किसी भी देश मे चुनाव जनमत का अक़्स होता है। यह जनता की राय नहीं होती है यह केवल जनता का इतना मत होता है कि वह अमुक दल या व्यक्ति को चाहती है या अमुक व्यक्ति या दल को नहीं चाहती है। जिस बिंदु पर जनता की राय ली जाती है, वह प्रक्रिया जनमत संग्रह या रेफरेंडम कहलाती है। आज का विमर्श हाल ही में हुये महाराष्ट्र, हरियाणा के विधानसभा चुनाव और कश्मीर में हुये बीडीसी के चुनाव के सम्बंध में है।
हरियाणा और महाराष्ट्र विधानसभा के चुनाव 21 अक्तूबर को सम्पन्न हुये और 24 को मतगणना भी हो गयी। महाराष्ट्र में भाजपा, शिवसेना गठबंधन को पूर्ण बहुमत मिला जबकि हरियाणा विधानसभा में त्रिशंकु स्थिति रही और किसी भी दल को बहुमत नहीं मिला। लेकिन भाजपा के 40 विधायकों ने दुष्यंत चौटाला की पार्टी जेजेपी 8 विधायको के साथ मिलकर सरकार बनाई है। जेजेपी पूरे चुनाव के दौरान भाजपा के खिलाफ थी पर चुनाव के बाद वह भाजपा की सहयोगी पार्टी बन गयी। भारतीय राजनीति के लिये यह कोई अनोखी बात नहीं। हमे यह नहीं भूलना चाहिये कि दल बदल की परंपरा हरियाणा में बहुत पुरानी है। आयाराम गयाराम जैसे मुहावरे का जन्म ही हरियाणा में हुआ था।
यह देखना दिलचस्प होगा कि, हरियाणा और महाराष्ट्र के चुनाव में जनता किन मसलों पर सरकार से उसका मन्तव्य चाहती थी और सरकार की पार्टी भाजपा ने किन मुद्दों को उनके बीच रखा। हरियाणा में मुख्य मुद्दा बेरोजगारी और मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर में गिरावट के कारण, जन असंतोष का था। पिछले पांच साल में हरियाणा में बेरोजगारी की दर बहुत अधिक बढ़ गयी है। नए रोजगार का सृजन तो हुआ नहीं, ऊपर से हरियाणा के फरीदाबाद, गुरुग्राम के औद्योगिक इलाको के उद्योगों में गिरावट आने से जो नौकरियां थी वह भी कम हो गयीं। सरकार ने इस औद्योगिक उत्पादन के गिरावट को रोकने के लिये कोई कदम भी नहीं उठाया। हालांकि सरकार बहुत कुछ कर भी नहीं सकती थी। इसका कारण, राज्य सरकारों के पास ऐसे मामलों में सीमित विकल्प का होना है । क्योंकि औद्योगिक और निवेश नीति भारत सरकार के आर्थिक नीतियों के आधार पर चलती है। चूंकि पूरे देश मे आर्थिक मंदी का दौर चल रहा है अत: हरियाणा इससे अछूता नहीं रह सकता है।
आंकड़ों के अनुसार, हरियाणा में बेरोजगारी की दर देशभर के बड़े राज्यों में सबसे अधिक है। सैंटर फार मॉनिटरिंग आॅफ इंडियन इकोनॉमी (सी.एम.आई.ई.) द्वारा जनवरी 2019 से अप्रैल 2019 में बेरोजगारी की स्थिति पर जारी रिपोर्ट के अनुसार जहां पूरे देश में बेरोजगारी दर 6.9 प्रतिशत थी, वहीं हरियाणा में यह दर 20.5 प्रतिशत थी जो कि अन्य किसी भी बड़े राज्य से अधिक थी। हरियाणा से अधिक बेरोजगारी दर सिर्फ त्रिपुरा में थी। इसी संगठन की अगस्त 2019 के अंतिम सप्ताह की रिपोर्ट के अनुसार भी यही स्थिति बरकरार थी।
भारत में बेरोजगारी की स्थिति पर प्रकाशित होने वाली इस सबसे विश्वसनीय रिपोर्ट के मुताबिक अप्रैल 2019 में हरियाणा में कुल 19 लाख बेरोजगार थे, जिनमें से 16.14 लाख दसवीं पास थे और 3.88 लाख उच्च शिक्षा प्राप्त थे (ग्रैजुएट या ऊपर)। बेरोजगारी की बुरी अवस्था का परिचायक यह भी है कि 10 वीं या 12 वीं पास युवाओं में बेरोजगारी दर 29.4 प्रतिशत जैसे ऊंचे स्तर पर है। सबसे भयावह स्थिति 20 से 24 वर्ष के उन युवाओं की है जो पढ़ाई पूरी कर अब रोजगार ढूंढ रहे हैं। इस वर्ग में 17 लाख में से 11 लाख युवा बेरोजगार हैं और बेरोजगारी की दर रिकॉर्ड तोड़ गति से बढ़ रही है। इतने भयावह आंकड़े