Is the detention of Kashmiri leaders justified ? जायज है कश्मीरी नेताओं की नजरबंदी?

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जम्मू-कश्मीर पर सरकार का निर्णय दृढ़ है फिलहाल उसमें कोई बदलाव होने वाला नहीं है। गुजरात में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने संबोधन में यह स्थिति और साफ कर दिया कि कश्मीर में धारा-370 हटाने की अभिप्रेरणा सरदार पटेल से प्रेरित है। मोदी के इस बयान से साफ होता है कि कश्मीर अब कोई मसला नहीं है। पाकिस्तान कश्मीर पर राग अलापना छोड़ दे। विपक्ष और भारत विरोधी तागतें यह राग अलाप रही है कि कश्मीर में हालात फिलहाल ठीक नहीं हैं। राज्य में सेना की किलेबंदी है। लोगों में भय और डर का महौल है। शैक्षणिक संस्थान शुचारु रुप से काम नहीं कर रहे हैं। आम कश्मीरी सड़कों पर निकलने से डर रहा है। कश्मीरी नेताओं को नजरबंद किया गया है। लोगों को स्वास्थ्य सुविधाएं नहीं मिल पा रही हैं। मीडिया पर सेंसरशिप है। धारा-370 और 35-ए खत्म होने के 45 दिन बाद भी हालात वैसे हैं। इस तरह की बातें विपक्ष और कश्मीरी नेताओं की तरफ से आ रही हैं। सुप्रीमकोर्ट में अपनी रिहाई के लिए कश्मीरी नेता और अलगाववादी कई याचिकाएं दाखिल कर रखी हैं।
सवाल उठता है कि कश्मीर के इस हालात का जिम्मेदार कौन हैं। कश्मीर अगर इस स्थिति पहुंचा है तो उसकी जबाबदेही किसकी है। कश्मीर के हालात क्या इस तरह के है कि वहां से सेना हटा ली जायं। क्योंकि मोदी सरकार की तरफ से धारा-370 पर लिया गया फैसला कोई सामान्य निर्णय नहीं कहा जा सकता है। सरकार भी यह अच्छी तरह जानती है कि फैसले के बाद के उभरे हालात को नियंत्रित करना अधिक मुश्किल होगा। क्योंकि कश्मीर के स्थानीय नेता और अलगाववादी भारत सरकार के इस फैसले को कभी नहीं पचा सकते हैं। वह चाहते हैं कि कश्मीर पर भारत का कोई कानून न लागू हो। यह एक स्वतंत्र देश बने। अगर ऐसा न होता तो घाटी में आए दिन प्रदर्शन के दौरान आजादी-आजादी के नारे न लगाए जाते हैं। क्योंकि जम्मू-कश्मीर से विशेष राज्य का दर्जा खत्म होने के बाद अलाववादी दिक्कत में हैं। क्योंकि अभी तक कश्मीर को मिले विशेष राज्य की सुविधा को तहत अलगाववादियों को विशेष सुविधाएं मिलती थीं। कश्मीर की स्वायत्तता के नाम पर ही उनकी रोटी पकती थी। भारत विरोधी मुहिम में लगा पाकिस्तान और दूसरे मुल्कों से अलगावादियों को मोटी रकम उपलब्ध करायी जाती थी। सेना के खिलाफ आम कश्मीरियों को भड़का कर आतंकी और अलगावादी अपनी रोटी सेंकते थे। वह आम कश्मीरियों को भड़काते थे कि आम कश्मीरियों के वजूद की असली वजह धारा-370 और 35 ए है। अगर यह खत्म हो जाएगी तो हमारा वजूद खत्म हो जाएगा। जिनके बहकावे में आकर कश्मीरी युवा सेना पर पत्थरबाजी करते थे। सिविल पुलिस सेना के जवानों पर मुकदमें लादती थी। हमारे सैनिक इतने मजबूर थे कि वह चाहकर भी गोलिया नहीं चला सकते थे।
