Legal News 30 June 2023 : घर में वकीलों के चैम्बर व्यावसायिक प्रतिष्ठान नहीं, DMC टैक्स नहीं लगा सकती

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Legal News 30 June 2023
Legal News 30 June 2023
Aaj Samaj (आज समाज), Legal News 30 June 2023, नई दिल्ली :

1: *घर में वकीलों के चैम्बर व्यावसायिक प्रतिष्ठान नहीं, DMC टैक्स नहीं लगा सकती*
दिल्ली हाईकोर्ट ने कहा कि वकीलों की व्यावसायिक गतिविधियों को व्यावसायिक गतिविधि नहीं माना जाना चाहिए और इसलिए, वे ‘व्यावसायिक भवनों’ के दायरे में नहीं आते हैं। न्यायमूर्ति नजमी वजीरी और न्यायमूर्ति सुधीर कुमार जैन की खंडपीठ ने एकल न्यायाधीश के फैसले के खिलाफ दक्षिण दिल्ली नगर निगम द्वारा दायर अपील पर सुनवाई करते हुए यह निर्णय लिया। एकल न्यायाधीश ने पहले फैसला सुनाया था कि अधिवक्ताओं द्वारा प्रदान की गई सेवाएँ पेशेवर गतिविधियाँ हैं और परिणामस्वरूप, उन्हें व्यावसायिक प्रतिष्ठानों के रूप में वर्गीकृत नहीं किया जाना चाहिए या टैक्स नहीं लगाया जाना चाहिए।
दरअसल, 2013 में जब एसडीएमसी ने एक वकील से संपत्ति कर की मांग करते हुए एक नोटिस जारी किया, जो अपने आवासीय परिसर के एक हिस्से के भीतर अपना कार्यालय संचालित करता था। वकील ने दिल्ली हाईकोर्ट में याचिका दाखिल की। उसकी याचिका पर एकल न्यायाधीश ने एसडीएमसी की कार्रवाई के खिलाफ वकील के पक्ष में फैसला सुनाते हुए इस बात पर जोर दिया कि आवासीय पते पर वकील के कार्यालय की उपस्थिति या आधिकारिक कार्य का प्रदर्शन परिसर को व्यावसायिक प्रतिष्ठान में नहीं बदल देता है।
एसडीएमसी ने तर्क दिया कि उसके पास अपने अधिकार क्षेत्र के भीतर सभी इमारतों और भूमि पर संपत्ति कर लगाने का अधिकार है, जिसमें व्यावसायिक उद्देश्यों या पुस्तकों, खातों और रिकॉर्ड को बनाए रखने के लिए उपयोग की जाने वाली भूमि भी शामिल है। उन्होंने तर्क दिया कि वकीलों की गतिविधियाँ वाणिज्यिक और गैर-घरेलू प्रयासों का गठन करती हैं, जो उन्हें कराधान के लिए उत्तरदायी बनाती हैं। एसडीएमसी ने आगे कहा कि आवासीय भवनों में पेशेवर गतिविधि की अनुमति दिल्ली के मास्टर प्लान के अनुसार नहीं दी जा सकती।
हालाँकि, वकील ने एसडीएमसी के दावों का खंडन करते हुए कहा कि कर लगाने की शक्ति को संबंधित कानून में स्पष्ट रूप से बताया जाना चाहिए। डीएमसी अधिनियम, एसडीएमसी को आवासीय भवनों के भीतर की जाने वाली व्यावसायिक गतिविधियों पर कर लगाने का अधिकार नहीं देता है।
एकल न्यायाधीश के फैसले की पुष्टि करते हुए, खंडपीठ ने सहमति व्यक्त की कि “वकीलों की व्यावसायिक गतिविधियाँ व्यावसायिक प्रतिष्ठानों या व्यावसायिक गतिविधियों के दायरे में नहीं आती हैं, यह स्पष्ट करते हुए कि कानून फर्म व्यावसायिक प्रतिष्ठान नहीं हैं”।
अदालत ने सखाराम नारायण खेरडेकर बनाम सिटी ऑफ नागपुर कॉर्पोरेशन एंड अन्य में बॉम्बे हाई कोर्ट के फैसले का हवाला दिया, जिसमें निष्कर्ष निकाला गया था कि कानून का अभ्यास प्रासंगिक कानून के तहत “व्यवसाय” या “व्यावसायिक प्रतिष्ठान” के रूप में योग्य नहीं है।
पीठ ने वी. शशिधरन बनाम मैसर्स मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले का भी हवाला दिया। पीटर और करुणाकर और अन्य ने पुष्टि की कि वकीलों की व्यावसायिक गतिविधियों को व्यावसायिक प्रतिष्ठान नहीं माना जाता है।
अदालत ने इस बात पर जोर दिया कि कराधान की शक्तियां स्पष्ट रूप से क़ानून द्वारा प्रदान की जानी चाहिए और इसका अनुमान नहीं लगाया जा सकता है। नतीजतन, एसडीएमसी द्वारा दिया गया तर्क, जिसमें सुझाव दिया गया था कि एक वकील के कार्यालय को एक व्यावसायिक प्रतिष्ठान के रूप में माना जाना चाहिए, कानून में प्रासंगिक प्रावधान की अनुपस्थिति के कारण खारिज कर दिया गया था।
पीठ ने निष्कर्ष निकाला कि दिल्ली नगर निगम अधिनियम के तहत आवासीय भवनों में आयोजित व्यावसायिक गतिविधियों पर कर लगाने का कोई प्रावधान नहीं है। जबकि विशिष्ट शर्तों के तहत व्यावसायिक गतिविधियों की अनुमति है। अदालत ने उल्लेखित किया कि डीएमसी अधिनियम की धारा 116 ए (1) की भाषा पेशेवर गतिविधियों के कराधान को शामिल नहीं करती है। इसलिए, अदालत ने माना कि वकीलों की व्यावसायिक गतिविधियाँ दिल्ली नगर निगम (संपत्ति कर) उपनियम, 2004 के खंड 9 (A) (B) (i) और (ii) में उल्लिखित प्रावधानों के अधीन नहीं होनी चाहिए।
एसडीएमसी की अपील को खारिज करते हुए, अदालत ने एकल पीठ के अदालत के फैसले की पुष्टि करते हुए कहा, “कराधान क़ानूनों की सख्त व्याख्या का नियम लागू किया जाना चाहिए। जब तक क़ानून वकीलों की ‘व्यावसायिक गतिविधि’ को ‘व्यावसायिक गतिविधि’ के रूप में शामिल नहीं करता है, तब तक यह नहीं हो सकता है।
2 *’आदिपुरुष’ पर दिल्ली हाईकोर्ट ने टाली सुनवाई, याचिका 3 जुलाई को सूचीबद्ध करने के निर्देश*
दिल्ली हाईकोर्ट में  ‘आदिपुरुष’ फिल्म पर रोक के लिए हिंदू सेना के राष्ट्रीय अध्यक्ष द्वारा जनहित याचिका पर सुनवाई टल गई है ।  अब दिल्ली हाई कोर्ट इस मामले पर 3 जुलाई को  सुनवाई करेगा।
दिल्ली हाई कोर्ट में दायर अर्जी में कुछ सुधार करने की वजह से आज होने वाली सुनवाई टाल दी गई।