पर दुनिया में कहीं भी मीडिया की सुर्खियां बनतीं, सड़क पर आंदोलन होते लेकिन हरियाणा में अजीब चुप्पी है। अगर सिर्फ सरकारी आंकड़ों की बात करें तो पिछले साल भारत सरकार के राष्ट्रीय सैंपल सर्वेक्षण संगठन द्वारा जारी रिपोर्ट के अनुसार भी हरियाणा में राष्ट्रीय औसत से लगभग दोगुनी बेरोजगारी थी। आंकड़ों को भूल भी जाएं तो हर गांव और मुहल्ले में बेरोजगार युवकों की फौज देखी जा सकती है। सरकारी नौकरी का बैकलॉग भरने के वादे की स्थिति यह है कि सरकार इन प्रश्नों का जवाब देने से बच रही है। सत्ता ग्रहण करते समय सरकारी विभागों और अर्ध सरकारी विभागों में नौकरियों का कितना बैकलॉग था, उनमें से कितनी नौकरियां अब तक भरी गईं और कितने पद आज भी रिक्त पड़े हैं, इसका कोई संतोषजनक उत्तर सरकार के पास नहीं है। एक आरटीआई से मिली जानकारी के अनुसार प्रदेश के 15 जिलों में ही 15 लाख से अधिक बेरोजगार थे। रोजगार कार्यालय में पंजीकृत इन युवाओं में से मात्र 647 को रोजगार मिला। इस गंभीर स्थिति पर कार्रवाई या सुधार करने की बजाय भाजपा की सरकार ने सूचना देने वाले अधिकारियों पर ही कार्रवाई कर दी। बाद में 26 फरवरी 2019 को विधानसभा में दावा किया कि पंजीकृत बेरोजगारों की संख्या केवल 6.18 लाख है। इनमें भी सरकार केवल 2461 युवाओं को ही काम दिलवा पाई थी। यानी कि आर.टी.आई. सूचना की मानें या विधानसभा के जवाब को, यह स्पष्ट है कि हरियाणा सरकार रोजगार कार्यालय में पंजीकृत 1 प्रतिशत युवाओं को भी रोजगार नहीं दे पाई। महाराष्ट्र हरियाणा की तुलना में एक बड़ा राज्य है और कृषि के मामले में हरियाणा की अपेक्षा कम विकसित है। पर कुछ क्षेत्रों में जहां सिंचाई की सुविधा है वहां खेती बहुत ही अच्छी है। गन्ना, प्याज, कपास वहां की मुख्य फसल है। फिर भी वहां के किसान हरियाणा की तुलना में बहुत पीड़ित हैं। हाल के वर्षों में सबसे अधिक किसानों द्वारा आत्महत्या के मामले महाराष्ट्र से ही आये हैं। उसमे भी सबसे अधिक विदर्भ से आये मामले हैं। इसका कारण वहां सूखा और सिंचाई की पर्याप्त सुविधा का न होना है। इस प्रकार वहां इस चुनाव में मुख्य मुद्दा किसानों की आत्महत्या और उनकी समस्या होनी चाहिये थी। दो बड़े बड़े और प्रभावी किसान लोंग मार्च किसान सभा द्वारा, नाशिक और पुणे से मुंबई तक किसानों द्वारा निकाले गए, सरकार ने कर्ज माफ करने, सिंचाई सुविधा को बढ़ाने आदि के लिये वादे भी किये पर कोई उल्लेखनीय लाभ सरकार किसानों तक नहीं पहुंचा सकी। आत्महत्या की दु:खद दर रुक नहीं पायी और अब भी स्थिति जस की तस है। अब एक नजर महाराष्ट्र के किसानों की आत्महत्या पर डालें। महाराष्ट्र के विदर्भ में पिछले पांच महीने में 504 किसानों ने आत्महत्या की.है। अब भी राज्य में किसानों की आत्महत्या का सिलसिला थमने का नाम नहीं ले रहा है। आंकड़ों के अनुसार, राज्य में पिछले पांच महीने में यानी मई के आखिर तक 1092 किसानों ने आत्महत्या की है। साल 2017 के मुकाबले यह आंकड़ा सिर्फ 72 कम है। यानी पिछले साल 1164 किसानों ने आत्महत्या की थी। टाइम्स आॅफ इंडिया की एक खबर के अनुसार, राज्य के सूखाग्रस्त इलाके मराठवाड़ा में पिछले पांच महीनों में 396 किसान आत्महत्या कर चुके हैं, जबकि साल 2017 में मई तक इस क्षेत्र के 380 किसानों ने आत्महत्या की थी.। किसान संगठनों का मानना है कि जब तक उन्हें, उनकी फसलों का उचित मूल्य नहीं मिलेगा, तब तक किसानों की आमदनी में कोई भी बढ़ोतरी नहीं होगी।
(लेखक सेवानिवृत्त आईपीएस अधिकारी हैं)