Legally News : मतदान के दौरान पेपर ऑडिट ट्रेल शुरू करने के लिए सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर, मत सही प्रत्याशी को गया यह जानना मौलिक अधिकार

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आज समाज डिजिटल ,दिल्ली:

1.मतदान के दौरान पेपर ऑडिट ट्रेल शुरू करने के लिए सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर, मत सही प्रत्याशी को गया यह जानना मौलिक अधिकार

एनजीओ एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स ने सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका दायर की है, जिसमें भारत के चुनाव आयोग को इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीनों में मतदाता सत्यापन योग्य पेपर ऑडिट ट्रेल शुरू करने का निर्देश देने की मांग की गई है।

याचिका में 2013 के सुप्रीम कोर्ट के एक फैसले का हवाला दिया गया है, जिसमें कहा गया था कि स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव के लिए पेपर ट्रेल एक  आवश्यकता थी।

याचिका में तर्क दिया गया है कि प्रत्येक मतदाता को यह सत्यापित करने में सक्षम होना चाहिए कि उनका वोट डाले गए के रूप में दर्ज किया गया है और दर्ज के रूप में गिना गया है।

याचिका के अनुसार, वर्तमान प्रक्रिया, जो केवल सभी ईवीएम में इलेक्ट्रॉनिक रूप से रिकॉर्ड किए गए वोटों की गिनती करती है और वीवीपीएटी के साथ प्रासंगिक ईवीएम को केवल 5 चयनित मतदान केंद्रों में सत्यापित करती है कि मतदान त्रुटिपूर्ण था या सहीथा।

एनजीओ डेमोटिक रिफार्म्स ने कहा है कि यह सत्यापित करना प्रत्येक मतदाता का मौलिक अधिकार है कि उसका वोट दर्ज किया गया है और सही ढंग से गिना गया है। एनजीओ ने इसी मांग को लेकर सुप्रीम कोर्ट से गुहार लगाई है।

2.पीजी में रहने वाली कामकाजी मां बच्चे की देखभाल नहीं कर सकती, मुंबई ने मां को बच्चे की कस्टडी देने से किया इंकार

मुंबई की एक अदालत ने हाल ही में एक 8 वर्षीय बच्चे की मां को कस्टडी देने से इस आधार पर इनकार कर दिया कि वह खुद एक पेइंग गेस्ट के रूप में रह रही है इसलिए बच्चे की देखभाल करने की स्थिति में ठीक से नहीं कर पाएगी।

मामले की सुनवाई करते हुए सत्र न्यायाधीश एसएन साल्वे ने यह भी कहा कि पिता संयुक्त परिवार में रह रहे थे। संयुक्त परिवार में बच्चे की देखभाल ठीक ढंग से हो सकती है।

जज ने तर्क दिया, “अपीलकर्ता मां एक कामकाजी महिला है, पिता भी एक कामकाजी व्यक्ति है लेकिन संयुक्त परिवार में रह रहा है जबकि मां पेइंग गेस्ट के रूप में रह रही है। मां काम पर जाएगी तो बच्चे की देखभाल कौन करेगा।”

मेट्रोपॉलिटन मजिस्ट्रेट द्वारा घरेलू हिंसा से महिलाओं के संरक्षण अधिनियम के तहत दायर उसके आवेदन पर फैसला करते समय उसकी अंतरिम हिरासत देने से इनकार करने के बाद मां ने सत्र अदालत का दरवाजा खटखटाया था।

महिला ने दावा किया था कि जब उसने 2010 में शादी की थी, तब चीजें ठीक चल रही थीं। लेकिन जैसे-जैसे समय बीतता गया, उसके पति के परिवार का उसके प्रति व्यवहार बदल गया।

महिला ने अपनी शिकायत में कहा कि 2019 में ससुराल वाले उसके बच्चे को उठा ले गए और उसे घर से निकल जाने को कहा।

सेशन कोर्ट में महिला की अपील में कहा गया है कि मजिस्ट्रेट ने मां को बच्चे की कस्टडी से इनकार करते हुए यह मानने में विफल रहे कि बच्चे की उम्र 5 साल से कम थी।

सत्र न्यायाधीश ने महिला द्वारा लगाए गए घरेलू हिंसा के आरोपों के जवाब में पिता द्वारा दायर हलफनामे पर ध्यान दिया।

सत्र न्यायाधीश ने मजिस्ट्रेट के आदेश को बरकरार रखते हुए कहा कि आरोपों पर विचार करते हुए मेट्रोपोलिटन मजिस्ट्रेट ने ठीक ही कहा कि इस स्तर पर बेटी की कस्टडी महिला को सौंपना न्यायोचित और उचित नहीं होगा।

3. 14 से 20 साल सजा काट चुके कैदियों की रिहाई क्यों न की जाए,  याचिका पर सुप्रीम कोर्ट ने दिल्ली सरकार से मांगा जवाब

सुप्रीम कोर्ट ने 13 उम्रकैदियों की समय पूर्व रिहाई की याचिका पर दिल्ली सरकार को नोटिस जारी कर जवाब मांगा है। इसके साथ ही कोर्ट ने कोरोना के दौरान जमानत और पैरोल पर बाहर आ चुके याचिकाकर्ता उम्रकैदियों को अगले आदेश तक समर्पण से छूट भी दे दी है।

हालांकि, इनमें से 12 उम्रकैदी वापस समर्पण कर चुके हैं और अब इन कैदियों की ओर से सुप्रीम कोर्ट में अंतरिम जमानत अर्जी दी गई है जिस पर कोर्ट सोमवार को सुनवाई करेगा।