दिल्ली हाई कोर्ट में याचिकाकर्ता के वकील ने कहा था कि फिल्म में कई विवादास्पद हिस्से हैं जो अंतरराष्ट्रीय संबंधों को भी प्रभावित कर रहे हैं क्योंकि नेपाल ने फिल्म पर प्रतिबंध लगा दिया था। उन्होंने दावा किया कि निर्देशक ओम राउत ने पहले आश्वासन दिया था कि आपत्तिजनक हिस्सों को हटा दिया जाएगा, लेकिन ऐसा नहीं किया और फिल्म को रिलीज कर दिया गया।
दिल्ली हाई कोर्ट में दाखिल याचिका में आदिपुरुष ने गलत और अनुचित तरीके से धार्मिक चरित्रों और आंकड़ों का चित्रण करके हिंदू समुदाय की भावनाओं को ठेस पहुंचाई है, जो वाल्मीकि और तुलसीदास जैसे लेखकों द्वारा लिखित रामायण में वर्णन के विपरीत है।
याचिका में अधिकारियों से फिल्म के प्रमाणीकरण को रद्द करने और इसे तुरंत प्रतिबंधित करने के निर्देश देने की याचना की गई थी। लेकिन याचिका में तकनीकि खामियां थीं, इसलिए कोर्ट ने याची से सुधार करने और तीन जुलाई को सुनवाई करने का आदेश  दिया।
[30/06, 12:38] News 24 Rajeev Sharma: *सुप्रीम कोर्ट में गैंगस्टर संजीव जीवा की पत्नी की याचिका खारिज*
गैंगस्टर संजीव माहेश्वरी ऊर्फ जीवा की पत्नी पायल महेश्वरी की याचिका को सुप्रीम कोर्ट निस्तारित करते हुए खारिज कर दिया है। सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि मौजूदा परिस्थितियों में अब ऐसी याचिका का कोई औचित्य नहीं है। इस मामले में कोर्ट पहले ही आदेश जारी कर चुकी है।
दरअसल जीवा की पत्नी पायल महेश्वरी ने संजीव माहेश्वरी ऊर्फ जीवा के अंतिम संस्कार में शामिल होने के लिए गिरफ्तारी से संरक्षण दिए जाने की मांग की थी। चूंकि सारे संस्कार निपट चुके हैं। इसलिए अब परिस्थितियां विचारणीय नहीं बची हैं।
जीवा की हत्या के तुरंत बाद ही पायल ने सुप्रीम कोर्ट मे याचिका दाखिल कर अंतिम संस्कार में भाग लेने की मांग की थी। गिरफ्तारी की आशंका से  पायल माहेश्वरी जीवा के अंतिम संस्कार मे शामिल नहीं हुई थी। यूपी पुलिस की ओर से कहा गया था कि अगर पायल माहेश्वरी संजीव जीवा के अंतिम संस्कार में शामिल होती है तो उसको गिरफ्तार नहीं किया जाएगा।
 हालांकि, अदालत में सुनवाई के दौरान यूपी सरकार ने कहा था कि पायल माहेश्वरी का नाम गैंगस्टर लिस्ट में शामिल है और वो वसूली गैंग को ऑपरेट करती है फिर भी मानवीय आधार पर पुलिस उसे अंतिम संस्कार के दौरान गिरफ्तार नहीं करेगी। पायल जीवा के अंतिम संस्कार में भी शामिल नहीं हुई और अभी तक फरार चल रही है।
3 *1984 के सिख विरोधी दंगेः जगदीश टाइटलर के खिलाफ दाखिल आरोप पत्र पर संज्ञान अब 6 जुलाई को*
दिल्ली की राउज एवेन्यू कोर्ट ने  1984 के सिख विरोधी दंगों के आरोपी कांग्रेस नेता जगदीश टाइटलर के खिलाफ दाखिल चार्जशीट पर संज्ञान लेने का मामले पर सुनवाई फिल्हाल टाल दी है।  कोर्ट ने कहा है कि अब इस मामले पर अगली सुनवाई 6 जुलाई को होगी।
कोर्ट ने कहा कि किसी भी आरोपी के खिलाफ चार्जशीट पर संज्ञान लेने से पहले अभियोजन पक्ष को कोर्ट के समक्ष मुकदमे से संबंधित सभी दस्तावेज रखने चाहिए।
मामले की सुनवाई कर रहे जज ने कहा कि 1984 के सिख विरोधी दंगों के आरोपी कांग्रेस नेता जगदीश टाइटलर के खिलाफ जांच एजेंसी ने पूरी चार्जशीट ही कोर्ट के सामने पेश नहीं की है। कोर्ट में सिर्फ सप्लमेट्री चार्जशीट है। सप्लीमेंटरी चार्जशीट के आधार पर संज्ञान नहीं लिया जा सकता। इसलिए  समन से पहले पूरे डाक्यूमेंट्स की जरूरत होगी इसलिए हम कडकडडूमा कोर्ट को समन करके पूरे डाक्यूमेंट्स मांगेगे।
जज ने कहा की सप्लीमेंटरी चार्जशीट में  एफएसएल रिपोर्ट भी  नहीं लगी है। कोर्ट ने अभियोजन पक्ष के इस रवैये पर क्षोभ व्यक्त किया और मामले की सुनवाई 6 जुलाई तक के लिए टाल दिया।
दरअसल,1 नवंबर, 1984 को पुल बंगश इलाके में तीन लोगों की हत्या से जुड़ा है। कांग्रेस नेता जगदीश टाइटलर जो कि तत्कालीन सांसद भी थे उन पर आरोप है कि उन्होंने भीड़ को हमले के लिए उकसाया। इस प्रकरण में दाखिल चार्जशीट में जगदीश टाइटलर को आरोपी के रूप में नामित किया गया है और सीबीआई ने 20 मई को राउज एवेन्यू कोर्ट में चार्जशीट दाखिल की थी।
4 *तमिलनाडु: आबकारी मंत्री वी.सेंथिल बालाजी को राज्यपाल ने पहले किया बर्खास्त फिर टाल दिया फैसला*
तमिलनाडु राज्य के बिजली और आबकारी मंत्री वी. सेंथिल बालाजी को राज्यपाल आरएन रवि ने उन्हें मंत्री पद से बर्खास्त कर दिया था लेकिन मुख्यमंत्री एमके स्टालिन के विरोध पर विधि परामर्शक की राय आने तक फैसले को टाल दिया गया है।
दरअसल वी. सेंथिल बालाजी  भ्रष्टचार और नकदी के लेन देन के गंभीर मामलों में अपराधिक  कार्यवाही का सामना कर रहे है और उन्हें इन अपराधिक मामले में प्रवर्तन निदेशालय ने 12 जुलाई को गिरफ्तार किया था। इसी  बीच चेन्नई की एक अदालत ने बुधवार को सेंथिल बालाजी कि न्यायिक हिरासत बढ़ा दी गई है।  इन परिस्थितियों के चलते राज्यपाल आरएन रवि ने सेंथिल बालाजी को तत्काल रूप से मंत्री पद से बर्खास्त कर दिया था। एमके स्टालिन का कहना है कि किसी मंत्री को मंत्रीमंडल से तब ही निकाला जा सकता जब केबिनेट प्रस्ताव पारित करे और मुख्यमंत्री उस प्रस्ताव को राज्यपाल के भेजे। बालाजी के मामले में स्टालिन केबिनेट ने ऐसा कुछ भी नहीं किया।
