पंजाब के एक प्रसिद्ध विश्वविद्यालय के छात्रों को संबोधित करते हुए नामचीन बिजनेस गुरू शिव खेड़ा ने
स्वीकार किया कि दो साल पहले तक उन्हें ईमेल करना नहीं आता था। सहायकों की टीम उनके काम निपटा
देती थी। कोरोना काल में जब सारी दुनिया को लॉकडाउन से गुज़रना पड़ा, दफ्तर बंद हो गये और अपने बहुत
से काम खुद निपटाने की जरूरत आन पड़ी तो उन्होंने अपने पोते-पोतियों से ईमेल करना सीखा। कोरोना का
सबसे बड़ा सबक यही है कि परिस्थितयां कब किसे विवश कर दें, कहना मुश्किल है, इसलिए जितना संभव हो,
अपने कामों के लिए हमें आत्मनिर्भर होना चाहिए। जहां तक संभव हो अपने कामों से संबंधित टूल्स का ज्ञान
होना चाहिए, उन्हें प्रयोग करना आना चाहिए। सहायक उपलब्ध हों, और रुटीन के काम खुद न करने पड़ें तो
बहुत अच्छा है, लेकिन यह समझना जरूरी है कि आवश्यकता होने पर हम किसी का मुंह ताकने के लिए विवश न हो जाएं।
हम सब जानते हैं कि कर्नल सैंडर्स ने 65 वर्ष की उम्र में केएफसी की स्थापना की जो आज दुनिया भर में फैला है। उस वक्त जब उन्होंने केएफसी की स्थापना की तो बिजनेस नया था। नये बिजनेस को संभालना, चलाना, कर्मचारियों का चयन, नियुक्ति, प्रशिक्षण और उन्हें टिकाये रखना, ग्राहकों को अच्छी क्वालिटी का स्वादिष्ट भोजन उपलब्ध करवाना, कच्चे माल की खरीद, व्यवसाय का प्रचार आदि सब उन्होंने उसी उम्र में किया। तब क्या चुनौतियां नहीं आई होंगी। पैंसठ साल की उम्र में कर्नल सैंडर्स ने उन चुनौतियों का मुकाबला करने के कुछ नये तरीके तो अवश्य सीखे ही होंगे।
खुद मैं अपनी बात करूं तो बुढ़ापे की इस उम्र में भी मैं अब भी हर रोज़ कुछ न कुछ नया सीख रहा हूं। कोरोना के कारण पिछले साल मार्च में जब हमारे कार्यालय बंद हुए तो आज तक नहीं खुले। हम सब अपने-अपने घरों से ही काम कर रहे हैं। सहायक नहीं हैं। कार्यालय में बैठ कर बहुत से काम जो मैं टीम के विभिन्न सदस्यों को सौंप सकता था, अब संभव नहीं है, इसलिए बहुत से काम खुद करने की जरूरत आन पड़ी तो उन्हें करना शुरू किया। जैसे कोई नन्हा बच्चा चलना सीखते हुए लड़खड़ाता है, कई बार गिरता भी है, लेकिन फिर चलना शुरू कर देता है, वही मेरे साथ भी हुआ। सहायकों द्वारा किये जाने वाले जो काम मैं खुद करता था, उनकी गुणवत्ता और पैकेजिंग बहुत अच्छी नहीं होती थी, पर शुरुआत हो गई। बहुत से काम ठीक ढंग से करने सीख लिए, हालांकि बहुत से काम अभी भी सीखने की स्टेज पर ही हूं। अपने काम खुद करने की प्रेरणा मुझे अपनी पोती की उम्र की एक छोटी सी बच्ची से मिली। तनाव-मुक्त जीवन जीने का प्रशिक्षण देने के कारण लोग मुझे हैपीनेस गुरू के रूप में जानते हैं और मेरे फालोअर्स की संख्या बहुत बड़ी है। पिछले वर्ष मैं उस वक्त हैरान रह गया जब मेरी पुस्तकों के प्रकाशक डा. विनीत गेरा ने मेरा परिचय श्रीमती नित्या मेहता से करवाया। नित्या जी की तेरह साल की बिटिया स्निग्धा मेहता ने अपने उपन्यास का दूसरा भाग लिखा था और उसका प्रकाशन भी मेरे प्रकाशक द्वारा ही होना था, अत: डा. गेरा ने मुझसे अनुरोध किया कि मैं स्निग्धा के उपन्यास की भूमिका लिख दूं। मैं यह जानकर चमत्कृत था कि इस छोटी सी बच्ची ने इस कच्ची उम्र में न केवल उपन्यास लिखना सीखा बल्कि एक प्रकाशित लेखिका बनने का गौरव भी प्राप्त किया। कोरोना ने बहुत सी नौकरियां छीन लीं, बहुत से