हम वसुधैव कुटुम्बकम यानी पूरे विश्व को परिवार मानने वाले देश में रहते हैं। हम गंगा-जमुनी तहजीब वाले देश में रहते हैं। हम सर्व धर्म सद्भाव ही नहीं समभाव के सूत्र पर जीने वाले देश में रहते हैं। …और उसी देश में एक दिन अचानक दो युवा 1300 किलोमीटर दूर से आते हैं, एक व्यक्ति की हत्या करते हैं और लौट जाते हैं। हत्या भी इसलिए क्योंकि जिस व्यक्ति को मारा जाता है, उसने चार साल पहले एक बयान दिया था। यह हत्या देश की बदलती रंगत को बताती है। यह हत्या देश में कट्टरवाद को सतत प्रश्रय का प्रतिफल है। यह प्रश्रय किसी एक ओर से नहीं मिल रहा, यहां हर ओर से कट्टरवाद को येन-केन प्रकारेण प्रश्रय मिल रहा है, जिसके जवाब में कभी गौरी लंकेश तो कभी कमलेश तिवारी को जान गंवानी पड़ती है।
लखनऊ में हिन्दूवादी नेता के तौर पर पहचान बनाए कमलेश तिवारी की हत्या महज एक हत्या नहीं है। यह देश के समक्ष तमाम सवाल खड़े कर रही है। जिस तरह देश की तहजीब का ताना-बाना उधेड़ा जा रहा है, कमलेश तिवारी की हत्या जैसे घटनाक्रम बढ़ने से रोकना उतना ही कठिन हो जाएगा। दरअसल, पिछले कुछ वर्षों से देश में कट्टरवाद को विविध रूप में परिभाषित कर उसे प्रश्रय दिया गया। कमलेश तिवारी ने चार साल पहले जिस धर्म विशेष के एक महापुरुष को लेकर आपत्तिजनक बयान दिया था, उस धर्म के कुछ झंडाबरदारों ने कमलेश की हत्या पर ईनाम का एलान कर दिया था। कमलेश को तो गिरफ्तार कर रासुका लगा दी गयी, किन्तु एक हत्या की तैयारी रोकने के पुख्ता बंदोबस्त नहीं हुए। जिन लोगों ने कमलेश की हत्या पर ईनाम का एलान किया था, उन्हें चार साल बाद हुई हत्या के बाद पुलिस पकड़ रही है। दूसरे, जिस तरह धार्मिक वैमनस्य के परिणाम स्वरूप कुछ युवा अपने जीवन व करियर की परवाह किये बिना एक ऐसे व्यक्ति की हत्या को तैयार हो गए, जिसे वे जानते तक नहीं थे, यह भाव भी देश के लिए हताशापूर्ण भविष्य का द्योतक है।
धार्मिक कट्टरता का यह प्रतिफल पहली बार सामने आया हो, ऐसा भी नहीं है। दूर देश में धार्मिक ग्रन्थ जलाए जाने के खिलाफ हुए प्रदर्शनों के दौरान उत्तर प्रदेश के कानपुर में एक अपर जिलाधिकारी (एडीएम) को गोली मारकर उनकी जान ले ली गयी थी। इस मामले में पुलिस अपने अफसर के हत्यारे को भी सजा नहीं दिला पाई और जिस व्यक्ति पर आरोप लगाकर मुकदमा चलाया गया, वह बरी हो गया। ऐसा नहीं है कि धार्मिक कट्टरता ये मामले एकपक्षीय ही हैं। नरेंद्र दाभोलकर, गोविंद पनसरे, एमएम कुलबर्गी और गौरी लंकेश की हत्याएं भी धार्मिक कट्टरता का परिणाम ही हैं। जिस तरह से देश में धार्मिक कट्टरता को प्रश्रय दिया जा रहा है, उसमें ऐसी घटनाएं होना सामान्य सी बात हो गयी है। हाल ही में जिस तरह मॉब लिंचिंग की घटनाएं बढ़ी हैं, उससे इस कट्टरवाद को और बल मिला है। मॉब लिंचिंग यानी भीड़ द्वारा घेर कर मार डालना भारतीय जीवन दर्शन का हिस्सा कभी नहीं रहा। पिछले कुछ वर्षों से अचानक ऐसी घटनाएं भारत का हिस्सा भी बन गयी हैं। तमाम सरकारी कोशिशों व दावों के बावजूद इन पर नियंत्रण नहीं लग पा रहा है। भारत कट्टरता के खिलाफ संघर्ष करते हुए गणेश शंकर विद्यार्थी जैसे नेताओं की शहादत का गवाह बन चुका है। 1931 के कानपुर दंगों में गणेश शंकर विद्यार्थी पूरे भरोसे के साथ दंगा रोकने की उम्मीद लेकर घुसे थे, किन्तु कुछ कट्टरवादियों ने उनकी हत्या कर दी थी। इस घटना के बाद कट्टरवादियों के खिलाफ सब एकजुट थे। इसके विपरीत इस समय चल रही घटनाओं का विश्लेषण करें तो तेरी कट्टरता, मेरी कट्टरता का भाव भी सामने आता है। गौरी लंकेश की हत्या के बाद जिस तरह देश का एक वर्ग खुलकर सामने आया था और सरकार द्वारा दिये गए सम्मान वापस करने (एवार्ड वापसी) की होड़ सी लगी थी, उससे लगा था कि देश में कट्टरवाद के खिलाफ एक मानस बन रहा है। अब कमलेश तिवारी की हत्या के बाद दूसरा खेमा उन लोगों से ऐसी ही अपेक्षा कर रहा है। यहां यह तथ्य भी महत्वपूर्ण है कि जिन लोगों ने सामूहिक रूप से गौरी लंकेश, दाभोलकर या कुलबर्गी की हत्या के खिलाफ आवाज उठाई थी, कमलेश तिवारी के हत्यारों के मामले में वे उतने मुखर नहीं दिख रहे हैं। इससे कट्टरवाद के खिलाफ खेमेबंदी भी साफ दिख रही है। इस समय देश के भीतर इस तरह की खेमेबंदी को पूरी तरह समाप्त कर हर तरह के कट्टरवाद के खिलाफ आवाज उठाए जाने की जरूरत है। ऐसा न हुआ तो हम येन-केन प्रकारेण कट्टरवाद को प्रश्रय ही देते रहेंगे और कब हत्यारे हमारे घर भीतर घुस आएंगे, हम जान भी न पाएंगे।
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