दरअसल ये मामला सेंथिल बालाजी और उनके सहयोगियों के खिलाफ 2011-15  के दौरान अन्नाद्रमुक सरकार में राज्य के परिवहन मंत्री के रूप में उनके कार्यकाल से संबंधित है,
जब उन्होंने अपने भाई आर वी अशोक कुमार सहित अपने सहयोगियों, राज्य परिवहन उपक्रमों के प्रबंध निर्देशको और परिवहन निगमों के अन्य अधिकारियों के साथ कथित रूप से आपराधिक साजिश रचने का आरोप लगाया था।
ईडी ने इन आरोपों की जांच के लिए 2021 में धनशोधन का मामला दर्ज किया था और उसकी शिकायत 2018 में और बाद के सालों में दर्ज तमिलनाडु पुलिस की तीन एफआईआर  पर आधारित है। उच्चतम न्यायालय ने गत 16 मई को पुलिस और ईडी को बालाजी के खिलाफ जांच की अनुमति दी थी।
साल 2014-15 के दौरान परिवहन निगम में चालक, परिचालक, जूनियर ट्रेड्समैन, जूनियर इंजीनियर और सहायक इंजीनियर के रूप में भर्ती के लिए अभ्यर्थियों से रिश्वत लेने के लिए कथित रूप से साजिश रची और रिश्वत ली। इस मामले की जांच कर रही  ईडी का कहना है  कि ‘पूरी नियुक्ति प्रक्रिया धोखाधड़ी और बेईमानी पूर्ण तरीके से कि गयी थी और बालाजी के निर्देशानुसार वसूले गए रिश्वत के पैसे के आधार पर नियुक्ति आदेश जारी किए गए थे।’
5*फर्द गिरफ्तारी में कारणों का उल्लेख करे जांच अधिकारी- इलाहाबाद हाईकोर्ट*
इलाहाबाद हाईकोर्ट ने गिरफ्तारी के मामलों में महत्वपूर्ण टिप्पणी की है। कोर्ट ने कहा कि पुलिस अधिकारी या जांच अधिकारी को किसी भी वांछित की गिरफ्तारी करते समय फर्द गिरफ्तारी में उसके कारणों को दर्ज करना आवश्यक है। उसे दंड प्रक्रिया संहिता (सीआरपीसी) की धारा 41 और 41 ए की प्रक्रिया का भी पालन करना होगा, जिसमें संज्ञेय या असंज्ञेय अपराधों के मामले में गिरफ्तारी का उल्लेख किया गया है।
न्यायमूर्ति एमसी त्रिपाठी और न्यायमूर्ति प्रकाश पाडिया की खंडपीठ ने कन्नौज की याची राजकुमारी की याचिका को निस्तारित करते हुए यह फैसला दिया। याची के खिलाफ आवश्यक वस्तु अधिनियम के तहत मुकदमा लिखा गया था। एफआईआर रद्द करने और गिरफ्तारी पर रोक लगाने की मांग करते हुए याची ने दलील दी कि मुकदमे की सभी धाराएं सजा सात साल से कम सजा वाली हैं और उसे गलत फंसाया गया है।
याची ने यह दलील भी दी कि पुलिस अधिकारी सीआरपीसी की धारा 41 और 41ए के तहत निर्धारित प्रक्रिया का पालन करने के लिए बाध्य हैं। प्रावधान है कि पुलिस अधिकारी किसी की गिरफ्तारी करते समय उसके कारणों को लिखित रूप में दर्ज करेंगे। उसने सुप्रीम कोर्ट के विमल कुमार और अरनेश कुमार बनाम बिहार राज्य के मामले में दिए गए फैसले का हवाला दिया।
इस पर हाईकोर्ट ने भी कहा कि पुलिस अधिकारी इन मामलों में सुप्रीम कोर्ट द्वारा जारी दिशा निर्देशों का पालन करने के लिए बाध्य हैं। इलाहाबाद हाईकोर्ट ने कहा कि मौजूदा मामले में सुप्रीम कोर्ट के निर्णय पूरी तरह से लागू होते हैं। लिहाजा, मामले में सुप्रीम कोर्ट के आदेशों का पालन किया जाए।
6. *50 लाख की लागत के साथ कर्नाटक हाईकोर्ट ने ट्विटर याचिका की खारिज*
कर्नाटक उच्च न्यायालय ने शुक्रवार को ट्विटर  द्वारा दायर एक याचिका को खारिज कर दिया, जिसमें इलेक्ट्रॉनिक्स और सूचना प्रौद्योगिकी मंत्रालय द्वारा जारी किए गए कई अवरोध और टेक-डाउन आदेशों को चुनौती दी गई थी।
न्यायमूर्ति कृष्ण एस दीक्षित की एकल-न्यायाधीश पीठ ने फैसले का ऑपरेटिव भाग तय किया और ट्विटर पर 50 लाख रुपये का जुर्माना भी लगाया और इसे 45 दिनों के भीतर कर्नाटक राज्य कानूनी सेवा प्राधिकरण को भुगतान करने का आदेश दिया।
ऑपरेटिव भाग को पढ़ते हुए, पीठ ने कहा, “उपरोक्त परिस्थितियों में यह याचिका योग्यता से रहित होने के कारण अनुकरणीय लागत के साथ खारिज की जाती है।  याचिकाकर्ता ट्वीटर पर कर्नाटक राज्य कानूनी को देय 50 लाख रुपये की अनुकरणीय लागत लगाई गई है। यदि लागत की भरपाई में देर की जाती है, तो इस पर प्रति दिन 5,000 रुपये का अतिरिक्त शुल्क भी लगाने का आदेश दिया गया है।” जज ने ट्विटर की याचिका खारिज करते हुए कहा, ”मैं केंद्र की इस दलील से सहमत हूं कि उनके पास ट्वीट्स को ब्लॉक करने और खातों को ब्लॉक करने की शक्तियां हैं।”
न्यायालय ने कहा कि फैसले में आठ प्रश्न तय किये गये हैं और उनमें से केवल एक; याचिका दायर करने के अधिकार क्षेत्र का जवाब ट्विटर के पक्ष में दिया गया जबकि बाकी सवालों का जवाब इसके खिलाफ दिया गया है। इसमें सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम की धारा 69ए के प्रयोग के लिए दिशानिर्देश जारी करने की ट्विटर की दलील भी शामिल है।
फैसले का हवाला देते हुए न्यायाधीश ने कहा, “मैंने आठ प्रश्न तैयार किए हैं। पहला प्रश्न अधिकार क्षेत्र के बारे में है जिसका मैंने आपके पक्ष में उत्तर दिया है। दूसरा प्रश्न यह है कि क्या धारा 69ए के तहत शक्तियां ट्वीट-विशिष्ट हैं या यह इसका विस्तार खातों को बंद करने तक भी है। तीसरा कारण कारणों की गैर-संचारी है; मैंने इसे आपके विरुद्ध रखा है।”
“अगला, उन कारणों और आधारों के बीच कोई संबंध नहीं है जिन पर अवरोधन किया जा सकता है। जिसे मैंने आपके खिलाफ रखा है। फिर, सुनवाई के नोटिस आदि का कोई अवसर नहीं है, वह भी मैंने आपके खिलाफ रखा है क्योंकि आपने सुनवाई में भाग लिया है। फिर आनुपातिकता पर, क्या अवरोधन अवधि विशिष्ट होना चाहिए या वे अनिश्चित काल के लिए अवरुद्ध कर सकते हैं। इन पहलुओं को भी मैंने आपके खिलाफ माना है, “न्यायाधीश ने कहा।