उम्रकैद की सजा पाए और 14 से लेकर 20 वर्ष तक का कारावास भुगत चुके 13 उम्रकैदियों कुलदीप , राजीव, संदीप, प्रमोद गोस्वामी, किशन, छत्तर सिंह, राम सिंह, विजय पाल, मौइनुद्दीन, मोहम्मद अहद, सुरेन्दर कुमार, प्रकाश और मोती उर्फ मोहित ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दाखिल कर दिल्ली की 16 जुलाई 2004 की समय पूर्व रिहाई नीति के मुताबिक समय पूर्व रिहाई दिये जाने की मांग की है।

उम्रकैदियों के वकील ऋषि मल्होत्रा ने समय पूर्व रिहाई की मांग करते हुए कहा कि याचिकाकर्ता 14 से लेकर 20 वर्ष का कारावास भुगत चुके हैं और दिल्ली के उपराज्यपाल द्वारा मंजूर 16 जुलाई, 2004 की समय पूर्व रिहाई नीति के मुताबिक रिहाई की पात्रता रखते है, लेकिन उनकी समय पूर्व रिहाई अर्जी पर विचार नहीं हो रहा और वे लगातार जेल भुगत रहे हैं।

मल्होत्रा ने कहा कि दिल्ली में सेंटेंस रिव्यू बोर्ड (एसआरबी) मामले को जघन्य कह कर समय पूर्व रिहाई की अर्जी खारिज कर देता है, लेकिन हत्या का तो हर मामला ही जघन्य कहा जाएगा। कुछ मामलों में तो बोर्ड ने अर्जी पर विचार ही नहीं किया है।

कोर्ट ने दलीलें सुनने के बाद याचिका पर दिल्ली सरकार को नोटिस जारी किया। इसके बाद मल्होत्रा ने कहा कि याचिकाकर्ता कोरोना के दौरान कोर्ट के आदेश पर जमानत और पैरोल पर बाहर आ गए थे। अभी हाल ही में सुप्रीम कोर्ट की एक अन्य बेंच ने उस दौरान जमानत या पैरोल पर बाहर आये सभी कैदियों को समर्पण कर वापस जेल जाने का आदेश दिया है, ऐसे में कोर्ट उन याचिकाकर्ताओं को समर्पण करने से अंतरिम राहत दे दी जिन्होंने अभी तक समर्पण नहीं किया है और कहा है जिन्होंने समर्पण कर दिया है उन्हें भी अंतरिम जमानत दे दी जाए।

4.अरविंद केजरीवाल की और बढ़ीं मुश्किलें, अब अहमदाबाद कोर्ट ने जारी किया समन, जाने क्यों

अहमदाबाद की अदालत ने दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल और आम आदमी पार्टी के राज्यसभा सदस्य संजय सिंह को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की शैक्षणिक डिग्री को लेकर गुजरात विश्वविद्यालय के खिलाफ उनके कथित व्यंग्यात्मक और अपमानजनक बयानों के लिए आपराधिक मानहानि की शिकायत में समन जारी किया है।

अतिरिक्त मुख्य मेट्रोपोलिटन मजिस्ट्रेट जयेशभाई चोवाटिया की अदालत ने शनिवार को आप के दोनों नेताओं को 23 मई को तलब किया, यह देखने के बाद कि प्रथम दृष्टया उनके खिलाफ भारतीय दंड संहिता की धारा 500 (मानहानि) के तहत गुजरात विश्वविद्यालय की एक शिकायत पर मामला प्रतीत होता है। रजिस्ट्रार पीयूष पटेल

अदालत ने मामले के वाद शीर्षक में केजरीवाल के नाम से ‘मुख्यमंत्री’ हटाने का भी आदेश दिया, यह कहते हुए कि बयान उन्होंने अपनी व्यक्तिगत क्षमता में दिए थे। केजरीवाल और सिंह ने यह टिप्पणी गुजरात उच्च न्यायालय द्वारा मुख्य सूचना आयुक्त के उस आदेश को रद्द करने के आदेश के बाद की थी, जिसमें गुजरात विश्वविद्यालय (जीयू) को पीएम मोदी की डिग्री के बारे में जानकारी प्रदान करने के लिए कहा गया था।

शिकायतकर्ता के अनुसार, उन्होंने मोदी की डिग्री को लेकर विश्वविद्यालय को निशाना बनाते हुए प्रेस कॉन्फ्रेंस और ट्विटर हैंडल पर “अपमानजनक” बयान दिए।

उन्होंने कहा कि गुजरात विश्वविद्यालय को निशाना बनाने वाली उनकी टिप्पणियां मानहानिकारक हैं और संस्थान की प्रतिष्ठा को ठेस पहुंचाती हैं जिसने जनता के बीच अपना नाम स्थापित किया है।

गुजरात विश्वविद्यालय की स्थापना 70 साल से भी पहले हुई थी। शिकायतकर्ता के वकील अमित नायर ने तर्क दिया कि यह लोगों के बीच प्रतिष्ठित है और आरोपी के बयान से विश्वविद्यालय के बारे में अविश्वास पैदा होगा। शिकायतकर्ता ने आरोप लगाया कि बयान विश्वविद्यालय के प्रति मानहानिकारक थे क्योंकि वे व्यंग्यात्मक थे और जानबूझकर विश्वविद्यालय की प्रतिष्ठा को चोट पहुँचाने के इरादे से थे। उन्होंने कहा कि उन्हें मीडिया और ट्विटर हैंडल पर इसी इरादे से साझा किया गया था।

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