सुप्रीम कोर्ट ने एडवोकेट प्रशांत भूषण के विरुद्ध एक अवमानना की कार्यवाही की शुरूआत की है। यह कार्यवाही सीजेआई जस्टिस बोबडे द्वारा, एक महंगी मोटरसाइकिल पर बैठ कर फोटो खिंचाने और उस पर ऐसी टिप्पणी करने के संदर्भ में है जिसे अदालत नागवार और अवमानना समझती है। अभी सुनवाई चल रही है तो इस विषय पर किसी भी टिप्पणी से बचा जाना चाहिए। पर यह सवाल उठता है कि अदालत के अवमानना की अवधारणा क्या है और इसका विकास कैसे हुआ है।
कानून का सम्मान बना रहे, यह किसी भी सभ्य समाज की पहली शर्त है। पर कानून कैसा हो ? इस पर बोलते हुए प्रसिद्ध विधिवेत्ता लुइस डी ब्रांडिस कहते हैं, ‘अगर हम चाहते हैं कि लोग कानून का सम्मान करें तो, हमे सबसे पहले, यह ध्यान रखना होगा कि जो कानून बने वह सम्मानजनक भी हो।’ अगर कोई कानून ही धर्म, जाति, रंग, क्षेत्र आदि के भेदभाव से रहित नहीं होगा तो उस कानून के प्रति सम्मान की अपेक्षा किया जाना अनुचित ही होगा। आज न्यायपालिका के समक्ष एक अहम सवाल आ खड़ा हो गया है कि, न्यायालय की अवमानना, या अवहेलना या अवज्ञा जो एक ही शब्द में समाहित कर दें तो कंटेम्प्ट आॅफ कोर्ट, बनता है, तो ऐसे मामलों से कैसे निपटें।
अवमानना के मामले, सुलभ और स्वच्छ न्यायिक प्रशासन के लिये अक्सर चुनौती भी खड़े करते हैं और न्यायालय की गरिमा को भी कुछ हद तक ठेस पहुंचाते हैं। अवमानना है क्या ? इसके बारे में इसे परिभाषित करते हुए लॉर्ड डिप्लॉक इस प्रकार कहते हैं, ‘हालांकि, आपराधिक अवमानना कई तरह की हो सकती है, लेकिन इन सबकी मूल प्रकृति एक ही तरह की होती है। जैसे न्यायिक प्रशासन में दखलंदाजी करना, या किसी एक मुकदमा विशेष में जानबूझकर कर ऐसा कृत्य करना या लगातार करते रहना, जिससे उस मुकदमे की सुनवाई में अनावश्यक बाधा पड़े, अवमानना की श्रेणी में आता है। कभी कभी न्याय जब भटक जाता है या भटका दिया जाता है, तो वह भी एक प्रकार की अवमानना ही होती है, जो किसी अदालत विशेष की नहीं बल्कि पूरे न्यायिक तंत्र की अवमानना मानी जाती है।’
कंटेम्प्ट का अर्थ क्या है ? ब्लैक के लीगल शब्दकोश के अनुसार, ‘कंटेम्प्ट वह कृत्य है, जो न्यायालय की गरिमा गिराने, न्यायिक प्रशासन में अड़ंगा डालने या अदालत द्वारा दिये गए दंड को मानने से इनकार कर देने से सम्बंधित है। यह सभी कृत्य आपराधिक अवमानना हैं, जिनकी सजा कारावास या अर्थदंड या दोनो ही हो सकते हैं।’ भारत मे कंटेम्प्ट आॅफ कोर्ट का प्राविधान, कंटेम्प्ट आॅफ कोर्ट एक्ट, 1971 की धारा 2(ए) के अंतर्गत दिया हुआ है। यह धारा आपराधिक और सिविल अवमानना दोनो की ही प्रकृति और स्वरूप को परिभाषित करती है। लेकिन इस प्राविधान के संबंध में यह भी माना जाता है कि, यह कानून अवमानना के संदर्भ में उठे कई बिंदुओं को स्पष्ट करने में असफल है।
अब अवमानना के इतिहास पर एक नजर डालते हैं । शब्द, न्यायालय की अवमानना या कंटेम्प्ट आॅफ कोर्ट, उतना ही पुराना है जितनी पुरानी कानून की अवधारणा है। जब भी कानून बना होगा, तो उसकी अवज्ञा, अवहेलना और अवमानना भी स्वत: बन गयी होगी। लेकिन एक सभ्य समाज मे कानून का राज बना रहे, इसे सुनिश्चित करने के लिये, कंटेम्प्ट आॅफ कोर्ट सम्बन्धी कानून, सौ साल पहले संहिताबद्ध होने शुरू हुए थे, जिसके अंतर्गत, न्यायालय की गरिमा को आघात पहचाने के लिये दंड की व्यवस्था की गयी। प्राचीन काल मे राजतंत्र होता था जिससे, राजा या सम्राट में ही सभी न्यायिक शक्तियां, अंतिम रूप से निहित होती थीं।
