लॉकडाउन में वैसे तो देश का प्रत्येक वर्ग प्रभावित रहा लेकिन सबसे ज्यादा बुरा प्रभाव प्रवासी मजदूरों पर पड़ा। उसके पश्चात एक अन्य बहुत बड़ा वर्ग जिस पर लॉकडाउन का सिर्फ दुष्प्रभाव ही नहीं पड़ा अपितु उनको हर प्रकार से सताया गया और शोषण किया गया। यह मदिरापान करने वाले लोगों का वर्ग है जिनकी कठिनाइयों और जिन पर हुई राज्यों की जास्तियों कि किसी ने भी चर्चा नहीं की क्योंकि भारत के अंदर सभी राजनीतिक दलों को इस वर्ग अर्थात मदिरा पीने वालों से कठिनाई रहती है। लगभग सभी दल व नेता इन्हें घृणा का पात्र समझते हैं। पिछले कुछ दिनों में मेरे से ऐसे कई लोगों ने चर्चा की और कहा कि सभी पीड़ित वर्गों के बारे में समाचार पत्रों में खबरें तथा लेख छपते हैं लेकिन मदिरा पीने वालों के साथ सरकार क्या दुर्व्यवहार करती है, उनका कैसे तिरस्कार करते हुए उन पर टैक्सों का बोझ लादती हैं, इस पर कभी किसी समाचार पत्र ने कुछ नहीं लिखा। इसी कारण से यह लेख आपके सामने प्रस्तुत है।
लॉकडाउन 3.0 में सभी राज्य सरकारों में मानो एक प्रकार से हौड़ लग गई कि कैसे शराब की बिक्री पर वैट टैक्स तथा एक्साइज ड्यूटी बढ़ाकर अपना घाटा पूरा किया जाए और अपने खाली हुए खजाने को भरा जाए। आंध्र प्रदेश ने शराब की बिक्री पर 75% अतिरिक्त और दिल्ली की केजरीवाल सरकार ने 70% कोरोना सेस अर्थात अतिरिक्त टैक्स लगा दिया। हरियाणा ने भी शराब की कीमतों को पिछले दो सालों में 25% बढ़ाया और अब इस पर और अधिक कोरोना टैक्स लगा दिया है। इस प्रकार के मनमाने ढंग से बढ़ाए गए टैक्स किसी भी प्रकार से औचित्य पूर्ण और न्याय संगत नहीं है। यह सब भारत में केंद्र व राज्य सरकारों की लूट मानसिकता का एक ज्वलंत उदाहरण है! ऐसी लूट मानसिकता किसी भी अन्य उदारवादी पश्चिमी लोकतांत्रिक देश में देखने को नहीं मिलती। ऐसा प्रतीत होता है कि भारत की केंद्रीय और राज्य सरकारें मदिरापान करने वाले व्यक्तियों को दूसरे दर्जे का नागरिक समझती हैं, उन्हें अपराधी और चरित्रहीन समझती हैं जबकि सभी मदिरापान करने वाले ऐसे नहीं होते। उनमें से केवल 10% ही शराब पीने के बाद गलत हरकत या दुर्व्यवहार करते हैं बाकी नहीं। मेरा भारत की सभी प्रकार की सरकारों से प्रश्न है कि क्या मदिरापान करने वाले भारत के नागरिक नहीं है? क्या वे मानवीय अधिकारों के पात्र नहीं है? क्या मदिरापान करने वाले उपभोक्ता नहीं है? क्या वे उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम के अंतर्गत बचाव के पात्र नहीं है? भारत में किसी भी वस्तु को खाने-पीने की स्वतंत्रता है। मदिरापान करने वालों को भी जीवन तथा स्वतंत्रता का मौलिक अधिकार मिला हुआ है यह बात अलग है कि मदिरापान करने वालों का कोई उपभोक्ता संगठन नहीं है जिसके माध्यम से वे अपना दबाव सरकार पर बना सकें। इसी कारण सरकारें उनके साथ मनमानी करती हैं। मेरा सुझाव है कि सभी राज्यों में मदिरापान करने वालों को अपना एक उपभोक्ता संगठन बनाना चाहिए जो सरकार की मनमानियों को रोक सके। इतने लंबे लॉक डाउन लगाने का निर्णय सरकार का था। फिर 40 दिन के बाद जब सरकार ने