पू र्व में ऐसे मौके कई बार आए हैं, जब भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) को इस दुविधा का सामना करना पड़ा कि एक ही समय में वह गिरती विकास दर को थामे और बढ़ती महंगाई को भी। मगर अपने ताजा मौद्रिक फैसलों में वह समस्या के करीब आकर फिसलता हुआ दिख रहा है। मौजूदा वित्तीय वर्ष में आर्थिक मंदी ह्यतयह्ण है। अभी तक, खुदरा महंगाई दर भी इतनी नीचे आती नहीं दिख रही कि रिजर्व बैंक के लिए स्थिति सुखद बने। यह मसला मुद्रास्फीति और औद्योगिकी उत्पादन पर आधिकारिक आंकड़ों की कमी से और जटिल हो गया है, क्योंकि कोविड-19 महामारी के कारण विशेषकर अप्रैल और मई महीने में तमाम तरह की गतिविधियां ठप पड़ी रहीं। भारत अभी घरेलू स्तर पर बढ़ रही महंगाई से भी मुकाबिल है।
बाकी दुनिया में तेल की कम कीमत और कमजोर मांग के कारण महंगाई अपेक्षाकृत काबू में है, लेकिन अपने यहां मूल महंगाई और तेल की कीमत, दोनों ज्यादा है। इसीलिए यदि एक पंक्ति में नई मौद्रिक नीति की व्याख्या करनी हो, तो यही कहा जाएगा कि यह खासा उलझाऊ है। रिजर्व बैंक ने महंगाई से जुड़ी चिंताओं का हवाला देकर जोखिम लेने से परहेज किया और बैंक दरों को स्थिर रखने का फैसला भी। सिस्टम में मौजूद जोखिमों को दूर करने जैसे महत्वपूर्ण मुद्दों पर ध्यान देने की बजाय उसने छोटे व मध्यम आकार के उद्योगों और बैंकों को राहत देने का फैसला किया है और कर्ज के प्रवाह के लिए अनुकूल हालात बनाने की राह चुनी है। बहरहाल, महंगाई के इस जटिल ग्राफ को समझने के लिए हमें संदर्भ से थोड़ा अलग हटना होगा।
असल में, कोरोना महामारी से जो असर पड़ा है, उसमें मौद्रिक नीति सुरक्षा की अग्रिम पंक्ति के रूप में काम कर रही है। इसीलिए सीमित आर्थिक मौकों को देखते हुए भारत का उस तरफ झुकाव राजस्व नीति की तुलना में अधिक हो गया है, जबकि मौद्रिक नीति की तुलना में ज्यादा व्यावहारिक न होने के बावजूद राजस्व नीति कहीं ज्यादा प्रभावशाली होती है। रिजर्व बैंक ने शुरू से ही मौद्रिक नीति को खासा तवज्जो दी है। मार्च में, गवर्नर शक्तिकांत दास ने कहा भी कि यह नीति ह्यअग्रिम भूमिकाह्ण निभाएगी और कोविड-19 से विकास पर पड़ने वाले नकारात्मक असर को रोकने का ह्यहरसंभव उपायह्ण करेगी। यह नीति अपने इस वायदे पर खरा उतरी है।
देश की आर्थिक सेहत को सुधारने के लिए हमने बैंक दरों में खूब कटौती (मार्च से कुल 115 बेसिक प्वॉइंट की) की है, बड़े पैमाने पर तरलता का संचार हुआ है और अन्य तमाम कदम उठाए गए हैं। पर बहुत कम लोग होंगे, जिन्हें ऐसे समय में महंगाई के बिन-बुलाए मेहमान की तरह आने की आशंका होगी। असल में, उपभोक्ता मूल्य सूचकांक (सीपीआई) आधारित महंगाई अप्रैल में ही बढ़ने लगी थी, क्योंकि देश भर में लॉकडाउन की घोषणा कर दी गई थी। पेट्रोल और डीजल के खुदरा मूल्यों में वृद्धि ने भी इसे बढ़ाने का काम किया। फिर यह थोड़ी कम भी हुई, लेकिन जून में इसके फिर से बढ़ने की दो मुख्य वजहें थीं। पहली, खाद्य पदार्थों का महंगा होना और दूसरी, मूल मुद्रास्फीति का बढ़ना। हालांकि, हमें यह समझना चाहिए कि मांग की वजह से मूल मुद्रास्फीति उतनी नहीं