न्यायाधीश ने कहा, “फिर आपने मुझसे कुछ दिशानिर्देश बनाने के लिए कहा। मुझे लगा कि दिशानिर्देशों की कोई आवश्यकता नहीं है क्योंकि श्रेयस सिंघल (बनाम भारत संघ, 2015) और दो अन्य फैसलों में कुछ निर्देश पहले से मौजूद हैं।”
ट्विटर ने 2 फरवरी, 2021 और 28 फरवरी, 2022 के बीच मंत्रालय द्वारा जारी किए गए दस अलग-अलग ‘अवरुद्ध आदेशों’ को चुनौती दी थी। सरकार ने माइक्रोब्लॉगिंग साइट को 1,474 खातों, 175 ट्वीट्स, 256 यूआरएल और एक हैशटैग को ब्लॉक करने का निर्देश दिया था।
मंत्रालय ने सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम की धारा 69ए के तहत आदेश जारी किए थे। हालाँकि, ट्विटर ने अपनी याचिका में दावा किया था कि आदेश “काफी हद तक और प्रक्रियात्मक रूप से धारा 69ए का उल्लंघन करते हैं।” ट्विटर ने दावा किया था कि 69ए के अनुसार, खाताधारकों को उनके ट्वीट और अकाउंट हटाने के बारे में सूचित किया जाना था, लेकिन मंत्रालय की ओर से इन खाताधारकों को कोई नोटिस जारी नहीं किया गया।
सरकार ने ट्विटर के अनुपालन अधिकारी को 4 जून, 2022 और फिर 6 जून, 2022 को उसके समक्ष उपस्थित होने और यह बताने के लिए नोटिस जारी किया कि ब्लॉकिंग आदेशों का पालन क्यों नहीं किया गया और इसके खिलाफ कार्रवाई क्यों नहीं शुरू की जानी चाहिए।
ट्विटर ने 9 जून को जवाब दिया कि जिस सामग्री के खिलाफ उसने ब्लॉकिंग आदेशों का पालन नहीं किया है, वह धारा 69ए का उल्लंघन नहीं लगता है। 27 जून, 2022 को सरकार ने एक और नोटिस जारी किया जिसमें कहा गया कि ट्विटर उसके निर्देशों का उल्लंघन कर रहा है। 29 जून को ट्विटर ने जवाब देते हुए सरकार से आनुपातिकता के सिद्धांत के आधार पर निर्देश पर पुनर्विचार करने को कहा।
30 जून, 2022 को सरकार ने 10 खाता-स्तरीय यूआरएल पर ब्लॉकिंग आदेश वापस ले लिया, लेकिन ब्लॉक किए जाने वाले 27 यूआरएल की एक अतिरिक्त सूची दी। एक जुलाई को 10 और अकाउंट ब्लॉक कर दिए गए। आदेशों को “विरोध के तहत” संकलित करते हुए, ट्विटर ने आदेशों को चुनौती देने वाली याचिका के साथ एचसी से का दरवाजा खटखटाया थाय़ ।
न्यायमूर्ति दीक्षित ने दलीलें सुनना पूरा कर लिया था और 21 अप्रैल, 2023 को फैसला सुरक्षित रख लिया था। फैसले का मुख्य भाग 30 जून को अदालत में सुनाया गया।
7. *मप्र की सागर जिला कोर्ट ने एक धोखेबाज को सुनाई 170 साल की सख्त सजा*
मध्य प्रदेश के सागर में कोर्ट ने धोखाधड़ी के मामले में एक व्यक्ति को 170 साल की सजा सुनाई है। दोषी ने 34 लोगों से व्यापार का झांसा देकर 72 लाख रुपये ऐंठ लिए थे। दोषी व्यक्ति गुजरात का रहने वाला है। उसने लोगों से कहा था कि वह गांव में एक कपड़ा फैक्ट्री खोलना चाहता है। इसमें जो भी पैसे देगा, उसे काफी फायदा होगा। इसी झांसे में आकर लोगों ने पैसे दे दिए थे।
ग्रामीणों ने आरोपी नासिर मोहम्मद के झांसे में आकर उसे पैसे दे दिए थे। नासिर ने 34 लोगों से 72 लाख रुपये ऐंठ लिए थे। वह गुजरात का रहने वाला है। उसने सागर के भैसा पहाड़ी गांव में मकान किराए से लिया था और खुद को कपड़ा फैक्ट्री का मालिक बताता था।
नासिर ने लोगों से कहा था कि उसकी वियतनाम, दुबई, कंबोडिया में कपड़े की फैक्ट्रियां हैं। वह इस गांव में भी कपड़े की फैक्ट्री खोलना चाहता है। जो भी अन्य लोग दुकान खोलना चाहते हैं, वह पैसे दें तो अच्छा मुनाफा होगा। इसी झांसे में आकर लोगों ने पैसे दे दिए थे। इसके बाद जब लोगों ने उससे पैसे मांगे तो नहीं मिले।
अपर लोक अभियोजक रामबाबू रावत ने बताया कि साल 2021 से यह केस अब्दुल्लाह अहमद साहब की कोर्ट में चल रहा था। धोखाधड़ी के मामले में कोर्ट ने दोषी को 5 साल की सजा सुनाई है। कुल 34 लोग धोखाधड़ी के शिकार हुए थे। इसलिए हर मामले की सजा अलग से भुगतनी पड़ेगी। इस तरह कुल 170 साल की सजा का आदेश दिया है। इसी के साथ कोर्ट ने 3 लाख 40 हजार रुपये का जुर्माना भी लगाया गया है।
8 *मणिपुर ट्राइबल फोरम की याचिका पर सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई 3 जुलाई को*
सुप्रीम कोर्ट ने  “मणिपुर ट्राइबल फोरम” द्वारा दायर याचिका पर 3 जुलाई को सुनवाई निर्धारित की है। मणिपुर ट्राइबल फोरम मणिपुर में अल्पसंख्यक कुकी आदिवासियों के लिए सेना सुरक्षा की मांग और कुकी आदिवासियों पर हमला करने में शामिल सांप्रदायिक समूहों के खिलाफ मुकदमा चलाने की मांग करती है। मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ और न्यायमूर्ति पीएस नरसिम्हा और न्यायमूर्ति मनोज मिश्रा की पीठ याचिका पर विचार करेगी।
इससे पहले, 20 जून को न्यायमूर्ति सूर्यकांत की अगुवाई वाली अवकाश पीठ ने याचिका पर तत्काल सुनवाई करने से इनकार कर दिया था, यह कहते हुए कि यह एक कानून और व्यवस्था का मुद्दा है जिसे प्रशासन द्वारा संबोधित किया जाना चाहिए।
एनजीओ का प्रतिनिधित्व कर रहे वरिष्ठ वकील कॉलिन गोंसाल्वेस ने तर्क दिया था कि इस आश्वासन के बावजूद कि कोई नहीं मरेगा, राज्य में जातीय हिंसा में 70 आदिवासी मारे गए हैं।
