पाकिस्तान के महानगर कराची में गत 11-12 सितंबर को सुन्नी (अहल-ए-सुन्नत) मुसलमानों के विभिन्न संगठन जिस समय सामूहिक रूप से एक विशाल प्रदर्शन पाकिस्तान के शिया समुदाय को लक्ष्य बनाते हुए आयोजित कर रहे थे और कई वक्ता जिनमें अधिकांशत: मौलवी, मुफ़्ती, हाफिज व कारी आदि ही थे, लाखों की भीड़ को देखकर उत्साहित होते हुए पूरी दुनिया को मुसलमानों की ताकत दिखाते हुए ‘ललकार’ रहे थे ठीक उसी दिन अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप एक ट्वीट से दुनिया को यह सूचित कर रहे थे कि – ‘आज एक और ऐतिहासिक सफलता!
हमारे दो महान दोस्त इजरायल और बहरीन साम्राज्य एक शांति समझौते के लिए सहमत हैं – 30 दिनों में इजरायल के साथ शांति बनाने वाला दूसरा अरब देश!’ राष्ट्रपति ट्रंप बताना चाह रहे थे कि जिस तरह गत माह संयुक्त अमीरात अर्थात यूएई, इजराइल के साथ अपने संबंध सामान्य करने पर राजी हो गया था उसी तरह अब बहरीन साम्राज्य ने भी शांति समझौता कर इजराईल से अपने मधुर रिश्ते बना लिए हैं। गौर तलब हैं कि यू ए ई व बहरीन जैसे सुन्नी बाहुल्य व सुन्नी शासकों द्वारा शासित साम्राज्य उन्हीं अरब देशों में शामिल हैं जो दशकों से यह कहते रहे हैं कि जब तक फिलिस्तीनियों को उनके अधिकार नहीं मिल जाते तब तक इस्राईल का बहिष्कार भी जारी रहेगा तथा उसके साथ किसी भी तरह के संबंध बहाल करने का सवाल ही पैदा नहीं होता।
आश्चर्य है कि पाकिस्तान के जो कठमुल्ला अपनी ताकत का प्रदर्शन कर पूरे विश्व को सुन्नी मुस्लिम एकता का सन्देश दे रहे थे साथ साथ पाकिस्तान के शियाओं को भी धमका व ललकार रहे थे उनकी इस ‘महा शक्ति ‘ का एहसास यू ए ई व बहरीन के सुन्नी शासकों को क्यों नहीं हुआ? जो कठमुल्ले वक्ता उसी मंच से अमेरिका पर भी निशाना साध रहे थे उसी अमेरिकी साजिश का शिकार आखिर मध्य पूर्व के दो प्रमुख सुन्नी साम्राज्य कैसे हो गए? इस्लाम के इन सुन्नी झंडा बरदारों ने आखिर उसी इस्राईल के सामने घुटने क्यों टेक दिए जो दशकों से अरब की सर जमीन पर कब्जा करते हुए फिलिस्तीनियों के अधिकारों का हनन करता आ रहा है?