देखा कि इससे तो राजस्व का घाटा है, सरकार के खजाने खाली हो रहे हैं तो उन्होंने तीसरे लॉक डाउन में शराब के ठेकों को खोलने का निर्णय किया। दिल्ली तथा कई अन्य राज्यों में मदिरापान करने वाले सम्माननीय नागरिकों को लंबी-लंबी लाइनों में कई घंटे खड़े होना पड़ा, पुलिस के डंडे खाने पड़े और ऊंची कीमत पर अपने पसंद का पेय पदार्थ प्राप्त करना पड़ा। वोटरों की ऐसी दुर्दशा भारत जैसे लोकतंत्र में ही संभव है! 40 दिन के पहले दो लॉकडाउन में शराब के ठेकों को पूर्णतया बंद करना सरकार का बिल्कुल गलत निर्णय था। इन्हें रोज कुछ घंटे खोलने की अनुमति होनी चाहिए थी। अब सरकार अपने इस गलत निर्णय के लिए, अपने घाटे पूरे करने के लिए मदिरापान करने वालों को बलि का बकरा बना रही है। एक तरफ तो सरकार लॉकडाउन के कारण विभिन्न वर्गो पर पड़े दुष्परिणामों को दूर करने के लिए राहत पैकेज की घोषणा कर रही है जैसे कि उद्योगपतियों के लिए, प्रवासी श्रमिकों के लिए, किसानों के लिए, छोटे व्यापारियों के लिए, वहीं दूसरी और वह मदिरापान करने वालों को राहत देने की बजाय उनको लूटने पर लगी है। यह कहां का न्याय है? क्या मदिरापान करने वालों को जीवन और स्वतंत्रता का मौलिक अधिकार नहीं है? क्या वे अपनी मर्जी से कुछ खा पी नहीं सकते? सरकारों द्वारा मदिरा के ऊपर मनमाना टैक्स और कोरोना सेस लगाना शराबी नागरिकों के ऊपर जजिÞया लगाने के समान है! इतिहास में भारत में कुतुबुद्दीन ऐबक मुस्लिम शासक द्वारा गैर मुस्लिम जनता पर उन्हें सुरक्षा देने के लिए टैक्स लगाया जाता था जिसे जजिÞया कहा जाता था। सोहलवीं शताब्दी में मुगल बादशाह अकबर ने जजिÞया को समाप्त कर दिया था। आजकल भी आपने आप को शुद्ध, नैतिकवादी और उचित मानने वाले शासकों द्वारा मदिरा पीने वाले अशुद्ध, अनैतिक तथा बिगड़े हुए नागरिकों पर लगाया जाने वाला अमानवीय तथा अतार्किक टैक्स जजिÞया के समान ही है। सरकारों का मानना है क्योंकि आप शराब पीते हो इसलिए आप सामान्य नागरिक नहीं हो ना ही मानवीय अधिकारों के हकदार हो ना ही आपके लिए कोई राहत या पैकेज है, आप तो बस अपने खाने-पीने की स्वतंत्रता के लिए सरकार को जजिÞया भुगतान करते रहो। सरकारों की ऐसी सोच सत्तावादी तथा अतिवादी है। अल्कोहल एक आनंद तथा खुशी देने वाली दवा एथेनॉल से बनती है। इसका उपयोग दुनिया के अधिकांश देशों में कानूनी तौर पर मान्य है। अल्कोहल का सेवन सामाजिक संबंधों तथा उत्सवों, पारिवारिक आयोजनों में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करता है। भारत में भी इसके सेवन की परंपरा बहुत पुरानी है। कई पौराणिक ग्रंथों तथा धार्मिक कथाओं में देवताओं द्वारा सोमरस पीने की बात सबको मालूम है। दुनिया की कुल आबादी का 33% एल्कोहलिक पेय पदार्थों का सेवन करता है। भारत में भी लगभग 50% पुरुष और 20% स्त्रियों की आबादी भी इसका आनंद लेते हैं। पिछले दो दशकों में भारत में मदिरा पीने वालों की संख्या में बहुत अधिक वृद्धि हुई है।
डॉ. विनय कुमार मल्होत्रा
( लेखक भूतपूर्व कॉलेज प्राचार्य तथा कई पुस्तकों के लेखक हैं। यह उनके निजी विचार हैं।)