बढ़ती, जितनी वह सोना, परिवहन और आवागमन में मूल्य-वृद्धि जैसे कारणों से बढ़ती है। अगर इन कारणों को हम नजरंदाज कर दें, तो मूल मुद्रास्फीति 3.9 फीसदी ही है। उपभोक्ता मूल्य सूचकांक आधारित महंगाई में सबसे ज्यादा हिस्सा खाद्य मुद्रास्फीति का होता है, और इसका अनुमान लगाना आमतौर पर मुश्किल है। लेकिन रबी की बंपर पैदावार और खरीफ फसल के लिए अच्छी संभावनाएं खाद्य महंगाई के कम होने के संकेत हैं। वैसे, खबर यह भी है कि कुछ सब्जियों के दाम, मुख्य रूप से टमाटर और आलू के फिर से तेज हो गए हैं। चूंकि सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) घट रहा है, इसलिए सोने जैसे कारकों में मूल्यवृद्धि शायद ही सामान्य महंगाई पर असर डालेगी। साल 2009 के वैश्विक आर्थिक संकट के बाद उदार मौद्रिक और आर्थिक प्रोत्साहन ने अर्थव्यवस्था का विकास उसकी क्षमता से अधिक किया था और उच्च-मुद्रास्फीति का एक माहौल बना था। लेकिन इस बार ऐसा होने की आशंका नहीं है। रिजर्व बैंक ने संभावित महंगाई को लेकर कोई आंकड़ा जारी नहीं किया है, लेकिन यह जरूर कहा है कि अनुकूल स्थिति बन जाने के कारण वित्तीय वर्ष की दूसरी छमाही में महंगाई कम हो सकती है।
वाकई, किसी संकट के समय पूवार्नुमान बहुत विश्वसनीय नहीं माने जाते और ऐसे अनुमान बहुत कम ही टिकते हैं। पॉल डे ग्रेव्यू और यूमेई जी सेंटर फॉर इकोनॉमिक पॉलिसी रिसर्च के एक डिस्कशन पेपर में लिखते भी हैं, ह्यजब अनिश्चितता चरम पर हो, तब दूरदर्शी केंद्रीय बैंकों को अविश्वसनीय अनुमानों के आधार पर अपनी नीतियां नहीं बनानी चाहिए, बल्कि मौजूदा हकीकत के मुताबिक तय करनी चाहिएह्ण। क्रिसिल का यह अनुमान है कि साल 2020-21 में खुदरा महंगाई दर औसतन 4.7 फीसदी रहेगी, जबकि दूसरी छमाही में यह घटकर 3.4 फीसदी पर आ जाएगी। यदि हमारे अनुमान सच साबित होते हैं, तो यकीनन अक्तूबर में जारी रिजर्व बैंक की नीति में बैंक दरों में कटौती होनी चाहिए। अब विकास के मोर्चे पर नकारात्मक जोखिम भी सामने आ रहे हैं। अर्थव्यवस्था के लिए यह एक कठिन मुकाम है, लेकिन हमें कितना नुकसान होगा, इसका आकलन करने के लिए अगस्त के अंत तक का इंतजार करना चाहिए, जब जीडीपी का नया डाटा सामने आएगा।
मई के बाद हुए कुछ सुधार के बावजूद हम सामान्य से कम विकास की ओर बढ़ रहे हैं। इसमें वृद्धि शायद ही हो, क्योंकि अभी हर क्षेत्र महामारी-पूर्व की अपनी स्थिति से कमतर ही है। क्रिसिल का आकलन यह भी है कि साल 2020-21 में वास्तविक जीडीपी पांच फीसदी होगी, साथ ही नॉमिनल जीडीपी भी 1950 के दशक के बाद पहली बार गोते लगाएगी। हमारे पूवार्नुमान के सामने सबसे बड़ी चुनौती कोरोना महामारी थी। विशेषकर टियर-2 शहरों में बचाव के उपाय या लॉकडाउन फिर से लागू किए जाने के कारण आर्थिक गतिविधियां थम जाएंगी। जाहिर है, आज बड़े पैमाने पर आर्थिक प्रोत्साहनों की दरकार है। इसके अभाव में हमें मौद्रिक नीति पर ही भरोसा ज्यादा करना होगा। रिजर्व बैंक ने बता भी दिया है कि उसके तरकश में बैंक दरों के अलावा दूसरे कई तीर भी हैं।
धर्मकीर्ति जोशी
(लेखक चर्चित अर्थशास्त्री हैं।यह इनके निजी विचार हैं।)