कराची में 11 सितंबर को इकट्ठी हुई बेरोजगारों की भीड़ तथा इन्हें गुमराह कर पाकिस्तान में भी अस्थिरता की साजिश रचने वाले मुट्ठी भर कठमुल्लाओं को यह नहीं भूलना चाहिए कि वे जिस शिया समुदाय को अल्पसंख्यक होने के कारण पाकिस्तान में आँखें दिखा रहे हैं वही शिया बाहुल्य देश ईरान इस समय दुनिया का अकेला ऐसा देश है जो अमेरिका और इस्राईल की आंखों की किरकिरी बना हुआ है।
वजह साफ है कि फिलिस्तीन के मुद्दे पर ईरान का जो नजरिया कल था वही आज है जबकि मुस्लिम जगत का ठेकेदार बनने वाले मौका परस्त अरब देशों का फिलिस्तीन के प्रति नजरिया अमेरिका व इजराईल के प्रति घुटने टेकने वाला है जिसके चलते फिलिस्तीनी अवाम आज पहले से ज्यादा फिक्रमंद नजर आने लगी है।
बहरहाल, अमेरिका-इस्राईल साजिश के तहत बुलाई गयी इस रैली में जिसे ‘नामूस-ए-सहाबा’ रैली का नाम दिया गया था, मुस्लिम वहाबी वर्ग के लोगों की बहुसंख्या थी परन्तु सुन्नी एकजुटता दिखाने के लिए कुछ बरेलवी व अहले हदीस समुदाय के वक्ता जरूर बुलाए गए थे। इस रैली में जो नारे बार बार लगाए जा रहे थे उनमें अहले बैत (हजरत मोहम्मद के परिजन), खास तौर पर हजरत इमाम हुसैन,हजरत अब्बास सभी के जिÞंदा बाद के नारे लगाए जा रहे थे साथ साथ इमाम हुसैन के कातिल यजीद के मुदार्बाद व उसपर लानत भेजने वाले गगनभेदी नारे भी लग रहे थे। इन नारों पर शिया व सुन्नी दोनों समुदायों को कोई भी आपत्ति नहीं है। सुन्नी समुदाय को सबसे बड़ी आपत्ति इस बात को लेकर है कि शिया समुदाय के लोग पैगंबर हजरत मोहम्मद के देहांत के बाद एक के बाद एक कर बनाए गए चार खलीफाओं में से पहले तीन यानी हजरत अबू बक्र,हजरत उमर व हजरत उस्मान को अपना खलीफा मानने से इनकार करते हैं ,इतना ही नहीं बल्कि चौथे खलीफा हजरत अली को भी मानते तो हैं परन्तु सुन्नी समुदाय द्वारा स्वीकृत चौथे खलीफा के रूप में नहीं बल्कि इमामत के सिलसिले के पहले इमाम के रूप में। इसी तरह यजीद के वालिद हजरत मुआविया को भी शिया समाज स्वीकार नहीं करता जबकि सुन्नी समुदाय हजरत मुआविया को भी सहाबी-ए-रसूल और अमीर-मुआविया के रूप में पूरे सम्मान व श्रद्धा की नजरों से देखता है।
शिया समाज का मानना है कि हजरत मोहम्मद चूंकि अपने जीवन में स्वयं अपना उत्तराधिकारी हजरत अली को हज के दौरान गदीर के मैदान में सार्वजनिक रूप से नियुक्त कर गए थे इसलिए पैगंबर के देहांत के बाद उनके निदेर्शों की अवहेलना करना व उनके देहांत के बाद स्वयंभू रूप से चुनाव कर खिलाफत का सिलसिला शुरू करना कतई तौर पर पैगंबर हजरत मोहम्मद के निदेर्शों व उनकी इच्छाओं की अवहेलना है।और करबला की घटना के बाद यही वैचारिक जंग इतनी आगे बढ़ गयी जिसने पूरे विश्व में मुस्लिम जगत में विभाजन की दो गहरी लाइनें खींच दीं।
पैगंबर हजरत मोहम्मद,उनकी बेटी हजरत फातिमा उनके पति हजरत अली व उनके दोनों बेटों हजरत इमाम हसन व हुसैन (अहल-ए-बैत) को मानने वाले तथा इसी सिलसिले को आगे बढ़ने वाली इमामत परंपरा का अनुसरण करने वाले शिया कहे गए जबकि खिलाफत परंपरा को मानने वाले तथा यजीद के वालिद मुआविया को अमीर-ए-मुआविया स्वीकार करने वाले सुन्नी जमाअत के लोग हैं। इन दोनों समुदायों को एक दूसरे से समस्या इस बात को लेकर है कि प्राय: अनेक शिया मौलवी व वक्ता अपने प्रवचन के दौरान विशेषकर मुहर्रम के दिनों में आयोजित होने वाली मजलिसों के दौरान तीनों खलीफाओं व मुआविया सहित कुछ ऐसे लोगों के इतिहास खंगालने लगते हैं जिन्हें सुन्नी समुदाय के लोग मान सम्मान की नजरों से देखते हैं। प्रचलित भाषा में इसे तबरेर्बाजी कहा जाता है। जबकि शिया उलेमा कहते हैं कि वे जो कुछ भी बयान करते हैं वह एक सच्चाई है।
तनवीर जाफरी
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं। यह इनके निजी विचार हैं।)