राज्य के प्रतिनिधि, सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने तत्काल सुनवाई के अनुरोध का विरोध करते हुए कहा था कि सुरक्षा एजेंसियां पहले से ही जमीन पर मौजूद हैं, हिंसा को नियंत्रित करने और सामान्य स्थिति बहाल करने के लिए अपना सर्वश्रेष्ठ काम कर रही हैं।
याचिकाकर्ता ने तर्क दिया था कि बहुसंख्यक मैतेई समुदाय को अनुसूचित जनजाति का दर्जा देने के मणिपुर उच्च न्यायालय के आदेश से संबंधित मुख्य मुद्दा, जिसने राज्य में हिंसक घटनाओं की एक श्रृंखला को जन्म दिया, 17 जुलाई को सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई होनी है। इसके बाद अवकाशकालीन पीठ ने एनजीओ की याचिका पर सुनवाई 3  जुलाई को तय की थी।
अधिवक्ता सत्य मित्रा द्वारा प्रतिनिधित्व किए गए मणिपुर आदिवासी मंच ने आरोप लगाया है कि केंद्र सरकार और मणिपुर के मुख्यमंत्री राज्य में कुकी आदिवासियों के “जातीय सफाए” के उद्देश्य से एक सांप्रदायिक एजेंडा अपना रहे हैं। एनजीओ ने सुप्रीम कोर्ट से आग्रह किया है कि सरकार द्वारा दिए गए “खोखले आश्वासन” पर भरोसा न करें और कुकी समुदाय के लिए सेना की सुरक्षा का अनुरोध किया है।
मेइतेई समुदाय की अनुसूचित जनजाति का दर्जा देने की मांग के विरोध में “आदिवासी एकजुटता मार्च” के बाद 3 मई को शुरू हुई मेइतेई और कुकी समुदायों के बीच झड़पों में 120 से अधिक लोग मारे गए हैं। मैतेई लोग मणिपुर की आबादी का लगभग 53% हिस्सा हैं और मुख्य रूप से इम्फाल घाटी में रहते हैं, जबकि आदिवासी नागा और कुकी आबादी का लगभग 40% हिस्सा हैं और पहाड़ी जिलों में रहते हैं।
एनजीओ ने अपनी याचिका में कहा, “इस अदालत को यूओआई (भारत संघ) द्वारा दिए गए खोखले आश्वासनों पर अब और भरोसा नहीं करना चाहिए, क्योंकि यूओआई और राज्य के मुख्यमंत्री दोनों ने संयुक्त रूप से सांप्रदायिक एजेंडे पर काम शुरू कर दिया है।” कुकियों का जातीय सफाया”।
याचिका के अनुसार, “इस तरह की कहानी इस तथ्य को नजरअंदाज कर देती है कि दोनों समुदाय अपने गहरे मतभेदों के बावजूद लंबे समय से सह-अस्तित्व में हैं और दूसरी बात यह है कि वर्तमान में मौजूद अनोखी स्थिति कुछ सशस्त्र सांप्रदायिक समूहों से जुड़ी हुई है।” राज्य में सत्ता में रहने वाली पार्टी आदिवासियों पर पूर्व-निर्धारित सांप्रदायिक हमला कर रही है।”
याचिका में दावा किया गया है कि “‘झड़प’ की कहानी सभी हमलों के पीछे इन दो समूहों की मौजूदगी को छिपाती है और उन्हें अभियोजन से प्रतिरक्षा प्रदान करती है, जिससे उन्हें आगे के हमले करने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है।”
एनजीओ ने जारी हिंसा की जांच के लिए असम के पूर्व पुलिस प्रमुख हरेकृष्ण डेका के नेतृत्व में एक विशेष जांच दल (एसआईटी) के गठन का अनुरोध किया है। उन्होंने तीन महीने की अवधि के भीतर जान गंवाने वाले प्रत्येक व्यक्ति के परिवारों को 2 करोड़ रुपये का मुआवजा देने की भी मांग की है। इसके अतिरिक्त, एनजीओ ने प्रत्येक शोक संतप्त परिवार के एक सदस्य को स्थायी सरकारी नौकरी प्रदान करने का आह्वान किया है। मणिपुर राज्य इस समय मैतेई और आदिवासी कुकी के बीच हिंसक संघर्ष का सामना कर रहा है।
यह टकराव मणिपुर उच्च न्यायालय के 27 मार्च के आदेश के बाद और तेज हो गया, जिसमें राज्य सरकार को मैतेई समुदाय के लिए अनुसूचित जनजाति (एसटी) का दर्जा देने की मांग के संबंध में चार सप्ताह के भीतर केंद्र सरकार को सिफारिश सौंपने का निर्देश दिया गया था।
सुप्रीम कोर्ट फिलहाल मणिपुर के हालात से जुड़ी कई याचिकाओं की समीक्षा कर रहा है। इनमें मैतेई समुदाय को एसटी का दर्जा देने के उच्च न्यायालय के आदेश को चुनौती देने वाली एक भाजपा विधायक द्वारा दायर याचिका, साथ ही एक आदिवासी गैर सरकारी संगठन द्वारा दायर एक जनहित याचिका (पीआईएल) शामिल है जिसमें हिंसा की एसआईटी जांच की मांग की गई है।*
सुप्रीम कोर्ट ने  “मणिपुर ट्राइबल फोरम” द्वारा दायर याचिका पर 3 जुलाई को सुनवाई निर्धारित की है। मणिपुर ट्राइबल फोरम मणिपुर में अल्पसंख्यक कुकी आदिवासियों के लिए सेना सुरक्षा की मांग और कुकी आदिवासियों पर हमला करने में शामिल सांप्रदायिक समूहों के खिलाफ मुकदमा चलाने की मांग करती है। मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ और न्यायमूर्ति पीएस नरसिम्हा और न्यायमूर्ति मनोज मिश्रा की पीठ याचिका पर विचार करेगी।
इससे पहले, 20 जून को न्यायमूर्ति सूर्यकांत की अगुवाई वाली अवकाश पीठ ने याचिका पर तत्काल सुनवाई करने से इनकार कर दिया था, यह कहते हुए कि यह एक कानून और व्यवस्था का मुद्दा है जिसे प्रशासन द्वारा संबोधित किया जाना चाहिए।
एनजीओ का प्रतिनिधित्व कर रहे वरिष्ठ वकील कॉलिन गोंसाल्वेस ने तर्क दिया था कि इस आश्वासन के बावजूद कि कोई नहीं मरेगा, राज्य में जातीय हिंसा में 70 आदिवासी मारे गए हैं।
राज्य के प्रतिनिधि, सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने तत्काल सुनवाई के अनुरोध का विरोध करते हुए कहा था कि सुरक्षा एजेंसियां पहले से ही जमीन पर मौजूद हैं, हिंसा को नियंत्रित करने और सामान्य स्थिति बहाल करने के लिए अपना सर्वश्रेष्ठ काम कर रही हैं।
