Khel khel main: खेल खेल में

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हरियाणा खेल विभाग से मेरा तीन बार वास्ता पड़ा।पहली बार सन 2000 में। उस समय मेरे विभागीय प्रमुख खेल संघों में गहरी दख़ल रखते थे। क्या खेल विभाग के अधिकारी, क्या खिलाड़ी सारे उनके साष्टांग होते थे। एक पैर अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डे पर ही होता था। यहाँ तक कि उनके पीए-चपरासी भी जब-तब टीम के मैनेजर बन विदेश की हवा खा आते थे। मैं उनके इस जलवे को देखकर अचंभित हुआ जाता था। अबोध मन सोचता था कि क्या कभी मुझे भी ये तमाशा घुसकर देखने को मिलेगा। विदेश उड़ने के पंख लगेंगे। वैसे वे विशाल हृदय के थे। कहता तो अगली फ़्लाइट पकड़ा देते। लेकिन संकोच-वश कह नहीं आया। वे जान-बूझ कर अनजान बने रहे।

वक्त बदला। निज़ाम भी बदला। अब एक अन्य अधिकारी खेल संघ और खेल विभाग को दिशा दे रहे थे। उन्हें पता नहीं क्या सूझा कि मेरे मना करने के बाद भी मुझे खेल विभाग का निदेशक लगवा लिया। एक टूटा-सा दफ़्तर था। उबासी लेते अधिकारी कर्मचारी थे। सोचा कहाँ फँस गए। बेज़िंग ओलम्पिक में हरियाणा के सूरमा एक-दो मेडल झटक लाए। सरकार से फ़रमान आया कि इनके रास्ते बिछ जाओ। जो हो जाए, इनके साथ फ़ोटो खिचनी-ही-खिचनी चाहिए। सबको लगना चाहिए कि सरकार इनकी चमकदार कामयाबी की साझीदार है। वे थे कि पीठ पर हाथ रखने देने को तैयार नहीं थे। इनकी शिकायत थी कि अब जब मैदान मार आए हैं तो क्यों आए हो? जब धूल फाँक रहे थे तब कहाँ थे? बड़ी मुश्किल से समझाया कि इज़्ज़त मिल रही है, ले लो। मैं भी यूनिवर्सिटी का टॉपर था। हाथ एक सर्टिफ़िकेट मात्र आया था। नौकरी खुद ही ढूँढनी पड़ी थी। तुमको तो सरकार सिर पर चढ़ा रही है।

जैसे-तैसे ये बवाल कटा। कई दिन बैठा सोचता रहा कि ऐसे कैसे चलेगा। खेल विभाग का काम क्या मैदान मार आए की प्रदक्षिणा बनी रहेगी। सूने पड़े, ढह रहे मैदानों का क्या होगा? विभाग की कोई नीति ही नहीं थी। सोचा यहीं से शुरू करते हैं। बड़ी मशक़्क़त हुई। ड्राफ़्ट कई बार बना-बिगड़ा। मैंने तीन चीजों की ज़िद बनाए रखी – अधिकाधिक खेलें, ग़रीबों-पिछड़ों को भी मौक़ा मिले और अच्छा खेलने वालों की भरपाई हो।

बच्चों के लिए एक नर्सरी स्कीम चल रही थी। आम शिकायत थी कि ट्रायल में कोई आता नहीं। कोई बच्चे को फ़ुल-टाइम खेलों में लगाने को तैयार नहीं है। सोच-विचार के बाद मैंने स्पोर्ट्स अथॉरिटी ओफ़ इंडिया के फ़िज़िकल प्रोफ़ीसिएनसी टेस्ट को स्पोर्ट्स एंड फ़िज़िकल ऐप्टिट्यूड टेस्ट (स्पैट) का नाम दे दिया। प्लेफ़ॉरइंडिया.कॉम नाम की वेब्सायट बनाई। कहा रेजिस्ट्रेशन ऑनलाइन होगा और स्पैट मैदान में। तीन हज़ार सबसे ज़्यादा स्कोर वालों को स्कालर्शिप देंगे। कहने वाले डराने लगे – लोगों को इंटर्नेट की जानकारी नहीं है, इंटर्नेट की स्पीड ठीक नहीं है। देहाती इलाक़े पिछड़ जाएँग़े। मैंने कहा तब की तब देखेंगे।

