ओपी सिंह हरियाणा में अतिरिक्त पुलिस महानिदेशक हैं। फ़िलहाल मुख्य मंत्री के विशेष अधिकारी हैं। जनता और सरकार के सरोकार को सकारात्मक बनाने का काम देखते हैं। एक कारगर अफ़सर होने के अलावा एक स्थापित साहित्यकार भी हैं। हिंदी और अंग्रेज़ी भाषा पर समान अधिकार रखते हैं। तीन किताबें प्रकाशित हो चुकी है – 2013 में ‘से यस टू स्पोर्ट्स’, 2017 में ‘हौसलानामा’ और इस साल ‘जिन ढूँढा तिन पाइयाँ’। आज समाज के साथ इनकी ज़िन्दगी, काम और किताब के बारे में एक बेबाक़ बातचीत।
1. पुलिस में कैसे? मर्ज़ी से आए या धरे गए?
दोनो ही। बचपन गाँव में बीता। अक्सर जातिगत झगड़े हुआ करते थे। आपस में भी बम-चीख़ मची रहती थी। आप की अपनी शायद ही कोई पहचान होती थी। झगड़े की सूरत में आपका नाम ही आपकी जान का ग्राहक बन जाता था। पुलिस हमेशा ख़ून-ख़राबे के बाद आती थी। मेडिकल, पोस्ट-मार्टम और धर-पकड़ करने। कुल मिलाकर उन्होंने इलाक़े को बदमाशों के हवाले कर रखा था। मेरे मन में ये बात थी कि ये स्थिति बदलनी चाहिए। बड़ा होकर इसी पर काम करूँगा। सिविल सेवा परीक्षा हर साल सबको चुनौती देती है कि अगर परिवर्तन का अग्र-दूत बनना चाहते हो तो हाथ दिखाओ। मैं भी कूद पड़ा। अंक-जनित बँटवारे में मेरे हिस्से पुलिस का ही काम आ गया। भाग्यशाली हुँ कि जो-जो देख-सोच रखा था, उसी विषय में कुछ करने का काम मिल गया।
2. इधर का अनुभव कैसा रहा? कहते हैं कि पुलिस के काम में दख़लअंदाजी बहुत है।
हमें किसी मुग़ालते में नहीं रहना चाहिए। जब आप किसी ऐसे काम में होंगे जिससे जनजीवन प्रभावित होता है तो दूसरे आप से बात करेंगे। धक्का-मुक्की भी होगी। वैसी सूरत में ये आपके ऊपर है कि आप हालात का रोना रोते हैं या डटकर मुक़ाबला करते हैं। मैंने एक लकीर खींच दी। स्पष्ट कर दिया कि बिजली का तार हुँ। सहूलियतें लो, दिलवाओ। किसी को झटका ना लगवाओ। क़ानून भी यही कहता है। उठा-पटक चलती रही। मन में खटास नहीं आने दी। किसी ने मेरा ठेका नहीं लिया हुआ है। जब तक मेरे पास किसी समस्या का समाधान है, किसी काम का हुँ, पूछ रहेगी। नहीं तो मुझमें में कोई सूर्खाब का पंख नहीं लगा है जो लोग मेरी आरती उतारते रहें। महशर बदायुनी का एक शेर है:
अब हवाएँ ही करेंगी रौशनी का फ़ैसला
जिस दिए में जान होगी वो दिया रह जाएगा
3. पुलिस में रहकर लिखने का काम कैसे और क्यों?
अक्सर ये सवाल सुनने को मिलता है। पुलिस के बारे में ये भ्रम है ये कि ये सिर्फ़ डंडा पीटती रहती हैं। अगर आप मुक़दमें की केस डायरी देखें तो असल में ये एक जीवंत साहित्यक कृति होती है। तथ्यों, बयानों पर आधारित एक कहानी होती है कि फ़लाँ ने ये किया या नहीं किया। बाक़ी लोग इसी से अंदाज़ा लगाते हैं कि क्या कुछ कैसे हुआ होगा।
जहाँ तक मेरा सवाल है, मैं समझता हुँ कि हमारी समझ का एक बड़ा हिस्सा किताबों का दिया हुआ है। लिखने वालों ने जैसा समझा वैसा औरों और आने वाली पीढ़ियों के लिए लिख दिया। मानव सभ्यता पटरी पर चढ़ी रहे इसके लिए ज़रूरी है कि ये क्रम चलता रहे। जो कोई दूसरों के अनुभवों से सीखना चाहते हैं, उनके लिए ये सुविधा जारी रहनी चाहिए। मैं अक्सर कहता हुँ कि मेरी किताबें फ़िक्शन या नान-फ़िक्शन ना होकर ऐक्शन श्रेणी की है। जो चीज़ें मुझे कारगर लगी, उसे मैंने सरल शब्दों और छोटे वाक्यों में लिखा है। आख़िर जो अपना समय, ध्यान और साधन किताब पढ़ने में ख़र्च रहें हैं, उन्हें कुछ ठोस मिलना चाहिए।
4. डा. शशि थरूर तक आपकी अंग्रेज़ी के मुरीद हैं। हिंदी में क्यों चले आए?
