शराब ब्रिकी को लेकर बहस छिड गई। सवाल एकदम सीधा है शराब की ब्रिकी जब हुकूमतों के लिए राजस्व का बड़ा स्रोत है तो भला वह नुकसान क्यों झेंले? शराब ब्रिकी के इतिहास में पहली दफा ऐसा हुआ है जब मात्र एक दिन में शराब ब्रिकी की कमाई से सरकारी खजानों में करोड़ों रूपयों का राजस्व जुड़ा हो। दूसरे चरण के लाॅकडाउन की अवधि जैसे ही तीन मई को खत्म हुई और तीसरे लाॅकडाउन की सुबह यानी चार मई की शुरूआत हुई, शराब की ब्रिकी ने पूर्व के सभी रिकाॅर्ड तोड़ डाले। इतनी शराब आज से पहले कभी नहीं बिकी। सिर्फ उत्तर प्रदेश में ही तीन सौ करोड़ की शराब बिकी हुई,राजधानी दिल्ली जैसे छोटे केंद्र शासित राज्य में ही सवा करोड़ रूपए की शराब बिक गई। अन्य राज्यों में भी यही हाल रहा। दिल्ली की डीएसआईसी और अन्य प्रदेशों की आबकारी विभाग ने जो आंकड़े पेश किए हैं, उससे अनुमान लगा सकते हंै कि लाॅकडाउन के दौरान दारू के शौकीन कितने उकता गए थे। शराब के बिना उनका बमुस्किल वक्त कट रहा था। तभी चार मई को सुबह शराब की दुकाने खुलने से पहले ही लोग कतारों में खड़े हो गए थे। दारू की खरददारी मेें लोग लाॅक डाउन और सोशल डिस्टेंसिंग आदि नियम तक भूल गए, लागू सभी नियमों की धज्जियां उड़ गई। पुलिस पहरेदारी के बावजूद भी शौकीनों ने धक्का-मुक्की की, दुकानों पर गिद्व की भांती टूट पड़े।
शराब सरकारों की जरूरत है या लोगों की? इसकी थ्योरी को जग समझ चुका है। सरकारें शराब बेचे तब भी दिक्कत और न बेचे तब और ज्यादा दिक्कत। शराब अब दोनों की समानरूप रूरत बन गई है। वैसे, केंद्र सरकार हो या राज्य की हुकूमतें शराब ब्रिकी उनके लिए राजस्व अर्जित करने का बड़ा स्रोत हमेशा से रही है। जाहिर है, शराब बंद करके सरकारें नुकसान नहीं झेलेंगी। फिर इस बात की परवाह भी कतई नहीं की जा सकती कि कोरोनाकाल में समूचे देश में जनमानस की सुरक्षा को ध्यान में रखकर लगाए गए लाॅकडाउन का परिणाम अच्छा आए या बुरा? राजस्व की भरपाई अगर शराब बेचने से होती है तो शराब से पाबंदी हटाना ही बेहतर? सरकारों की कमाई के दो ऐसे क्षेत्र हैं जिनमें वह रिस्क नहीं ले सकतीं। अव्वल, शराब की ब्रिकी, दूसरा पेट्रो पदार्थों से होने वाली आमदनी। पेट्रोल के प्रति लीटर पर निर्धारति कीमत की आधी रकम सरकारी खाते में वैट के रूप में जाती है। इसलिए बड़ा असंभव सा लगता है इतना बड़ा नुकसान झेलना?
