Leaderless crowd: लीडरलेस क्राउड

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बात-बात पर सहसा सड़कों पर उतर आते लोग दुनियां भर में सरकारों के लिए सिरदर्द साबित हो रहे हैं। सोशल मीडिया से जुड़े ये देखते-देखते आग की तरह फैल जाते हैं। बल-प्रयोग से हालात और बिगड़ जाने का अंदेशा रहता है। इनका कोई नेता नहीं होता सो समझ में नहीं आता कि किससे क्या बात करें। ऐसे में सवाल ये है कि इस चुनौती से कैसे पार पाया जाय?
पुलिस और पब्लिक के खराब संबंधों के बारे में दुनिया भर की बातें होती है। रोज ही होती है। अखबार-टीवी अपनी अच्छी-खासी ऊर्जा और समय इस बात पर खपाते हैं। चौक-चौराहे से लेकर संसद तक इसकी गूंज सुनाई पड़ती है। खाकी के शर्मसार और दागदार होने की कहानी बड़े चाव से कही-सुनी जाती है। कहीं थाने में थर्ड डिग्री का ब्योरा होता है तो कहीं लोगों द्वारा पुलिस को दौड़ा-दौड़ा कर पीटने की लोमहर्षक दास्तान कही जाती है। कहीं पुलिस मुकदमा दर्ज कर रही होती है तो कहीं ये खुद हाशिए पर होती है। हर सनसनीखेज घटना उपरांत पुलिस सुधार की दुहाई दी जाती है। ये अलग बात है कि इस विषय पर दर्जनों कमिशन की मोटी-मोटी रिपोर्टें धूल फांक रही है। तरह-तरह के अड़ंगे में फंसी है। यहां तक सुप्रीम कोर्ट कई साल से लाठी लिए घूम रही है। हाथ कुछ ज्यादा लग नहीं रहा है।
लेकिन अब पानी सिर से ऊपर हो गया लगता है। स्मार्ट फोन और सोशल मीडिया से जुड़ी युवा आबादी और पढ़ी-लिखी पुलिस ने खेल बदल दिया है। एक समय होता था कि पुलिस की टोपी देख लोग भाग लिया करते थे। इससे लड़ने-भिड़ने की बात धुर बदमाश भी करने से बचते थे। उन्हें डर होता था कि अगर इनमें से एक को भी छेड़ दिया तो सारे इकट्ठे होकर हल्ला बोल देंगे। निबटा के ही छोड़ेंगे। अब ये गए दिनों की बात होकर रह गई है। नेतृत्वविहीन भीड़ की चुनौती, ड्रग्स का बढ़ता प्रचलन, हिंसा का बढ़ता स्तर , महिला-विरुद्ध अपराध पर रोज का बवाल, अपमान और घृणा से जूझती और आपा खोती पुलिस जैसी अनेक बातें पुलिस के प्रभाव को दिन-प्रति-दिन कम कर रही है। लगता नहीं पुराने तरीकों से इन नई चुनौतियाँ का सामना किया जा सकता है।
ऐसे में आउट आॅफ बॉक्स सोचने की जरूरत है। जनता-पुलिस सम्बन्धों को सुधारने के लिए रेवेन्यू और रीट्रेनिंग-न्यूट्रल मॉडल पर काम होना चाहिए। यकीन मानिए, इस तरह से व्यापक स्तर पर सकारात्मक परिवर्तन लाया जा सकता है। कोई अतिरिक्त बजट नहीं चाहिए और समाधान कानून-कायदे के हिसाब से हो तो पुलिस को वित्त विभाग या सरकार के पास जाने की जरूरत नहीं है। मामला अटकेगा नहीं। प्रोजेक्ट पर पूर्ण स्वामित्व होगा और उसे फौरी पर पूरी तरह से लागू किया जा सकेगा। अगर परिणाम सार्थक आए तो ये मेनस्ट्रीम खुद ब खुद हो जाएगा।
उदाहरण के लिए नेतृत्वविहीन भीड़ की समस्या का आंशिक समाधान एक वार्षिक मैराथन के माध्यम से किया जा सकता है। सुनने में ये अजीब लग सकता है लेकिन ये एक आजमाया तरीका है जिसके माध्यम से युवाओं पर प्रभाव रखने वाले लोगों की पहचान हो जाती है। अच्छा प्रभाव रखने वालों से गठजोड़ कर सकते हैं। इन्हें भड़काने वालों पर नकेल कस सकते हैं।
