बहुसंख्यकों को लाभ पहुंचाने के लिए नए तरीके खोजने के लिए नहीं है।’
अदालत ने यह भी  कहा एक समाज के रूप में हमारा सामूहिक प्रयास और विशेष रूप से राज्य सरकार को सहायता की सबसे अधिक आवश्यकता वाले लोगों की सहायता के तरीके खोजने का निरंतर प्रयास करना होगा; और यह कभी न कहें कि कुछ नहीं किया जा सकता।
पीठ ने कहा कि परिषद का रुख न केवल किसी भी न्यायिक, संवैधानिक या नैतिक विवेक के लिए अस्वीकार्य है, बल्कि स्पष्ट रूप से, संवैधानिक जनादेश और वैधानिक कर्तव्य के साथ विश्वासघात है।
इसलिए, यह हमें पूरी तरह से उल्लेखनीय लगता है कि संवैधानिक अदालत द्वारा स्पष्ट रूप से सही काम करने का अवसर दिए जाने के बावजूद परिषद को इतनी मजबूत चिकित्सा राय देनी चाहिए।”
कोर्ट ने कहा कि हमें यह गैर-जिम्मेदाराना और काफी हद तक निंदनीय लगता है, यहां तक कि यह सुझाव देना कि विकलांग लोग नैतिक और कानूनी जिम्मेदारी के मानकों को पूरा नहीं कर सकते हैं; या कि उनकी विकलांगता या हानि उन्हें इन आवश्यकताओं को पूरा करने में असमर्थ बनाती है, ”यह कहा।
पीठ ने कहा कि  परिषद की इस स्थिति को स्वीकार करना “क़ानून के विपरीत और न्याय की हर अवधारणा का उपहास होगा”।
अदालत ने कहा कि परिषद के पास अपने शिक्षा पाठ्यक्रम और नीतियों को विकलांग व्यक्तियों के अधिकार अधिनियम के अनुरूप लाने के अलावा कोई विकल्प नहीं था और यह परिषद की प्राथमिक जिम्मेदारी थी।
याचिकाकर्ता जिल जैन ने मार्च 2022 में अपनी एचएससी (कक्षा 12) पूरी की और अध्ययन करने और बाद में फिजियोथेरेपी का अभ्यास करने की इच्छा जताई थी।