Jab ranj diya corona ne to gaon yaad aaya: जब रंज दिया कोरोना ने तो गांव याद आया ?

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कैसी विडंबना है कि आज जब कोरोना वायरस ने रंज दिया तो गांव याद आया है। यह बात गांव छोड़कर विदेशों व महानगरों तथा शहरों में जा चुके लोगों पर सटीक बैठती है। सात संमदर पार रहने वाले और पश्चिमी सभ्यता के रंगों में रंग चुके लोंगो कों अब मातृभूमि याद आने लगी है। इतिहास साक्षी है कि जो अपनी जन्मभूमि को त्यागता है वह सुखी नहीं रह सकता। यह एक अटल सत्य है कि जननी व जन्मभूमि स्वर्ग से भी बढ़कर है। बचपन गांव में बीता मगर माया के मोहजाल में शहर को अपना लिया है। गांव को भूला दिया गया । धन-दौलत कमाने कि खातिर आज मानव मशीन बन गया। मात्भूमि से कटकर शहरों में जिंदगी बिताने लगा और गांव की मिटटी को भूल गया। गांव की मिटटी में सौंधी खुशबू है। सुबह पक्षियों की चहचहाट सुनने को मिलती है।सब कुछ होते हुए भी आज लोग गांव से शहरों की ओर भागते है। आधुनिकता की चंकाचैंध में कुछ लोग ऐसे रंग गए कि गांव छोड़कर शहरों की ओर चले गएशहरों में आपाधापी मची हुई है। माया ही सब कुछ गांव में ताजी हवा है खुला वातावरण है। गांव में हर चीज मिलती है। शुद्ध हवा पानी है। शहरों में  मंजिल के उपर कौन रहता है कोई पता नहीं है। आस-पड़ोस में कौन कब आता है जाता है कुछ पता नहीं है। कौन बीमार है। कोई पता नहीं चलता है। शहरों में रहने वाले बच्चों के पास समय नहीे है। मां-बाप गांव में अकेले रहते है। कोरोना ने ऐसे लोगों को रिश्तों की पहचान करवा दी है। कोरोना ने संस्कारों भटके लोगों को रास्ता दिखा दिया है। गांव में कोई बीमार होता है गांव वाले सहायता करते है। मगर शहरों में सड़क पर तड़फते घायल की फोटो खिची जाती है। शहरों में सवेंदना व ईमानदारी  नाम की कोई चीज नहीं है। शहरों में बसे लोगों ने गांव की जमीने बेच दी बुजुर्गों के मकान गिरा दिए। बुजुर्गों ने एक-एक पत्थर जोड़कर जो घर बनाए थे आज वे खंडहर बन चुके है। गांव की ओर कभी देखा तक नहीं कि धरोहरें कैसी है। शहरों में आलिशान मकान ले लिए। आज लोेग हजारों मील का रास्ता तय करके गांव लौट रहे है। बरसों पहले गांव छोड़ चुके लोगों को अब गांव की जिंदगी रास आने लगी है। गांव में हर आदमी सहायता करता है। शहरों में खुदगर्ज लोग रहते है। पैसा ही सब कुछ है। शहरों में इन्सानियत की मौत हो चुकी है। लाखों अनजान चेहरे रहते है। किसी से कोई लेना देना नहीं है। मतलब होगा तो बात कर लेगें बरना आंख तक मिलाने से परहेज करते है। शहरों में बोतलबंद पानी मिलता है। गांव में कुओं, बावड़ियों व झरनों का शीतल जल मिलता है। गांव में दूध, दही, घी, छाछ मिलती है। शहरों में डिब्बा बंद दूध मिलता है। गांव में स्वच्छता है। आंगन है चैबारे है। कोयल की मिठठी बोली है। पक्षियों का कलरव है। गांव बुरा नहीं है। गांव की जिंदगी शांत है। शहरों में चिलपौं मची हुई है। बाहनों का शोरगुल है। ध्वनि प्रदूषण है। गांव साफ-सुथरे है। बुजुर्गो का आशीर्वाद है। मां-बाप का प्यार है। सुख दुख में लोग भागीदारी निभाते है। कोरोना के डर से आज सालों पहले गांव को अलविदा कहने वाले लौटने पर मजबूर है। समय पता नहीं कैसे -कैसे दिन दिखाता है। अब माता पिता की याद आने लगी है। माता पिता के प्रति फर्ज याद आने लगे है। उनके कर्ज याद आने लगें है। मां-बाप का कर्ज आज तक कोई नहीं लौटा पाया है। अब गांव की स्मृतियां याद आने लगी है। रिश्तों की अहमियत का पता चलने लगा है। भाईचारा है, सवेदना है, दया है धर्म है। इमान है। सम्मान है। संस्कार है। रिश्ते-नाते है अकेलापन नहीं है। बाग है बगीचे है। खेत -खलियान है। देवताओं का आशीर्वाद है। ताजे फल है। मीठा जल है। आम व सेब के बागान है। निष्कर्ष यह है कि आज गांव में हर सुविधाएं होने के बाद भी लोग गांव से पलायन करते है। दादी, नानी की कहानियां आज कहां गुम हो  गई है। मां कि लोरियां कहां है। गांव के चैपाल में झूले झूलने वाले दिन भूल गए। मुसीबत में आज गांव की शरण ले रहे है। संस्कृति व संस्कारो को भूलने वाले आज गांव की पनाह ढूढ रहे है। गुरुओं को भूल गए है। प्रकृति के रौद्र रुप को देखकर गांव का रुख कर रहे है। पिज्जा व बिरयानी व मैगी व जंक फूड के आदी लोगों को  अब सरसों का साग व मक्की की रोटी आज याद आ रही है। आज रिश्तों का स्थान मोबाइल ने ले लिया है। आन लाईन ही सब कुछ हो रहा है मगर प्रकृति ने धूल चाटने को मजबूर कर दिया है। गांव को भूल चुके लोग आज किसी भी कीमत पर वापस आना चाहते है।

नरेन्द्र भारती
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं। यह इनके निजी विचार हैं।)