इसके लिए थाना-प्रबंधक को अपने इलाके के मैराथन आयोजन समिति का सीईओ बना दिया जाय। उन्हें कहा जाय कि साल में एक बार अपने थाना क्षेत्र के हजार लोगों को वार्षिक मैराथन में भाग लेने के लिए तैयार करें। ऐसा वे पचास ऐसे लोगों के मार्फ़त कर सकते हैं जो बीस या उससे अधिक युवाओं पर प्रभाव रखते हैं। उनसे अच्छे र्वकिंग रिलेशन बनाएं। इन्हें ढूंढना कोई मुश्किल कोई काम नहीं है। किसी भी बड़े जमावड़े में उनकी गाड़ी र्पाकिंग में खड़ी मिलेगी। ये एक तरह से क्राउड-वेंडर हैं जो अपनी महत्वकांक्षा या पैसे के बदले कहीं भी लड़के इकट्ठे कर पहुंच जाते हैं। एसएचओ को लोगों को आयोजन स्थल पर लाने के लिए पचास की क्षमतावाले बीस बसों का इंतजाम भी खुद ही करने के लिए कहें। इसके लिए वे स्कूल वालों और ट्रांसपोर्टरों से राम-राम रखेंगे। पेट्रोल-डीजल चाहिए सो पेट्रोल पम्प के मालिकों से भी सीधे मुँह बात करेंगे। कुर्सी बचानी है सो अपना बात-व्यवहार और क्षवि भी ठीक रखेंगे। वरना लोग इनके कहे से आएंगे नहीं और आएंगे भी तो कहेंगे कि दौड़ तो बाद में लेंगे पहले इस बदमिजाज थानेदार का इंतजाम करो। अनुभव की बात है। मिल-जुलकर एक साझा लक्ष्य के लिए काम करने से पुलिस और युवाओं में तालमेल बनता है। दो परस्पर विरोधी एक दोस्ताना माहौल में मिलें तो आपसी सम्बंध सुधरते हैं।
इस छोटी-सी पहल से एसएचओ के व्यवहार में बड़ा बदलाव आता है। नए शक्ति-समीकरण में एसएचओ को सैकड़ों लोगों से काम पड़ जाता है। सो वे थाने से बाहर निकल और अपनी सजी-धजी गाड़ी से उतर लोगों से मिलने-जुलने लगते हैं। थाने आने वालों से अच्छा बात-विचार रखने लगते हैं। उनमें दौड़ लगाने वाले और रेसर देखने लगते हैं। फौजी लहजे में बात करें तो इस तरह से वे स्ट्रॉटिजिक सिविलियन ऐसेट्स बनाते हैं। उनमें से कोई ना कोई उन्हें विधि-व्यवस्था की बिगड़ती स्थिति के बारे में समय रहते बता ही देता है। एसएचओ के कहे पर लोगों को पुलिस पहुंचने तक बातचीत में लगा लेता है। भीड़ में ज्यादातर लोगों की पुलिस से मैराथन के बाबत बात हुई मिलती है सो हिंसक टकराव की सम्भावना भी कम हो जाती है। युवाओं के उकसाने वाले की पहचान हो जाती है सो भीड़ का नेतृत्वविहीन स्वरूप भी समाप्त हो जाता है। एसएचओ का रुख भी बातचीत से मामला सुलटाने का हो जाता है। बहुत सारे लड़के जो ड्रग्स और गैंग की चपेट में आ सकते हैं, रनिंग को हॉबी बनाने से इस गर्त में जाने से बच जाते हैं।
मैराथन एक एक ऐसी चीज है जो आसानी कराई जा सकती है। इससे पुलिसकर्मियों को जनसम्पर्क में आॅन-दी-जॉब ट्रेनिंग मिल जाती है। वे पब्लिक स्पीकिंग, नेट्वर्किंग, कम्यूनिकेशन, मार्केटिंग, डाटाबेस मैनजमेंट, ब्रांडिंग जैसा सॉफ़्ट-स्किल सीख जाते हैं। फिटनेस के प्रति सजग हो जाते हैं। ये बातें उन्हें और सक्षम और कारगर बनाती है। आम जन में सुरक्षा के अहसास के लिए जरूरी है कि बदमाशों से सख़्ती से निबटा जाय। इस अभियान को सही सोच के लोगों के साथ गठजोड़ से बड़ा बल मिलता है।

-ओपी सिंह

(लेखक वरिष्ठ आईपीएस अधिकारी हैं।)