याचिकाकर्ता ने तर्क दिया था कि बहुसंख्यक मैतेई समुदाय को अनुसूचित जनजाति का दर्जा देने के मणिपुर उच्च न्यायालय के आदेश से संबंधित मुख्य मुद्दा, जिसने राज्य में हिंसक घटनाओं की एक श्रृंखला को जन्म दिया, 17 जुलाई को सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई होनी है। इसके बाद अवकाशकालीन पीठ ने एनजीओ की याचिका पर सुनवाई 3  जुलाई को तय की थी।
अधिवक्ता सत्य मित्रा द्वारा प्रतिनिधित्व किए गए मणिपुर आदिवासी मंच ने आरोप लगाया है कि केंद्र सरकार और मणिपुर के मुख्यमंत्री राज्य में कुकी आदिवासियों के “जातीय सफाए” के उद्देश्य से एक सांप्रदायिक एजेंडा अपना रहे हैं। एनजीओ ने सुप्रीम कोर्ट से आग्रह किया है कि सरकार द्वारा दिए गए “खोखले आश्वासन” पर भरोसा न करें और कुकी समुदाय के लिए सेना की सुरक्षा का अनुरोध किया है।
मेइतेई समुदाय की अनुसूचित जनजाति का दर्जा देने की मांग के विरोध में “आदिवासी एकजुटता मार्च” के बाद 3 मई को शुरू हुई मेइतेई और कुकी समुदायों के बीच झड़पों में 120 से अधिक लोग मारे गए हैं। मैतेई लोग मणिपुर की आबादी का लगभग 53% हिस्सा हैं और मुख्य रूप से इम्फाल घाटी में रहते हैं, जबकि आदिवासी नागा और कुकी आबादी का लगभग 40% हिस्सा हैं और पहाड़ी जिलों में रहते हैं।
एनजीओ ने अपनी याचिका में कहा, “इस अदालत को यूओआई (भारत संघ) द्वारा दिए गए खोखले आश्वासनों पर अब और भरोसा नहीं करना चाहिए, क्योंकि यूओआई और राज्य के मुख्यमंत्री दोनों ने संयुक्त रूप से सांप्रदायिक एजेंडे पर काम शुरू कर दिया है।” कुकियों का जातीय सफाया”।
याचिका के अनुसार, “इस तरह की कहानी इस तथ्य को नजरअंदाज कर देती है कि दोनों समुदाय अपने गहरे मतभेदों के बावजूद लंबे समय से सह-अस्तित्व में हैं और दूसरी बात यह है कि वर्तमान में मौजूद अनोखी स्थिति कुछ सशस्त्र सांप्रदायिक समूहों से जुड़ी हुई है।” राज्य में सत्ता में रहने वाली पार्टी आदिवासियों पर पूर्व-निर्धारित सांप्रदायिक हमला कर रही है।”
याचिका में दावा किया गया है कि “‘झड़प’ की कहानी सभी हमलों के पीछे इन दो समूहों की मौजूदगी को छिपाती है और उन्हें अभियोजन से प्रतिरक्षा प्रदान करती है, जिससे उन्हें आगे के हमले करने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है।”
एनजीओ ने जारी हिंसा की जांच के लिए असम के पूर्व पुलिस प्रमुख हरेकृष्ण डेका के नेतृत्व में एक विशेष जांच दल (एसआईटी) के गठन का अनुरोध किया है। उन्होंने तीन महीने की अवधि के भीतर जान गंवाने वाले प्रत्येक व्यक्ति के परिवारों को 2 करोड़ रुपये का मुआवजा देने की भी मांग की है। इसके अतिरिक्त, एनजीओ ने प्रत्येक शोक संतप्त परिवार के एक सदस्य को स्थायी सरकारी नौकरी प्रदान करने का आह्वान किया है। मणिपुर राज्य इस समय मैतेई और आदिवासी कुकी के बीच हिंसक संघर्ष का सामना कर रहा है।
यह टकराव मणिपुर उच्च न्यायालय के 27 मार्च के आदेश के बाद और तेज हो गया, जिसमें राज्य सरकार को मैतेई समुदाय के लिए अनुसूचित जनजाति (एसटी) का दर्जा देने की मांग के संबंध में चार सप्ताह के भीतर केंद्र सरकार को सिफारिश सौंपने का निर्देश दिया गया था।
सुप्रीम कोर्ट फिलहाल मणिपुर के हालात से जुड़ी कई याचिकाओं की समीक्षा कर रहा है। इनमें मैतेई समुदाय को एसटी का दर्जा देने के उच्च न्यायालय के आदेश को चुनौती देने वाली एक भाजपा विधायक द्वारा दायर याचिका, साथ ही एक आदिवासी गैर सरकारी संगठन द्वारा दायर एक जनहित याचिका (पीआईएल) शामिल है जिसमें हिंसा की एसआईटी जांच की मांग की गई है।*
सुप्रीम कोर्ट ने  “सुप्रीम कोर्ट ने  “मणिपुर ट्राइबल फोरम” द्वारा दायर याचिका पर 3 जुलाई को सुनवाई निर्धारित की है। मणिपुर ट्राइबल फोरम मणिपुर में अल्पसंख्यक कुकी आदिवासियों के लिए सेना सुरक्षा की मांग और कुकी आदिवासियों पर हमला करने में शामिल सांप्रदायिक समूहों के खिलाफ मुकदमा चलाने की मांग करती है। मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ और न्यायमूर्ति पीएस नरसिम्हा और न्यायमूर्ति मनोज मिश्रा की पीठ याचिका पर विचार करेगी।
इससे पहले, 20 जून को न्यायमूर्ति सूर्यकांत की अगुवाई वाली अवकाश पीठ ने याचिका पर तत्काल सुनवाई करने से इनकार कर दिया था, यह कहते हुए कि यह एक कानून और व्यवस्था का मुद्दा है जिसे प्रशासन द्वारा संबोधित किया जाना चाहिए।
एनजीओ का प्रतिनिधित्व कर रहे वरिष्ठ वकील कॉलिन गोंसाल्वेस ने तर्क दिया था कि इस आश्वासन के बावजूद कि कोई नहीं मरेगा, राज्य में जातीय हिंसा में 70 आदिवासी मारे गए हैं।
राज्य के प्रतिनिधि, सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने तत्काल सुनवाई के अनुरोध का विरोध करते हुए कहा था कि सुरक्षा एजेंसियां पहले से ही जमीन पर मौजूद हैं, हिंसा को नियंत्रित करने और सामान्य स्थिति बहाल करने के लिए अपना सर्वश्रेष्ठ काम कर रही हैं।
याचिकाकर्ता ने तर्क दिया था कि बहुसंख्यक मैतेई समुदाय को अनुसूचित जनजाति का दर्जा देने के मणिपुर उच्च न्यायालय के आदेश से संबंधित मुख्य मुद्दा, जिसने राज्य में हिंसक घटनाओं की एक श्रृंखला को जन्म दिया, 17 जुलाई को सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई होनी है। इसके बाद अवकाशकालीन पीठ ने एनजीओ की याचिका पर सुनवाई 3  जुलाई को तय की थी।