बहरहाल, नुकसान का एक पूर्ववर्ती उदाहरण सरकारों के पास है। सन् 1996 में हरियाणा में बंसीलाल सरकार ने पूरे प्रदेश में शराबबंदी की थी, जिसका हश्र क्या हुआ, शायद बताने की जरूरत नहीं? फैसले के बाद उनको अपनी सरकार बचानी तक भारी पड़ गई। हंगामा इस कदर कटा जिससे बंदी के आदेश कुछ माह के भीतर ही वापस लेने पड़े। इसी दरमियान सरकार का राजस्व घाटे में चला गया है। वैसे देखा जाए तो बंदिशों के बाद भी शराब की तस्करी होती है। कुलमिलाकर शराबतंत्र का जाल बड़े स्तर पर फैल चुका है। कितनी भी बंदी क्यों न हो, शराब के तलबगार अपना रास्ता खोज ही लेते हैं। शराब की ब्रिकी सरकारों के लिए कितनी अहम है ये सभी जानते हैं। पर, शराब आमजन के लिए अहम और महत्वपूर्ण है इसकी तस्वीर चार मई को समूचे हिंदुस्तान ने उस वक्त देखी जब सरकार ने शराब की दुकानों को खोलने के आदेश दिए।
कोरोना संकट में केंद्र सरकार द्वारा फ्री का राशन भी बांटा जा रहा है उसमें लोग ज्यादा दिलचस्पी नहीं दिखा रहे। लेकिन दारू के लिए तपती दोपहरी में लंबी-लंबी लाइनों में खुशी-खुशी खडे़ देखे गए। इन लाइनों में वह लोग भी थे जो नोटबंदी में बैंकों की लाइनों में खड़ा होने को लज्जित महसूस करते थे, लेकिन गले को तर करने वाली अमृतरूपी दारू के लिए सीना चैड़े कर कतारों में खड़े थे। दरअसल, इसमें दोष किसे दिया जाए, समझ में नहीं आता। मुल्क की बड़ी तादात सरकार से शराब की दुकानों को खोलने की डिमांड करती है। चालीस दिन के बाद जब शराब की दुकाने खुली तो देखकर ऐसा प्रतीत हुआ कि हिंदुस्तान में दुध पीने वालों से कहीं ज्यादा तो पियक्कड हैं।
दिल्ली में शराब की कीमतों में सत्तर फीसदी इजाफा किया गया है। शराब के शौकीनों को किसी भी कीमत पर शराब क्यों न मिले, उसे खरीदेंगे। शराब के तलबगार इसे किसी भी कीमत पर हासिल करने को आतूर होंगे। हालांकि दिल्ली सरकार ने अभी ये स्पष्ट नहीं है कि यह वृद्वि पूर्णकालिक है या आंशिक। अगर बढ़े रेट हमेशा के लिए हैं तो सरकार के रेवेन्यू में बड़ी वृद्वि होगी। शराबबंदी पर पहले भी कुछ राज्यों ने फैसले लिए थे जो अधिकतर असफल हुए। हरियाणा, आंध्रप्रदेश, तमिलनाडु, महाराष्ट्र, व मिजोरम में शराबबंदी के प्रयास विफल हुए थे। हालांकि अभी गुजरात, मणिपुर, नागालैंड व लक्षद्वीप में शराबबंदी लागू है। दरअसल शराबबंदी के बाद एक समानांतर तंत्र ऐसा विकसित हो जाता है जो शराब की आपूर्ति पर कब्जा कर लेता है। इससे शराबबंदी का सामाजिक लक्ष्य भी पूरा नहीं होता और सरकार को आय भी नहीं मिलती। इससे तो बेहतर है सरकार ही अधिकृत रूप से शराब बेचे।
एक सच्चाई यह भी है कि शराब भले ही आय का बड़ा स्रोत हो मगर यदि इसके सामाजिक दुष्परिणामों का अध्ययन किया जाए तो पता चलेगा कि देश-राज्य उसकी कितनी बड़ी कीमत चुकाता है। उससे होने वाली भयानक बीमारियों पर सरकार को उपचार के रूप में ज्यादा खर्च करना पड़ता है। सही भी है कि ऐसे कर्णफूल का क्या जो कानों को ही क्षति पहुंचाए? ऐसे तमाम आकंड़े उपलब्ध हैं कि पारिवारिक कलह के अलावा गंभीर अपराधों व सड़क दुर्घटनाओं की बड़ी वजह शराब ही रही है। इधर परंपरागत नशे के साधनों पर पाबंदी व अस्वीकार्यता के चलते शराब का प्रचलन पूरे देश में तेजी से बढ़ा है। जिसके घातक परिणामों का दंश समाज झेल रहा है।
-डाॅ0 रमेश ठाकुर