उसे सर्वोच्च अधिकार और शक्तियां प्राप्त थीं और उसका सम्मान करना उसकी प्रजा का दायित्व और कर्तव्य था। यदि कोई राजाज्ञा की अवज्ञा अथवा राजा की निंदा करता या उसके प्रभुत्व को चुनौती देता था तो, उसे दंड का भागी होना पड़ता था। दंड का स्वरूप, राजा की इच्छा पर निर्भर करता था। लेकिन बाद मे, न्याय का दायित्व एक अलग संस्था, न्यायपालिका के रूप में विकसित हो गया। तभी न्यायाधीशों के पद बने और एक न्यायिक तन्त्र अस्तित्व में आया। लेकिन यह सब होने के पहले ही, एक ऐतिहासिक संदर्भ के अनुसार, इंग्लैंड में, बारहवीं सदी में राजा की अवज्ञा का कानून भी बना था और उसे एक दंडनीय अपराध घोषित किया गया।
देश की प्रशासनिक और न्यायिक प्रशासन की नींव भी ब्रिटिश न्यायिक व्यवस्था के आधार पर रखी गयी है। 1765 ई, के एक फैसले के ड्राफ्ट में जस्टिस विलमोट ने जजो की शक्तियां और अवमानना के बारे में सबसे पहले एक टिप्पणी की थी। यह फैसला अदालत ने जारी नहीं किया था अत: इसे एक ड्राफ्ट और अघोषित निर्णय कहा जाता है। इस अघोषित निर्णय में जजो की गरिमा की रक्षा करने के लिये कंटेम्प्ट आॅफ कोर्ट सम्बन्धी कानूनों के बनाये जाने की आवश्यकता पर बात की गयी है। बाद में सुरेन्द्रनाथ बनर्जी के एक मामले में जो कलकत्ता की तरफ से प्रिवी काउंसिल तक गया था, में, प्रिवी काउंसिल ने कंटेम्प्ट के बारे में कहा था कि, ‘हाईकोर्ट को अदालती अवमानना के मामलों को सुनने की शक्तियां हाईकोर्ट के गठन में ही निहित है। यह शक्ति किसी कानून के अंतर्गत हाईकोर्ट को नहीं प्रदान की गयी है, बल्कि यह हाईकोर्ट की मौलिक शक्तियां हैं।’
ब्रिटिश काल मे प्रिवी काउंसिल सर्वोच्च न्यायिक पीठ होती थी और यह ब्रिटिश सम्राट की न्यायिक मामलो में सबसे बड़ी सलाहकार संस्था भी होती है। 1926 ई में पहली बार अवमानना के मामलों में पारदर्शिता लाने के लिये कंटेम्प्ट आॅफ कोर्ट की अवधारणा के अनुसार कंटेम्प्ट आॅफ कोर्ट एक्ट बनाया गया, जिससे अधीनस्थ न्यायालयों की न्यायिक अवहेलना या अवज्ञा के मामलों में दोषी व्यक्ति को दंडित किया जा सके। लेकिन 1926 के अधिनियम में डिस्ट्रिक्ट जज की कोर्ट तो शामिल थीं, पर उससे निचली अदालतों के संदर्भ में अवमानना का कोई उल्लेख नहीं था।
इस प्रकार आजादी मिलने के बाद, 1952 में एक नया, कंटेम्प्ट आॅफ कोर्ट एक्ट 1952 बनाया गया, जिंसमे सभी न्यायिक अदालतों को अवमानना के संदर्भ में, सम्मिलित किया गया। बाद में, यही अधिनियम 1971 ई मे कंटेम्प्ट आॅफ कोर्ट एक्ट 1971 के रूप में दुबारा बनाया गया। इस प्रकार अवमानना के संदर्भ में जो कानून अब मान्य है वह 1971 का ही कानून है। 1971 का कंटेम्प्ट आॅफ कोर्ट एक्ट, एचएन सान्याल की अध्यक्षता में गठित एक कमेटी द्वारा ड्राफ्ट किया गया था। इस अधिनियम की आवश्यकता इस लिये पड़ी कि, कंटेंप्ट के संदर्भ में, 1952 के अधिनियम में कई कानूनी विंदु स्पष्ट नहीं थे, और उससे कई कानूनी विवाद उठने भी लगे थे। अत: एक बेहतर और अधिक तार्किक कानून की जरूरत महसूस की जाने लगी थी, इसलिए 1971 में यह अधिनियम नए सिरे से पारित किया गया।
कंटेम्प्ट आॅफ कोर्ट एक्ट 1971 एक सुलझा हुआ और न्याय की अवधारणा को केंद्र में रखते हुए अदालती गरिमा को किसी भी प्रकार से ठेस न पहुंचे, सभी विन्दुओं पर सोच समझकर बनाया गया, अधिनियम है। 1971 का कंटेम्प्ट आॅफ कोर्ट एक्ट, न्यायालय की अवमानना को दो अलग अलग भागों मे बांट कर देखता है।
एक सिविल कंटेम्प्ट और दूसरा क्रिमिनल या फौजदारी कंटेम्प्ट। कंटेम्प्ट आॅफ कोर्ट एक्ट 1971 की धारा 2(बी) के अंतर्गत सिविल अवमानना की जो परिभाषा दी गई है, वह इस प्रकार है। ‘जो कोई भी, जानबूझकर, किसी निर्णय ( जजमेंट ) डिक्री, आदेश, या अदालत द्वारा दिये गए किसी भी निर्देश,या अदालत में बिधिक कार्यवाही के दौरान दिये गए अंडरटेकिंग से मुकर जाता है या उसकी अवज्ञा करता है तो वह व्यक्ति अवमानना का दोषी ठहराया जा सकता हैं।’
(लेखक यूपी कैडर के पूर्व वरिष्ठ आईपीएस अधिकारी हैं। यह इनके निजी विचार हैं।)
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