अधिवक्ता सत्य मित्रा द्वारा प्रतिनिधित्व किए गए मणिपुर आदिवासी मंच ने आरोप लगाया है कि केंद्र सरकार और मणिपुर के मुख्यमंत्री राज्य में कुकी आदिवासियों के “जातीय सफाए” के उद्देश्य से एक सांप्रदायिक एजेंडा अपना रहे हैं। एनजीओ ने सुप्रीम कोर्ट से आग्रह किया है कि सरकार द्वारा दिए गए “खोखले आश्वासन” पर भरोसा न करें और कुकी समुदाय के लिए सेना की सुरक्षा का अनुरोध किया है।
मेइतेई समुदाय की अनुसूचित जनजाति का दर्जा देने की मांग के विरोध में “आदिवासी एकजुटता मार्च” के बाद 3 मई को शुरू हुई मेइतेई और कुकी समुदायों के बीच झड़पों में 120 से अधिक लोग मारे गए हैं। मैतेई लोग मणिपुर की आबादी का लगभग 53% हिस्सा हैं और मुख्य रूप से इम्फाल घाटी में रहते हैं, जबकि आदिवासी नागा और कुकी आबादी का लगभग 40% हिस्सा हैं और पहाड़ी जिलों में रहते हैं।
एनजीओ ने अपनी याचिका में कहा, “इस अदालत को यूओआई (भारत संघ) द्वारा दिए गए खोखले आश्वासनों पर अब और भरोसा नहीं करना चाहिए, क्योंकि यूओआई और राज्य के मुख्यमंत्री दोनों ने संयुक्त रूप से सांप्रदायिक एजेंडे पर काम शुरू कर दिया है।” कुकियों का जातीय सफाया”।
याचिका के अनुसार, “इस तरह की कहानी इस तथ्य को नजरअंदाज कर देती है कि दोनों समुदाय अपने गहरे मतभेदों के बावजूद लंबे समय से सह-अस्तित्व में हैं और दूसरी बात यह है कि वर्तमान में मौजूद अनोखी स्थिति कुछ सशस्त्र सांप्रदायिक समूहों से जुड़ी हुई है।” राज्य में सत्ता में रहने वाली पार्टी आदिवासियों पर पूर्व-निर्धारित सांप्रदायिक हमला कर रही है।”
याचिका में दावा किया गया है कि “‘झड़प’ की कहानी सभी हमलों के पीछे इन दो समूहों की मौजूदगी को छिपाती है और उन्हें अभियोजन से प्रतिरक्षा प्रदान करती है, जिससे उन्हें आगे के हमले करने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है।”
एनजीओ ने जारी हिंसा की जांच के लिए असम के पूर्व पुलिस प्रमुख हरेकृष्ण डेका के नेतृत्व में एक विशेष जांच दल (एसआईटी) के गठन का अनुरोध किया है। उन्होंने तीन महीने की अवधि के भीतर जान गंवाने वाले प्रत्येक व्यक्ति के परिवारों को 2 करोड़ रुपये का मुआवजा देने की भी मांग की है। इसके अतिरिक्त, एनजीओ ने प्रत्येक शोक संतप्त परिवार के एक सदस्य को स्थायी सरकारी नौकरी प्रदान करने का आह्वान किया है। मणिपुर राज्य इस समय मैतेई और आदिवासी कुकी के बीच हिंसक संघर्ष का सामना कर रहा है।
यह टकराव मणिपुर उच्च न्यायालय के 27 मार्च के आदेश के बाद और तेज हो गया, जिसमें राज्य सरकार को मैतेई समुदाय के लिए अनुसूचित जनजाति (एसटी) का दर्जा देने की मांग के संबंध में चार सप्ताह के भीतर केंद्र सरकार को सिफारिश सौंपने का निर्देश दिया गया था।
सुप्रीम कोर्ट फिलहाल मणिपुर के हालात से जुड़ी कई याचिकाओं की समीक्षा कर रहा है। इनमें मैतेई समुदाय को एसटी का दर्जा देने के उच्च न्यायालय के आदेश को चुनौती देने वाली एक भाजपा विधायक द्वारा दायर याचिका, साथ ही एक आदिवासी गैर सरकारी संगठन द्वारा दायर एक जनहित याचिका (पीआईएल) शामिल है जिसमें हिंसा की एसआईटी जांच की मांग की गई है।” द्वारा दायर याचिका पर 3 जुलाई को सुनवाई निर्धारित की है। मणिपुर ट्राइबल फोरम मणिपुर में अल्पसंख्यक कुकी आदिवासियों के लिए सेना सुरक्षा की मांग और कुकी आदिवासियों पर हमला करने में शामिल सांप्रदायिक समूहों के खिलाफ मुकदमा चलाने की मांग करती है। मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ और न्यायमूर्ति पीएस नरसिम्हा और न्यायमूर्ति मनोज मिश्रा की पीठ याचिका पर विचार करेगी।
इससे पहले, 20 जून को न्यायमूर्ति सूर्यकांत की अगुवाई वाली अवकाश पीठ ने याचिका पर तत्काल सुनवाई करने से इनकार कर दिया था, यह कहते हुए कि यह एक कानून और व्यवस्था का मुद्दा है जिसे प्रशासन द्वारा संबोधित किया जाना चाहिए।
एनजीओ का प्रतिनिधित्व कर रहे वरिष्ठ वकील कॉलिन गोंसाल्वेस ने तर्क दिया था कि इस आश्वासन के बावजूद कि कोई नहीं मरेगा, राज्य में जातीय हिंसा में 70 आदिवासी मारे गए हैं।
राज्य के प्रतिनिधि, सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने तत्काल सुनवाई के अनुरोध का विरोध करते हुए कहा था कि सुरक्षा एजेंसियां पहले से ही जमीन पर मौजूद हैं, हिंसा को नियंत्रित करने और सामान्य स्थिति बहाल करने के लिए अपना सर्वश्रेष्ठ काम कर रही हैं।
याचिकाकर्ता ने तर्क दिया था कि बहुसंख्यक मैतेई समुदाय को अनुसूचित जनजाति का दर्जा देने के मणिपुर उच्च न्यायालय के आदेश से संबंधित मुख्य मुद्दा, जिसने राज्य में हिंसक घटनाओं की एक श्रृंखला को जन्म दिया, 17 जुलाई को सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई होनी है। इसके बाद अवकाशकालीन पीठ ने एनजीओ की याचिका पर सुनवाई 3  जुलाई को तय की थी।
अधिवक्ता सत्य मित्रा द्वारा प्रतिनिधित्व किए गए मणिपुर आदिवासी मंच ने आरोप लगाया है कि केंद्र सरकार और मणिपुर के मुख्यमंत्री राज्य में कुकी आदिवासियों के “जातीय सफाए” के उद्देश्य से एक सांप्रदायिक एजेंडा अपना रहे हैं। एनजीओ ने सुप्रीम कोर्ट से आग्रह किया है कि सरकार द्वारा दिए गए “खोखले आश्वासन” पर भरोसा न करें और कुकी समुदाय के लिए सेना की सुरक्षा का अनुरोध किया है।