जब स्पैट स्कालर्शिप प्रोग्राम लॉंच हुआ तो परिणाम चौंकाने वाले आए। भिवानी-जींद जैसे दूर-दराज के ज़िले से लाखों में बच्चों ने ऑनलाइन आवेदन किया। प्रदेश भर में दस लाख से अधिक बच्चे मैदान में ज़ोर-आजमाईस को उतरे। तीन महीने तक खेल स्टेडियम खचाखच भरे रहे। दिल्ली में कॉमनवेल्थ एड्वाइज़री बोर्ड ओफ़ स्पोर्ट्स का सम्मेलन हुआ। भारत सरकार ने स्पैट को फ़ील्ड विज़िट के लिए चुना। तत्कालीन केंद्रीय खेल मंत्री ने इसे देश भर में लागू करने की बात की। लेकिन स्कालर्शिप के बजाय ग्रेड की लॉली पॉप पकड़ाने लगे। बात टीवी इंटर्व्यू और बयानबाज़ी तक ही सीमित रही।

2012 में जब तक वापस पुलिस में लौटे, हरियाणा खेल विभाग का एक रुतबा था। खेल नीति में स्पष्ट था कि उपलब्धि के अनुसार नौकरी और ईनाम मिलेगा, कोई भी खिलाड़ी अपना कैरियर इस तरह से प्लान कर सकता है। एससी कम्पोनेंट प्लान के बजट के इस्तेमाल की समस्या रहती थी। इधर-उधर उड़ाने के बजाय फ़ेयरप्ले स्कीम के तहत इसे अनुसूचित जाति के राज्य, राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय स्तर के खिलाड़ियों को बतौर स्टायपेंड देने लगे। सोच थी कि इससे उन्हें अपने खेल के स्तर को सुधारने में मदद मिलेगी। स्पैट बच्चे-बच्चे की ज़ुबान पर था। आम तौर पर आलोचना करने वाले अख़बारों ने अपने सम्पादकीय में हरियाणा के स्पोर्ट्स प्रमोशन मॉडल की तुलना गुजरात के विकास मॉडल से की। बड़े खिलाड़ी सिर उठाकर चलने लायक़ बने। इस समय का काम हमेशा मेरे लिए संतोष और गर्व का विषय रहेगा।

एक-डेढ़ महीने पहले तीसरी बार खेल विभाग का सानिध्य मिला। विभाग के प्रधान सचिव लगे। कहते हैं कि एक बार जहां से आप अच्छा कहला कर आ जाएँ, उधर दोबारा ना फँसें तो ही ठीक है। लेकिन सरकार में कौन पूछकर आपको काम देता है। देखा कि ₹394 करोड़ के सालना बजट में से एक तिहाई के आसपास तो तनख़्वाह में ही बँट रहा है। ₹142 करोड़ में खेलों के मैदान बनने हैं। ₹62 करोड़ के इनाम बटने हैं। ₹15 करोड़ के खेलों के समान ख़रीदे जानें हैं। मैंने कहा कि जब तक पुराने खेलों के मैदान नहीं भर जाते, नए पर पैसे ना लगाए जाएँ। पिछले खेल के सामान का इस्तेमाल हो जाय तो नए ख़रीदे जाएँ। “स्पोर्ट्स फ़ॉर मेडल” के बजाय “स्पोर्ट्स फ़ॉर फ़िट्नेस” की बात हो। दिन में स्कूल लड़के-बच्चों को सम्भालती है, शाम में खेल विभाग सम्भाले। खेल से जुड़े सारे लोगों और सुविधाओं को चाहें वो किसी भी विभाग मे हों, एक छत के नीचे लाया जाय। बच्चों को शराब-नशे-हिंसा की भेंट चढ़ने देने के बजाय उन्हें खेलों में लगाने की पूरज़ोर कोशिश हो। हज़ार कोचों के स्वीकृत पदों की जगह तैनात मात्र पाँच सौ हैं। इन रिक्त पदों को भरा जाय।

लेकिन कोई ज़रूरी नहीं कि लोग हमेशा आपसे सहमत हों। इससे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता कि हरियाणा खेल विभाग कौन चला रहा है। सवाल है कि इसको कैसे, किस प्रयोजन और कितनी कुशलता से चलाया जा रहा है। कहने को तो ये छोटा विभाग है, लेकिन इसका कुशल प्रबंधन राज्य की शांति के लिए अहम है।