हम जब छोटे थे, तब ट्रकों के पीछे लिखे स्लोगन पढ़ने की आदत थी। कई ट्रकों पर लिखा होता था “झूठे का मुंह काला, सच्चे का बोलबाला”। इस पर हम चर्चा करते, तो हमारे बड़े बताते थे, कि सच्चे इंसान को सभी जगह सम्मान मिलता है और झूठे को अपमान। 21वीं सदी आने का इंतजार था, जोर शोर से स्वागत हुआ। हमने भी स्वर्ण मंदिर और वैष्णव माता के दरबार में माथा टेककर शुरुआत की। दूसरे दिन हमारे एमडी अतुल महेश्वरी की ब्यूरो प्रभारियों से मीटिंग थी। अतुल जी ने एक बात कही “खबर छूट जाये मंजूर, मगर गलत नहीं होनी चाहिए। अगर आपने झूठी खबर छाप दी, तो जिस भी व्यक्ति ने सच देखा है, उसके मन में आपके और संस्थान के प्रति हेय भाव पैदा होगा। वह हमेशा के लिए आपसे दूर हो जाएगा। भले ही बहुत से लोग आपको झूठी-प्रपंच वाली खबर पर शाबासी दें। हमें उस एक व्यक्ति की परवाह करनी चाहिए। हमारे प्रधान संपादक रहे शशि शेखर जी ने हमें एक मंत्र दिया था “जो है, जहां है और जैसा है, वही सलीके से प्रस्तुत करो, सबसे आगे रहोगे”। कम पढ़े-लिखे ट्रक वाले का स्लोगन हो या विद्वानों का, सिर्फ एक ही मंत्र, सच। हमने इसको जीवन मंत्र बना लिया। जब बतौर संपादक हमने आज समाज लांच किया, तो उसका ध्येय वाक्य “सच जो आप जानना चाहते हैं” रखा। हम कई बार खुद को पिछड़ता देखते हैं मगर सच का आत्मबल संबल देता है। हम यह चर्चा इसलिए कर रहे हैं क्योंकि 21वीं सदी में झूठ और प्रपंच चरम पर है। सत्ताशीर्ष से सरेआम झूठ बोला जाता है और लोग तालियां पीटते हैं।
वाशिंगटन पोस्ट ने अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ट ट्रंप के भाषणों का विश्लेषण किया, तो सामने आया कि वह हर रोज औसतन 16.9 झूठ बोलते हैं। कई बार एक-एक दिन में उन्होंने 50 झूठ बोले हैं। फोब्स पत्रिका ने अपनी रिपोर्ट में बताया कि ट्रंप ने रोजाना 23.8 झूठ बोले हैं। चुनाव के दौरान तो वह धारा प्रवाह झूठ बोलते नजर आये। अच्छाई, यह है कि अमेरिकी मीडिया उनके झूठ को न सिर्फ पकड़ता है बल्कि सीधे उनसे सवाल भी करता है। अमेरिका की सत्ता को भी साधुवाद देना होगा कि वह सवालों वाले मीडिया का सामना करता है। गलतियों पर माफी भी मांगता है। हमने अच्छे गणराज्यों के सत्ता प्रमुखों को इसके पहले कभी इस तरह झूठ बोलते नहीं देखा था। अब शायद अमेरिकी जनता को यह समझ आ गया कि झूठा सत्ता प्रमुख होने से देश की क्षवि और देश के हालात पर क्या असर होता है। झूठ से कुछ देर तो शाबासी मिल सकती है मगर वास्तव में नुकसान ही होता है। यही वजह है कि अमेरिका की जनता ने ट्रंप को रिकॉर्ड मतों से शिकस्त देने का फैसला किया है। सामान्य दिनचर्या में एक आध झूठ लगभग हर व्यक्ति के जीवन में शामिल होता है मगर जब वह जिम्मेदारी पूर्ण पद की ओर से अपनी आवाम को शासकीय जवाब देता है, तो उसका झूठ अनैतिक माना जाता है। ऐसा नहीं है कि ट्रंप के अलावा किसी राष्ट्र के शासनाध्यक्ष ने झूठ न बोला हो मगर झूठ की बुनियाद पर ही महल बनाने वाले ट्रंप पहले राष्ट्रपति हैं। उनके झूठ के कारण सिर्फ देश के भीतर ही नहीं को विश्व के कई मोर्चों पर भी अमेरिका को शर्मिंदा होना पड़ा है।
