एडाल्फ हिटलर के प्रचार मंत्री जोसेफ़ गोयबल्स ने कहा था कि किसी झूठ को इतनी बार बोलो कि वह सच बन जाये। सभी उसी पर यक़ीन करने लगें। नाजियों के ऐसे ही झूठ ने हिटलर को जर्मनी का चांसलर बनाया था। उस झूठ ने न सिर्फ जर्मनी को बरबाद किया बल्कि विश्व और मानवता को भी भारी नुकसान पहुंचाया था। काफी समय से हमारे यहां भी यही हो रहा है। इस वक्त पांच राज्यों में चुनाव की प्रक्रिया चल रही है। लोकतंत्र की बारीकी के बीच झूठ को सच का लिबास पहनाकर परोसा जा रहा है, जिससे सजग मतदाता भी भ्रमित हो रहा है। जाने अनजाने इस सियासी खेल में हम भी शामिल हो जाते हैं। भारतीय मीडिया की सत्ता चारण की नीति से पूरा विश्व वाकिफ हो चुका है। कभी देश और देशवासियों के हक के लिए लड़ने वाला मीडिया, अब झूठ की मशीन की तरह दिखता है। न्यूज रूम और संपादकीय से बाहर, जब आमजन आपस में चर्चा करते हैं, तो जिन शब्दों से मीडिया को नवाजा जाता है, वह हमारे लिए शर्मसार करने वाला है। बहराल, हमें इस पर आश्चर्य नहीं होता, क्योंकि देश की आजादी के आंदोलन के वक्त भी 95 फीसदी भीड़ घरों में दुबकी हुई थी। आंदोलन में चंद लोग ही लड़ रहे थे।
देश बेहद कठिन दौर से गुजर रहा है। हमारी अर्थव्यवस्था और रोजगार को लेकर वैश्विक आंकड़े सभी के लिए डरावने हैं। बावजूद इसके, हम रोजाना संकट झेलने के बाद भी सच को नहीं समझ पा रहे हैं, क्योंकि हमारे दिमाग को दूसरे झूठ में फंसा दिया जाता है। वैज्ञानिक प्रयोगों से भी यह बात साबित हुई है कि अगर झूठ को बार-बार बोला जाए, तो वह सच लगने लगता है। विज्ञापन वालों से लेकर राजनेता तक सभी, इंसान की इस कमज़ोरी का फ़ायदा उठाते हैं। यह बात सत्ता को समझ आ गई है। इसलिए वह काम से अधिक प्रचार पर यकीन करते हैं। विकास के झूठे मॉडल प्रस्तुत करके उनका इस तरह प्रपोगंडा किया जाता है, कि वही आदर्श प्रतीत होता है। खलनायक को भी नायक बना दिया जाता है। संगठित तरीके से होने वाले इस खेल में भोले-भाले नागरिकों से लेकर आधे अधूरे ज्ञान वालों को अपने प्रचार तंत्र का हिस्सा बनाया जाता है। नतीजतन योग्य व्यक्ति मूर्ख लगने लगता है और अयोग्य व्यक्ति चिल्ला चिल्लाकर खुद को योग्य साबित कर देता है। इस झूठ को यकीनी बनाने के लिए धर्म-जाति, लिंग और क्षेत्र के विभेद को हथियार बनाया जाता है। देश के शीर्ष पदों पर बैठे लोग भी इतनी सहजता से अपनी क्षवि को बनाने के लिए झूठ बोलते हैं कि आमजन उसकी बहस मे ही उलझकर रह जाता है।
भारत देश के राष्ट्रीय चिन्ह में “सत्यमेव जयते”, अंकित है। हमारे यहां कहा जाता है कि सत्य परेशान हो सकता है, पराजित नहीं। शायद यही सच भी है। कुछ देर से ही सही लोग सच को धीरे-धीरे पहचानने लगे हैं। यह भी सत्य है कि वो जब तक इसे पहचानेंगे, जर्मनी की तरह हमारा देश भी बरबादी के कीचड़ में होगा। इन चुनावों में राजनीतिक सत्ता के विस्तार के लिए तमाम दावे और वादे किये जा रहे हैं, जबकि लोग इनके दावे और वादों का झूठ कई बार पकड़ चुके हैं। युवाओं को अपने सुनहरे भविष्य की उम्मीद नजर आती है मगर आंकड़े बताते हैं कि उनका जीवन अंधकार में समाता जा रहा है। कुछ कारपोरेट घरानों को छोड़कर अधिकतर व्यापार-व्यवसाय बुरे हाल में हैं। संयुक्त राष्ट्र आर्थिक और सामाजिक आयोग (यूएनईएससीएपी) ने मंगलवार को जारी अपनी रिपोर्ट में कहा है कि कोविड-19 महामारी से पहले ही भारत की जीडीपी और निवेश नीचे जा रहा था। 