Learn to be Happy *: खुश रहना सीखने की चीज़ *

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अमेरिका के नामी-गिरामी येल यूनिवर्सिटी की एक प्रोफ़ेसर हैं – लोरी सैंटोस। अपना विषय पढ़ाने के अलावा साल 2018 से “साईन्स ओफ़ वेल-वेलिंग” नाम की एक पाठ्यक्रम चलाती है। उनका कहना है कि तरक़्क़ी के तमाम दावे और दिखावे के बीच लोगों में मानसिक अवसाद बढ़ा है। अकेले अमेरिका में पिछले बीस साल में एंटी-डिप्रेसेंट दवाइयों की खपत चार-सौ गुना बढ़ी है। वो मानती हैं कि पॉज़िटिव सायकॉलजी, जो प्रयोग और अवलोकन के माध्यम से आदमी के अच्छे मन:स्थितियों का अध्ययन करता  है, के पास अब उपयोगी जानकरियाँ हैं जिसका प्रयोग कर हम अपना मानसिक स्वास्थ्य का स्तर सुधार सकते हैं, अधिक ख़ुश रहने की क्षमता विकसित कर सकते हैं। खपत इतनी हैं कि मात्र दो साल में ये येल यूनिवर्सिटी के तीन-सौ साल के इतिहास में सबसे लोकप्रिय पाठ्यक्रम बन गया है।
ख़ुशी के ऊपर अमेरिका के ही कैलिफ़ोर्निया यूनिवर्सिटी के प्रोफ़ेसर संयो ने भी व्यापक वैज्ञानिक अध्ययन किया है। उनका कहना है कि हम ख़ुश वैसे आदमी को कह सकते हैं जिसे आनंद, उत्साह और गर्व की ज़्यादा और उदासी, चिंता और ग़ुस्से की अनुभूति कम होती है। यहाँ ध्यान देने की बात ये है कि ख़ुश रहने का मतलब क़तई ये नहीं है कि आपको निर्मल आनंद प्राप्त है। आप बस मान कर चलते हैं कि चिल्ल-पौं मची रहेगी, तलने-भूनने के बजाय उत्साह पूर्वक कुछ करना ज़्यादा ठीक है।
एक स्वाभाविक प्रश्न है कि आख़िर खुश रहना इतना मुश्किल क्यों है? हमारा मन बुझ तो सेकंड में जाता है। हर्षित होने में इतना समय और ज़ोर क्यों माँगता है? इसके लिए हमें अपने आपको कोसने  की ज़रूरत नहीं है। शोध में पाया गया है कि ख़ुश रहने की प्रवृति पचास प्रतिशत हमारे जीन, दस प्रतिशत जीवन की परिस्थितियों और चालीस प्रतिशत हमारे व्यवहार-विचार पर निर्भर करती है। फिर, दिमाग़ की बनावट ही कुछ ऐसी है कि हम तीर-तुक्का को सही मान लेते हैं, दूसरों से अपनी तुलना कर दुबले होते रहते हैं और हर चीज़ से जल्दी, बहुत जल्दी ऊब जाते हैं। इस वजह से हम उन चीज़ों – जैसे कि पैसा, प्रसिद्धि और पावर – के पीछे ये मानकर भागने लगते हैं कि ये हमें ख़ुशियों से भर देगा। ऐसा होता नहीं है और हम सिर धुनते रहते हैं। ठगों का एक बड़ा बाज़ार ख़ुशी की दुकान खोले बैठा है। सालों लगाकर और लाखों गवाँकर हाथ वही ढाक के तीन पात आता है। ऐसे में प्रोफ़ेसर सैंटोस का कहना कि हमें पोज़िटिव सायकॉलजी के जानकरियाँ का इस्तेमाल करना चाहिए उचित जान पड़ता है। इंटर्नेट पर कोर्सएरा नाम के एप के ऊपर मुफ़्त में उपलब्ध है। आठ सप्ताह की बात है। अपने ख़ुशी का स्तर खुद जाँचिए, उनका पढ़ाया समझिए, उनका दिया होमवर्क करिए और अंत में अपने ख़ुशी को फिर जाँच कर देखिए कि क्या फ़र्क़ पड़ा?