हमें एक और तथ्य देखना होगा कि राष्ट्रवाद सिर्फ भारत में ही मुद्दा नहीं है बल्कि अमेरिका के लचीले लोगों पर भी हावी हो रहा है। शायद यही वजह है कि अमेरिकी राष्ट्रपति के चुनाव का असर दूसरे देशों पर भी दिख रहा है। यह चुनाव भविष्य में अमेरिका और भारत समेत दुनिया के दूसरे लोकतांत्रिक देशों की सियासत पर अहम असर डालने वाला है। रिपब्लिकन के राष्ट्रवाद के कारण ही डोनाल्ड ट्रंप को करीब 50 फीसदी पॉपुलर वोट हासिल हुए हैं। इतने वोट मिलने के बाद यह सवाल भी खड़े हो गये हैं कि करीब 7 करोड़ अमेरिकियों ने उस व्यक्ति को इतने वोट क्यों दिये, जिसे झूठा, मसखरा, सनकी, लालची, कुर्सी का भूखा, भ्रष्ट और सेक्स सहित कई कांड करने वाला माना जाता है। उनपर अपने देश को दुनिया में कमजोर करने के साथ ही शक्ति का ध्रुवीकरण करके अमेरिका का वर्चस्व चीन को सौंपने का भी दोषी कहा जाता है। अच्छा है कि अमेरिका की चुनाव प्रणाली कुछ ज्यादा ही लोकतांत्रिक है, अन्यथा ट्रंप को आने से रोकना संभव न होता। यही कारण है कि चुनाव हारते देखकर ट्रंप धमकी वाले लहजे में बात कर रहे हैं, जबकि ऐसा पहले कभी नहीं हुआ था। यह भी पहली बार हुआ है कि सोशल मीडिया ने राष्ट्रपति ट्रंप की कई गलत बयानियों को पकड़ा। तमाम वेबसाइट्स को ब्लाक किया गया। बावजूद इसके ट्रंप समर्थक हिंसा पर आमादा हैं मगर अमेरिकन मीडिया प्रहरी बना हुआ है।
झूठ बोलने और मक्कारी वाले बयान देने के मामले में हमारे देश के नेता भी किसी से कम नहीं हैं। समस्या यह है कि भारतीय मीडिया इसकी समीक्षा ही नहीं करता है। कुछ डिजिटल प्लेटफार्म सरकार के झूठ को पकड़ने पर काम करते हैं, तो उन्हें प्रताड़ित किया जाता है। हमारे देश में मीडिया को अमेरिकी मीडिया की तरह अभिव्यक्ति की न तो आजादी मिलती है और न ही उनमें इतना दम है। हमारे देश के मीडिया कर्मी शासनाध्यक्षों के साथ सेल्फी लेकर ही खुश हो जाते हैं। मीडिया घरानों के मालिकान सरकार के पिछलग्गू बनने में गर्व महसूस करते हैं। कुछ मीडियाकर्मी तो ऐसे भी मिले, जो कभी उस नेता से मिले ही नहीं जिसके गुणगान में उन्होंने किताबें तक लिख डालीं। इसका नतीजा यह है कि हमारे देश के राजनेता हर स्तर पर झूठ परोसते नजर आये। सत्ता में बैठे नेताओं ने तो हद ही कर दी है। उन्होंने सांख्यकी के आंकड़े तक बदल दिये। यही नहीं, सरकारी वेबसाइट्स पर नियमित रूप से दी जाने वाली सूचनाओं को भी हटा दिया। सत्ता की अनियमितताएं सामने न आयें, इसलिए अपनी सूचनाएं आरटीआई के तहत देने से भी रोका दिया। झूठ की राजनीति हर चुनाव में हमें देखने को मिल रही है मगर हमारे यहां न तो सोशल मीडिया और न ही जनता इस पर खुलकर कुछ बोल रही है। इस झूठ को बिहार चुनाव में भी प्रयोग किया गया। बिहार में साक्षरता भले ही कम हो मगर सियासी परिपक्कता अधिक दिखने को मिली। वहां जनता वास्तविक मुद्दों को लेकर मुखर हुई। इससे लगता है कि अब जनता को भी समझ आने लगा है कि लोकतंत्र बचाना है, तो झूठ-प्रपंच से किनारा करना होगा।
हमारे देश की संस्थाओं ने पिछले एक दशक से यह दम नहीं दिखाया है कि वह सत्ताशीर्ष के गलत आचरण पर कठोर टिप्पणी और कार्यवाही कर सकें जबकि अमेरिका में वह बेखौफ बोल रही हैं। वैश्विक रूप से और देश के भीतर झूठ-प्रपंच के खिलाफ उठ रही आवाज निश्चित रूप से एक अच्छी शुरुआत है। इसे जनता का समर्थन और मीडिया की पहरेदारी मिलनी चाहिए, क्योंकि झूठ ने देश को बरबादी की राह में धकेल दिया है।
जय हिंद!
(लेखक आईटीवी नेटवर्क के प्रधान संपादक मल्टीमीडिया हैं)