मेइतेई समुदाय की अनुसूचित जनजाति का दर्जा देने की मांग के विरोध में “आदिवासी एकजुटता मार्च” के बाद 3 मई को शुरू हुई मेइतेई और कुकी समुदायों के बीच झड़पों में 120 से अधिक लोग मारे गए हैं। मैतेई लोग मणिपुर की आबादी का लगभग 53% हिस्सा हैं और मुख्य रूप से इम्फाल घाटी में रहते हैं, जबकि आदिवासी नागा और कुकी आबादी का लगभग 40% हिस्सा हैं और पहाड़ी जिलों में रहते हैं।
एनजीओ ने अपनी याचिका में कहा, “इस अदालत को यूओआई (भारत संघ) द्वारा दिए गए खोखले आश्वासनों पर अब और भरोसा नहीं करना चाहिए, क्योंकि यूओआई और राज्य के मुख्यमंत्री दोनों ने संयुक्त रूप से सांप्रदायिक एजेंडे पर काम शुरू कर दिया है।” कुकियों का जातीय सफाया”।
याचिका के अनुसार, “इस तरह की कहानी इस तथ्य को नजरअंदाज कर देती है कि दोनों समुदाय अपने गहरे मतभेदों के बावजूद लंबे समय से सह-अस्तित्व में हैं और दूसरी बात यह है कि वर्तमान में मौजूद अनोखी स्थिति कुछ सशस्त्र सांप्रदायिक समूहों से जुड़ी हुई है।” राज्य में सत्ता में रहने वाली पार्टी आदिवासियों पर पूर्व-निर्धारित सांप्रदायिक हमला कर रही है।”
याचिका में दावा किया गया है कि “‘झड़प’ की कहानी सभी हमलों के पीछे इन दो समूहों की मौजूदगी को छिपाती है और उन्हें अभियोजन से प्रतिरक्षा प्रदान करती है, जिससे उन्हें आगे के हमले करने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है।”
एनजीओ ने जारी हिंसा की जांच के लिए असम के पूर्व पुलिस प्रमुख हरेकृष्ण डेका के नेतृत्व में एक विशेष जांच दल (एसआईटी) के गठन का अनुरोध किया है। उन्होंने तीन महीने की अवधि के भीतर जान गंवाने वाले प्रत्येक व्यक्ति के परिवारों को 2 करोड़ रुपये का मुआवजा देने की भी मांग की है। इसके अतिरिक्त, एनजीओ ने प्रत्येक शोक संतप्त परिवार के एक सदस्य को स्थायी सरकारी नौकरी प्रदान करने का आह्वान किया है। मणिपुर राज्य इस समय मैतेई और आदिवासी कुकी के बीच हिंसक संघर्ष का सामना कर रहा है।
यह टकराव मणिपुर उच्च न्यायालय के 27 मार्च के आदेश के बाद और तेज हो गया, जिसमें राज्य सरकार को मैतेई समुदाय के लिए अनुसूचित जनजाति (एसटी) का दर्जा देने की मांग के संबंध में चार सप्ताह के भीतर केंद्र सरकार को सिफारिश सौंपने का निर्देश दिया गया था।
सुप्रीम कोर्ट फिलहाल मणिपुर के हालात से जुड़ी कई याचिकाओं की समीक्षा कर रहा है। इनमें मैतेई समुदाय को एसटी का दर्जा देने के उच्च न्यायालय के आदेश को चुनौती देने वाली एक भाजपा विधायक द्वारा दायर याचिका, साथ ही एक आदिवासी गैर सरकारी संगठन द्वारा दायर एक जनहित याचिका (पीआईएल) शामिल है जिसमें हिंसा की एसआईटी जांच की मांग की गई है।
9.*आईओ ने एफआईआर में बदला घटना का टाइम, सुप्रीम कोर्ट ने मानी पुलिस की गंभीर गल्ती, आरोपियों को कर दिया बरी*
हाल के एक फैसले में, भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने कहा है कि प्रथम सूचना रिपोर्ट (एफआईआर) में हस्तक्षेप और समय को बदलने से आरोपी को संदेह का लाभ मिलेगा और अंततः बरी कर दिया जाएगा। कोर्ट ने इस बात पर जोर दिया कि अपराध के समय में बदलाव करने से एफआईआर का साक्ष्यिक महत्व कम हो जाता है।
एफआईआर की प्रामाणिकता, विशेष रूप से हत्या जैसे आपराधिक मामलों में, मुकदमे के दौरान प्रस्तुत साक्ष्य का आकलन करने में महत्वपूर्ण है। एफआईआर में कोई भी कमज़ोरी इसकी प्रामाणिकता पर संदेह पैदा करती है, जिससे आरोपी को संदेह का लाभ मिल जाता है।
अदालत ने कहा, ‘प्राथमिकी की पूर्व-समय सीमा जैसी कमजोरियां अपना साक्ष्य महत्व खो देती हैं। जो आरोपी को संदेह का लाभ देने का अधिकार देता है। यही कारण है कि एफआईआर में यदि कोई खामी है तो तो इसकी प्रामाणिकता पर संदेह होता है।’
यह कानूनी सिद्धांत मंगलुरु के 27 साल पुराने हत्या के मामले के संदर्भ में दिया गया, जहां एक व्यक्ति और उसके पिता को अदालत ने आरोपों बरी कर दिया था। इस मामले की एफआईआर में कथित अपराध का समय ओवरराइटिंग के माध्यम से बदल दिया गया था, इसे दोपहर 1.50 बजे से स्थानांतरित कर दिया गया था। सुबह 9 बजे तक कोर्ट ने एफआईआर में प्रक्षेप और पूर्व-समय को मान्यता दी, यह देखते हुए कि शिकायत मूल रूप से 4 अगस्त 1995 को दोपहर 1.50 बजे दर्ज की गई थी। अपीलकर्ताओं ने लगातार अपनी बेगुनाही बरकरार रखी और कहा कि गांव में नए आने के कारण उन्हें झूठा फंसाया गया था।
इसके अलावा, पिता-पुत्र की जोड़ी के खिलाफ अभियोजन पक्ष के मामले को अतिरिक्त चुनौतियों का सामना करना पड़ा, जिसमें स्थानीय अदालत में एफआईआर जमा करने में अस्पष्ट देरी और विश्वसनीय प्रत्यक्षदर्शियों की कमी शामिल थी। नतीजतन, अदालत ने इस सिद्धांत के आधार पर आरोपी को बरी कर दिया कि एफआईआर में कमजोरियां हैं, जैसे कि प्रक्षेप और पूर्व-समय ने इसके साक्ष्य मूल्य को कम कर दिया और इसकी प्रामाणिकता के बारे में संदेह पैदा किया।
यह ऐतिहासिक फैसला एफआईआर की संवैधानिकता को बनाए रखने के महत्व की पुष्टि करता है और आपराधिक मामलों में सटीक और विश्वसनीय सबूत के महत्व पर प्रकाश डालता है।