शोध के अनुसार हम अभ्यास के माध्यम से दिमाग़ की स्वाभाविक गड़बड़ियों – जैसे कि दूर की कौड़ी लाना, दूसरों की ताक-झांक में मगज खपाना और हर बात पर जल्दी ही उखड़ जाना – को ठीक कर सकते हैं, सही चुनने की बुद्धि सीख सकते हैं, दिमाग़ को अच्छी आदतें सिखा सकते हैं और इस क्रम में अपने ख़ुश रहने की क्षमता को बढ़ा सकते हैं। दूसरों से तुलना से बचने के लिए एक तो अपने वर्तमान को गौर से देखें कि हालात क्या सचमुच में इतने बुरे हैं जितना कि हम समझ रहे हैं। फिर, अगर तुलना ही करनी है तो अपने गए दिनों से करें जब हालात और भी बुरे थे। बेमेल चीज़ों में अनावश्यक तुलना का क्या मतलब? जल्दी ऊबने की आदत से बचने के लिए चीज़ों के बजाय अनुभव पर समय और पैसा लगाएँ। अच्छे अनुभव का टिक कर पूरा मजा लें। कल्पना करें कि अगर  ज़िंदगी में जो हासिल है वो भी नहीं होता तो क्या होता? और हर रोज़ ऐसे जिएँ जैसे कि ये ज़िंदगी का आख़िरी दिन हो। अच्छी चीजों को प्रयोग रुक-रुक करें। हर नई शुरुआत मूड को एक नया बूस्ट देगी। ढेर सारे के बजाय विविधता पर ज़ोर दें।
जहाँ तक सही चुनने की बात है, हम कई चीजें कर सकते हैं। एक, अपना काम इस तरह से चुने या करें जिसमें हमारी ख़ासियत  इस्तेमाल होता हो। इसे पॉज़िटिव सायकॉलजी में ‘सिग्नेचर स्ट्रेंक्थ’ कहते हैं। शोध में पाया गया है कि अगर आपका काम आपके कम से कम चार सिग्नेचर स्ट्रेंक्थ के अनुरूप हो तो ये आपको आपका ‘कॉलिंग’ लगने लगेगा, इसे करने में आपको मजा आएगा। दूसरे, देने का अभ्यास करें। इससे शरीर में  ‘हैपी हार्मोंस’ – डोपमिन, सेरटोनिन, एंडॉर्फ़िन और ऑक्सीटोसीन – का स्त्राव होता है। परिणामस्वरूप, आनंद की अनुभूति होती है जिसे ‘हेल्पेर्स हाई’ कहते हैं। तीसरे, लोगों से मेलजोल, सम्पर्क रखें। स्टैन्फ़र्ड यूनिवर्सिटी के एक शोध में पाया गया है कि सामाजिक सम्पर्क से रक्त-धमनियों में ऑक्सीटोसिन, जिसे ‘लव हार्मोन’ भी कहते हैं, रिलीज़ होता है जो सेरटोनिन की मात्रा को बढ़ाता है। सेरटोनिन से दिमाग़ का पुरस्कृत अनुभव करने वाला भाग सक्रिय होता है। फलस्वरूप, आनंद की अनुभूति होती है। चौथे, अगर चयन समय और पैसे में करनी हो तो समय को महत्व दें। शोध में पाया गया है कि साधारण ज़रूरत पूरा होने के बाद और अधिक पैसे से आनंद में आनुपातिक वृद्धि नहीं होती है। पाँचवे, दिमाग़ को क़ाबू में रखने के लिए मेडिटेशन करें। शोध में पाया गया है कि काम ख़त्म होते ही दिमाग़ के अलग-अलग भाग आपस में अपने-आप गपशप में जुट जाते हैं जिसे “माइंड’स डिफ़ॉल्ट नेट्वर्क” कहते हैं। अगर इसे खुला छोड़ दिया जाए तो बड़ा क्लेश करता है।और आख़िर में, स्वस्थ आदतें डालें – नियमित व्यायाम करें और पर्याप्त नींद लें।
कुल मिलाकर, पॉज़िटिव सायकॉलजी का कहना है कि ख़ुशी का कोई शॉर्ट-कट नहीं है और ना ही ये किसी दुकान में बिकता है। ख़ुश रहना एक अभ्यास का परिणाम है और अभ्यास स्वयं ही करना पड़ेगा। अब मर्ज़ी अपनी है कि मृग-मरीचिका के पीछे भागते रहें, ख़ुशी के फ़र्ज़ी डीलरों के हत्थे चढ़ते रहें या फिर शोध-आधारित नियमित अभ्यास से शरीर में ‘हैपी हॉर्मोन’ की बाढ़ लाए रखें।