मेरी पहली किताब ‘से यस तो स्पोर्ट्स’ थी। डॉ थरूर ने इसकी प्रस्तावना लिखी और विमोचन में भी आए। भाषा और विषय दोनो की खुले दिल से तारीफ़ की। आगे चलकर मुझे लगा कि मुझे हिंदी में लिखना चाहिए। आख़िर मेरे लिखने का उद्देश्य अनुभव साझा करना है ना कि अपने भाषा-ज्ञान की प्रदर्शनी लगाना। दूसरे, मैं मानता हुँ कि हर किसी को तीन की सेवा करनी ही करनी चाहिए – माता, मातृभूमि और मातृभाषा। अगर हम हिंदी को बढ़ावा नहीं देंगे तो अंग्रेज़ तो ऐसा करने से रहे। ज़्यादा से ज़्यादा हम अंग्रेज़ों की सस्ती नक़ल ही बन पाएँगे। अंतरंगता की अभिव्यक्ति तो मातृभाषा में ही सम्भव है।
5. एक लेखक के तौर पर अनुभव कैसा रहा?
किताब लिखना और इसके छपने की बीच बड़ा फ़ासला है। लिखना अगर आपका शौक़ है तो प्रकाशक के लिए व्यापार। वे अपना फ़ायदा-नुक़सान देखते हैं। नए लेखकों को तो घास ही नहीं डालते। अगर कभी हाँ कह भी दिया तो उनके सम्पादक चूहे की तरह किताब को कुतर जाते हैं। छपने की गरज से लेखक मन मसोस के रह जाता है। नाम उसका, किताब किसी और की होती है। ख़ुशकिस्मती से मेरे प्रकाशक ने मुझे पूरी छूट दे रखी है।
दूसरे, आप भूखंड के इस भाग में सिर्फ़ लिखकर अपना पेट नहीं चला सकते। लोग बोलने के शौक़ीन हैं। आउट्गोइंग खुला हुआ है। इंकमिंग पर पैसा और समय लगाना साधन की बर्बादी समझते हैं। जब हाँकने की छूट हो तो सीखने की ज़हमत कौन उठाए।
6. अपनी किताबों के बारे में क्या कहेंगे?
मैं इन्हें वर्क-लाइफ़-बैलेन्स ट्रायोलोजी की रूप में देखता हुँ। ‘से यस टू स्पोर्ट्स’ में ज़िक्र है कि कैसे सरकार मे परिवर्तन की बात की जाय। ‘हौसनानामा’ आत्मकथात्मक है। संदेश है कि हर हाल में हौसला बनाए रखें, अच्छा-बुरा तो चलता ही रहेगा। ‘जिन ढूँढा तिन पाइयाँ’ सतत सीखने की प्रक्रिया की वकालत है। जिन विषयों से आपके दृष्टिकोण का निर्माण होता है उसपर अपनी जानकारी समकालीन रखें। फ़ेक-व्यूज़ फ़ेक-न्यूज़ से भी ज़्यादा ख़तरनाक है। लोग राय देने से चूकते नहीं जो ज़्यादातर अंदाज़े, पूर्वाग्रह और अधकचरे ज्ञान का घाल-मेल होता है। परिणामस्वरूप, बेवजह मन ख़राब होता रहता है। सब-कुछ होते हुए भी लगता है कि बेड़ा गर्क़ हो गया है।
7. उदाहरण के लिए?
अख़बार को ही लें। लोग छूटते ही तरह-तरह की बात करने लगते हैं। भूल जाते हैं कि तंत्र निरंकुश ना हो जाए, इसके लिए चेक एंड बैलेन्स चाहिए। मीडिया के हिस्से स्वस्थ आलोचना का काम है। समस्या तब खड़ी हो जाती है जब हर कोई इसे अपने हिसाब से चलने के लिए कहने लगता है या इसमें काम कर रहे लोग बेवजह प्रलाप या अनर्गल गुणगान शुरू कर देते हैं।
8. हमारे पाठकों के लिए कोई विशेष संदेश?
साल भर पहले मैंने अपने दिमाग़ का फ़िल्टर साफ़ करना शुरू किया था। अनर्गल, अतार्किक मान्यतायों को पहचान कर उन्हें बेदर्दी से बाहर का रास्ता दिखाया। अगर आप प्रभावी बने रहना चाहते हैं तो अपना नज़रिया धरातली रखें। शुरूआत ‘जिन ढूँढा तिन पाइयाँ’ किताब से कर सकते हैं।