व्यवसाय बंद हो गये। इस कठिन समय में मुझे यही उचित लगा कि मैं अपने देशवासियों को कुछ ऐसे हुनर सिखाऊं जिनसे उनकी आय का साधन बन सके। इस उद्देश्य से मैंने समाचार लिखना, लेख लिखना, फीचर लिखना, कहानी लिखना और इस हुनर से पैसे कमाने के योग्य हो जाने का एक वृहद कोर्स तैयार किया, जिसे आनलाइन सिखाया जा सके। सौभाग्यवश इसे बहुत पसंद किया गया। इसके ज्यादातर विद्यार्थी 40 वर्ष से ऊपर की आयु के हैं। मुझे खुशी तब हुई जब आकाशवाणी, शिमला,
जालंधर, जयपुर, दिल्ली आदि केंद्रों के मुखिया रह चुके प्रसिद्ध साहित्यकार स्वर्गीय विश्व प्रकाश दीक्षित "बटुक"
की अड़सठ वर्षीय सुपुत्री सुश्री माधवी दीक्षित ने इस पाठ्यक्रम में दाखिला लिया। वे भी आकाशवाणी में वरिष्ठ पदों पर रह चुकी हैं और रिटायरमेंट के बाद खाली बैठने के बजाए कुछ नया करने और लिखना सीखने का शौक उन्हें इस कोर्स में ले आया। मैंने जब सुश्री दीक्षित से इस बारे में बात की तो उनके जवाब ने मेरे ज्ञान चक्षु खोले। उन्होंने कहा कि ज्यादातर
भारतीय "कर्स ऑफ नालेज", यानी, ज्ञान के अभिशाप नामक रोग से ग्रसित हैं। "कर्स ऑफ नालेज" का खुलासा करते हुए उन्होंने मुझे बताया कि आम भारतीय या तो यह मानता है कि वह सब कुछ जानता है और उसे कुछ भी नया सीखने की जरूरत नहीं है। इसका दूसरा पहलू यह है कि हमारे पास जो ज्ञान है, हम उसकी महत्ता नहीं समझते और उसे व्यवसाय बनाने या उससे आर्थिक लाभ लेने की कोशिश नहीं करते, तीसरा पहलू यह है कि
हम बिना कोशिश किये ही यह मान लेते हैं कि अमुक काम हमारे बस का नहीं है और चौथा पहलू यह है कि अक्सर हम उम्र का बहाना बना कर कुछ नया सीखने से इन्कार कर देते हैं कि लोग क्या सोचेंगे। उनका यह खुलासा हमें नई दिशा देने में समर्थ है। कोशिश किये बिना ही हार मान लेना गलत है, और कुछ नया करने या नया सीखने की कोई एक उम्र नहीं होती, हर उम्र में नया ज्ञान सीखा जा सकता है, नया कुछ किया जा सकता है। इसमें मैं अपनी ओर से इतना ही जोड़ना चाहूंगा कि हमारे पास बहुत सा ऐसा ज्ञान होता है, जिसे व्यवसाय में बदलकर उससे आर्थिक लाभ लेना संभव है। इसके लिए सिर्फ कल्पनाशक्ति की आवश्यकता है। लेखन के अपने शौक को मैंने व्यवसाय में बदला। तकनीक का सहारा लेकर आनलाइन कोर्स तैयार किया। कोरोना काल से पूर्व मैं जब पत्रकारिता के गुर सिखाने की वर्कशॉप का आयोजन करता था तो मेरी वर्कशॉप में ऐसे पत्रकार भी शामिल होते थे जो दस-दस, पंद्रह-पंद्रह साल से इस पेशे में थे और वे भी कई नई बातें सीखकर जाते थे। मैं उस समय भी महसूस करता था कि इस पेशे के पुराने धुरंधर भी नया सीखने की कोशिश में हैं और मैं उनके इस उत्साह की प्रशंसा किये बिना नहीं रह पाता था। आज भी मेरा वह अनुभव कायम है कि हर उम्र के लोग जीवन का उत्साह बनाये रखने के लिए कुछ न कुछ नया सीखना ही चाहते हैं। नई बातें सीखने से हमारा
दिमाग चुस्त रहता है और भूलने की बीमारी नहीं घेरती। मेरा प्रयास सिर्फ इतना सा है कि हम जो नया ज्ञान
अर्जित करें, उसे सिर्फ शौक ही न रहने दें बल्कि उसका आर्थिक लाभ भी लें। आज आईटीबॉक्स, एमएसएमईएक्स, जीतो दुनिया आदि बहुत सी संस्थाएं भी इसी नज़रिये से प्रेरित हैं जिनके प्रशिक्षण जिनके प्रशिक्षण से रोज़गार बढ़ेगा और देश की अर्थव्यवस्था भी मजबूत होगी।
(लेखक एक हैपीनेस गुरू और मोटिवेशनल स्पीकर हैं।)