करनाल: पर्युषण आत्मा के निकट रहने की प्रेरणा देता है : मुनि पीयूष

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प्रवीण वालिया, करनाल:
महापर्व पर्युषण आध्यात्मिक पर्वों में सबसे ऊपर है। यह पर्व आत्मा के निकट टिकने और सारे कर्मों को जलाकर आत्मा को निर्मल करने की प्रेरणा देता है। ये विचार उपप्रवर्तक पीयूष मुनि जी महाराज ने जैन स्थानक, हनुमान गली में महापर्व पर्युषण की शुभारम्भ वेला पर खचाखच भरे सभागार में भारी संख्या में श्रद्धालुओं को संबोधित करते हुए प्रकट किए। उन्होंने कहा कि मानव स्वभाव से ही पर्वप्रिय है। प्रत्येक व्यक्ति अपनी शक्ति,परिस्थितियों के अनुसार वैयक्तिक साधना करता है परन्तु एक दृष्टि, विचार, परम्परा के व्यक्ति सामूहिक रूप से जिस दिन की आराधना करते हैं उसे पर्व कहा जाता है। पर्व प्रान्तीय, राष्ट्रीय, सामाजिक तथा सांस्कृतिक होते हैं। पर्व लौकिक तथा लोकोत्तर दो प्रकार के होते हैं। लौकिक पर्वों में आमोद-,प्रमोद तथा मनोरंजन की प्रधानता रहती है। लोकोत्तर त्यौहारों में त्याग, तप, भक्ति तथा शुद्धि की प्रमुखता रहती है। पर्व अतीत की भूली-बिसरी स्मृतियों को तरोताजा करने तथा भूतकाल का संदेश देने के लिए आते हैं। पर्व सोए हुए मानव को जगाते हैं तथा उसे सत्य में प्रतिष्ठित करते हैं।

लोकोत्तर पर्वों की साधना आध्यात्मिक उन्नति तथा जीवन के निर्माण के लिए की जाती है। पर्युषण पर्व की आराधना आठ दिनों तक की जाती है। यदि विश्व का प्रत्येक प्राणी संकीर्णता तथा सांप्रदायिकता के तुच्छ विचारों से ऊपर उठकर इस आध्यात्मिक पर्व की हृदयपूर्वक आराधना करता है, वह सौहार्द्र के मधुर वातावरण का निर्माण करता है जिससे प्रेम और मैत्री के सूत्र सुदृढ़ होते हैं। मुनि जी ने कहा कि ये आठ दिन आठ कर्मों से मुकाबला करने की प्रेरणा देते हैं। सिर्फ मंगलगान गाने तथा आडंबर करने से आत्मा का कल्याण नहीं होता। आत्म चिंतन करने से आत्मा ऊंची तथा उन्नत होती है। आत्म ज्ञान के बिना और कोई भी आत्मा का सहायक नहीं होता। जिस प्रकार वित्तीय वर्ष की समाप्ति पर पुराने हिसाब-किताब की जांच की जाती है, लाभ-हानि का लेखा-जोखा किया जाता है, इसी प्रकार पर्युषण पर्व पर मन की पवित्रता की जांच करनी चाहिए, नवीन सत्संकल्पों की शुरूआत करनी चाहिए और देखना चाहिए कि हमारी आत्मा विकास के मार्ग पर कहां तक आगे बढ़कर पहुंची है। आज वह समय है कि किसी व्यक्ति की आत्मा में इतनी शक्ति है कि वह गजसुकुमार, अर्जुनमाली की तरह तुरंत कल्याण कर सके। देश, काल तथा परिस्थितियों को देखते हुए तथा अपने सामर्थ्य का अनुमान करते हुए साधना पथ के राही को बड़ी सावधानी से कदम रखना चाहिए ताकि मन कहीं डांवाडोल न हो जाए। साधक को धर्म में आडम्बर को नहीं अपनाना बल्कि धर्म की आत्मा को समझना है। सामायिक, प्रतिक्रमण, पौशध, उपवास, साधना आदि बाहरी क्रियाओं का उद्देश्य मन को पवित्र करना है। यदि साधक ऐसा कर सके तो वह आत्म कल्याण कर सकता है।