2021-22 में देश की आर्थिक वृद्धि दर के सात फीसद रहने का अनुमान है मगर कोविड की दूसरी लहर और आर्थिक नीतियों के कारण अर्थव्यवस्था नकारात्मक रह सकती है। प्रति व्यक्ति आय में भारत की दशा काफी खराब हुई है, जबकि कुछ पूंजीपतियों की कमाई, उम्मीद से अधिक बढ़ी है। इन सब के पीछे जो वजह हैं, उनसे देश के नागरिक वाकिफ हो रहे हैं, मगर झूठ और प्रपोगंडा के सहारे गलत आंकड़ों से सत्ता का महिमामंडन किया जा रहा है, जो बेहद खतरनाक है।
पांच विधानसभाओं के लिए चल रहे चुनाव में झूठ का प्रचार सबसे बड़ा हथियार है। देश को सांप्रदायिक रूप से जोड़ने की जिम्मेदारी वाले राजनीतिक दल खुलकर हिंदू-मुस्लिम का खेल कर रहे हैं। हमें सिखाया जाता था “हिंदू-मुस्लिम-सिख-ईसाई आपस में हैं सब भाई भाई”। अब हमें इनके बीच विभेद सिखाये जा रहे हैं। तमाम वरिष्ठ पदों पर रहे लोगों से लेकर मौजूदा तक, आपस में नफरत पैदा करने वाला झूठा इतिहास सत्य के लबादे के साथ प्रस्तुत कर रहे हैं। चुनाव जीतने का एक ब्रह्मास्त्र बन गया है। वजह, हम झूठ और सच के बीच का अंतर नही खोज पा रहे हैं। हमारी शिक्षा व्यवस्था भी सत्य पर आधारित ज्ञान के बजाय गढ़े जा रहे ज्ञान को बढ़ावा देने लगी है। इसका नतीजा यह है कि वैश्विक पटल पर हमारे देश की खिल्ली उड़ रही है। हम हर मोर्चे पर लगातार पिछड़ते जा रहे हैं। देश का किसान सड़कों पर है। हक की लड़ाई में 300 किसान शहीद हो चुके हैं, मगर किसी को सुध नहीं है। 40 करोड़ बेरोजगारों की फौज हमारी व्यवस्था को चुनौती दे रही है। बेटियां न सुरक्षित हो पा रही हैं और न ही निर्भीक होकर पढ़ पा रही हैं। हर 8 मिनट में एक बेटी यौन हिंसा का शिकार हो रही है। आमदनी कम हो रही है और महंगाई बेतहासा बढ़ रही है। जरूरतमंदों को सरकारी मदद नहीं मिल पा रही है जबकि चुनावी फायदे के लिए रुपये पानी की तरह बहाये जा रहे हैं। स्वच्छता के नाम पर जनता को लूटा जा रहा है। शिक्षा लगातार महंगी होती जा रही है। हमारे लोग विश्व में सबसे अधिक टैक्स सरकार को देते हैं। आत्महत्या का आंकड़ा दिन प्रतिदिन बढ़ रहा है। मानसिक रूप से तंग सांसद तक आत्महत्या कर रहे हैं मगर सरकार की नजर में सब चंगा सी।
यही झूठ हमें गलत राह पर ले जाता है। स्वार्थी होकर हम भी उसी को गुनगुनाने लगते हैं। भारतीय प्राचीन ग्रंथ झूठ को सबसे बड़ा अपराध मानते हैं। झूठ बोलने के कारण ही ब्रम्हा जी का पूजन नहीं किया जाता है। हमें समझना चाहिए कि सत्य का स्थान सर्वोपरि होता है। हम अगर सच और झूठ का फ़र्क़ किए बिना सिर्फ़ स्वार्थ में कोई झूठ बार-बार दोहराते हैं, तो यह इंसानियत के लिए कलंक है। ऐसा करके हम वह दुनिया बनाते हैं, जहां झूठ और सच का अंतर ही मिट जाता है। गुमराह लोग अपराध करेंगे। ज़रूरी है कि हम किसी भी बात पर यक़ीन करने के पहले, उसे हर कसौटी पर जांच-परख लें। जब हम ऐसा करने लगेंगे, तो झूठे और प्रपोगंडा करने वाले हमारा दुरुपयोग करके बेजा लाभ नहीं उठा पाएंगे बल्कि हमको सही लाभ में हिस्सा भी मिलेगा।
जय हिंद!
(लेखक प्रधान संपादक हैं।)