अंबाला। बीते कुछ सालों से हर चुनाव के दौरान आप नोटा के बारे में जरूर सुनते होंगे। हो सकता है आप खुद या आपके जानने वालों ने कभी न कभी नोटा का इस्तेमाल किया हो या करना चाहते हों। लेकिन ऐसा करने से पहले आज समाज आपको बता रहा है नोटा के संबंध में हर वो जानकारी जिसे जानना आपके लिए जरूरी है। ताकि इसका उपयोग करने से पहले आप अपने वोट की कीमत जरूरत समझें।
नोटा है क्या?
सबसे पहले साल 2009 में चुनाव आयोग को ये विचार आया कि मतदान की प्रक्रिया में नोटा को शामिल किया जाए। उस समय की यूपीए सरकार ने इसका विरोध किया। जिसके बाद पीयूसीएल (पीपल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज) ने अदालत में एक याचिका डाली। 2013 में सुप्रीम कोर्ट ने इस पर फैसला सुनाते हुए चुनाव आयोग को निर्देश दिया कि ईवीएम पर नोटा यानी ‘नन आॅफ द एबव’ (इनमें से कोई नहीं) का विकल्प रखा जाए। दिसंबर 2013 में ही दिल्ली, मध्यप्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में हुए विधानसभा चुनावों में पहली बार नोटा का इस्तेमाल किया गया। कुल मतदान में नोटा का हिस्सा 1.5 फीसदी रहा। करीब 15 लाख लोगों ने नोटा का विकल्प चुना। मध्यप्रदेश में सबसे ज्यादा 5.9 लाख लोगों ने नोटा का बटन दबाया। साल 2014 में हुए आम चुनाव में करीब 60 लाख मतदाताओं ने नोटा का विकल्प चुना। ये कुल वोट का 1.1 फीसदी रहा। दिलचस्प तथ्य ये भी है कि सीपीआई और जदयू जैसे दलों का वोट शेयर नोटा से कम रहा। तमिलनाडु की नीलगिरी सीट पर नोटा को 46,559 वोट मिले और ये तीसरे स्थान पर रहा। इसी सीट से मौजूदा सांसद और डीएमके उम्मीदवार ए राजा भी मैदान में थे लेकिन वो हार गए।
-नोटा वोट कैसे पड़ता है?
ईवीएम में आखिरी विकल्प नोटा का होता है। मशीन के अंत में जो बटन होता है वही नोटा है। अगर ऊपर दिए सभी उम्मीदवारों को आप खारिज करना चाहते हैं, किसी का चुनाव करना नहीं चाहते तो आप नोटा का बटन दबा सकते हैं। इसे एक क्रॉस के चिन्ह द्वारा दशार्या जाता है। इस चिन्ह को राष्ट्रीय डिजाइन संस्थान, अहमदाबाद ने बनाया है।
-नोटा को सबसे ज्यादा वोट मिल गए तो?
तो भी नतीजों पर कुछ असर नहीं पड़ेगा। मान लीजिए, उम्मीदवार ए को 50 हजार वोट मिलते हैं, उम्मीदवार बी को 43 हजार, उम्मीदवार सी को 35 हजार और नोटा को 52 हजार। इस सूरत में भी उम्मीदवार ए को ही विजयी ठहराया जाएगा। नोटा मतदाता का ये बताने का अधिकार है कि वो चुनाव में खड़े किसी उम्मीदवार को पसंद नहीं करता लेकिन इससे नतीजों पर फिलहाल सीधा असर नहीं पड़ता।
-क्या नोटा से कोई असर नहीं होता?
होता है, लेकिन सीधा असर नहीं। 2018 के विधानसभा चुनाव में ही देखा गया कि कई सीटों पर नोटा का अंतर, जीत के अंतर से ज्यादा था। यानी, हारने वाले उम्मीदवार जीत भी सकते थे अगर नोटा पर पड़े वोट उनके हक में जाते। सीधा सा मतलब है कि नतीजे पलट भी सकते थे। 2014 में भी यूपी की संभल सीट पर 7,658 वोट नोटा को मिले जबकि जीतने वाले भाजपा उम्मीदवार सत्यपाल सैनी महज 5,174 वोट से जीते।
-जब सीधा असर नहीं तो फायदा क्या?
इसे लेकर बहस गाहे-बगाहे होती रहती है। लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि नेगेटिव वोटिंग ऐसे मतदाताओं को मतदान के लिए उत्साहित करेगी जो किसी भी उम्मीदवार को पसंद नहीं करते। धीरे-धीरे करके राजनीतिक दलों को भी इसकी ताकत का एहसास होगा और वो साफ-सुथरे उम्मीदवारों को उतारने के बारे में सोचेंगी। जस्टिस पी सदाशिवम की बेंच ने कहा कि जिस तरह चुनने का अधिकार एक मौलिक अधिकार है, उसी तरह खारिज का अधिकार भी संविधान के तहत मौलिक अधिकारों में आता है
-नोटा से पहले क्या ऐसा कोई विकल्प था?
ऐसा एक विकल्प मौजूद था, लेकिन उस विकल्प में मतदाता की गोपनीयता भंग होती थी। चुनाव नियम 1961 के सेक्शन 49 ओ के तहत मतदाता को एक रजिस्टर में अपना नाम दर्ज करना होता था। जिसके बाद फॉर्म 17ए में मतदाता पहचान नंबर भी लिखना होता था। सुप्रीम कोर्ट ने माना कि ये अंसवैधानिक है क्योंकि मतदाता की पहचान जाहिर नहीं होनी चाहिए। नोटा आने के बाद सेक्शन 49ओ की जरूरत नहीं रह गई है।
-दूसरे किन देशों में है नोटा?
भारत के अलावा ग्रीस, फ्रांस, बेल्जियम, ब्राजील, यूक्रेन, कोलंबिया, फिनलैंड, स्पेन, चिली जैसे देशोें में भी नोटा का विकल्प है। अमेरिका के कुछ राज्य भी नोटा इस्तेमाल करने की आजादी देते हैं।