कश्मीर में क्या अलगाववादी नेताओं को छोड़ने शांति बहाली हो जाएगी। बाप-बेटे फारुख अब्दुल्ला, उमर अब्दुल्ला और मुफती महबूबा समेत दूसरे नेताओं को नजरबंदी से रिहाई के बाद अशांति नहीं फैलेगी। क्या अलगववादी और उनका समर्थन करने वाले कश्मीर के राजनेता सरकार के फैसलों को कबूल कर लेंगे। कश्मीर में कोई हिंसा, आगजनी और पथराव की घटनाएं नहीं होंगी। इन सब बातों की क्या कोई गांरटी दे सकता है। जेल या नजरबंदी से छूटने के बाद संबंधित नेता क्या लोगों के बीच जाकर यह पैगाम बांटेगे कि भारत सरकार ने धारा-370 खत्म कर आम कश्मीरियों के हित की बात की है। हम भारत सरकार के साथ हैं। हम एक राष्टÑ, एक विधान और एक निशान का समर्थन करते हैं। अलगाववादियों से इस बात की कभी उम्मीद की जा सकती है। अगर नहीं तो 45 दिन में कश्मीर में अमन-चयन की उम्मीद करना बेइमानी होगी। ऐसे लोग जिनकी भूमिका पहले से संदिग्ध हैं उनकी मांगों पर सरकार कैसे विचार कर सकती है। जो लोग जो खुले आम कश्मीर में अलगाववाद की आग भड़काते हैं। कश्मीर के हालात को सुधरने में वक्त लगेगा। उस स्थिति में कश्मीरी नेताओं और विपक्ष को सरकारात्मक भूमिका निभानी चाहिए। विपक्ष को धौर्य रखना चाहिए। सुप्रीमकोर्ट मुख्य न्यायधीश रंजन गोगोई की यह टिप्पणी सच है कि सराकर कश्मीर में लोकतांत्रिक व्यस्था को बहाल करे। लोगों को बेहर चिकित्सा सुविधा मुहैया कराए। स्कूलों में पठन-पाठन सामान्य हो। अस्पतालों में लोगों को दवा और इलाज की सुविधा मिले। गोगोई कश्मीर के हालात जानने के लिए खुद श्रीनगर जाने की बात भी कही है। लेकिन यह समस्या चुटकी बजाते हल होने वाली नहीं है। कश्मीर के हालात सुधरने में अभी वक्त लगेगा। फिलहाल सरकार का यह दायित्व है किवह नागरिकहितों का खयाल रखे जिससे लोगों के लोकतांत्रित अधिकारों की रक्षा हो।
कश्मीर को लेकर राजनीतिक दलों को स्वार्थ का नजरिया त्यागना होगा। उन्हें कश्मीर पर सकारात्मक नजरिया रखना होगा। क्योंकि यह मसला बेहद संवेदनशील है। गलत बयानबाजी से बचना होगा। क्योंकि यह मसला सीधे राजनीतिक होते हुए भी गैर राजनीतिक है। कश्मीर भारत की अस्मिता से जुड़ा है। पाकिस्तान या दुनिया का कोई भी मुल्क इसे भारत से कभी छिन नहीं सकता। मोदी सरकार ने एक कलंक को खत्म किया है। कश्मीर को जब विशेष राज्य का दर्जा मिला था तो उस समय वहां के हालात ऐसे रहें होंगे जबकि कश्मीर को विशेष सुविधाएं मिली थीं। लेकिन अब स्थितियां बदल गई हैं। फिर विशेष प्राविधान का कोई मतलब नहीं रह जाता है। कश्मीर राजनेता भारत के साथ कम   पाकिस्तान से अधिक हमदर्दी दिखाते हैं। अलगाववादी कैसी आजादी की हिमायत करते हैं। उन्हें कैसी आजादी चाहिए। कांग्रेस नेता गुलामनबी आजाद को सुप्रीमकोर्ट ने बारामूला, अनंतनाग, श्रीनगर और जम्मू जाने की अनुमति दे दिया है। लेकिन उन्हें सभा करने की आजादी नहीं होगी। कश्मीरी नेताओं को रिहा करने के लिए सुप्रीमकोर्ट में आठ से अधिक याचिकाएं हैं जिन पर 30 सितम्बर को सुनवाई होनी हैं। जिसमें फारुख अब्दुल्ला और दूसरे नेता शामिल हैं। फारुख अब्दुल्ला को पब्लिक सेफ्टी एक्ट के तरह गिरफतार कर लिया गया है। क्योंकि अभी तक उन्हें नजरबंद रखा गया था। जिस पर कोर्ट ने सरकार से जबाब मांगा था कि अब्दुल्ला गिरफतार हैं या नहीं। अगर सरकार गिरफतारी की बात करती तो उसे कोर्ट में मुश्किल होती। ऐसी स्थिति में उन्हें पब्लिक एक्ट में गिरफ्तार कर लिया गया है। गृहमंत्री अमितशाह ने कश्मीर में अशांति की बात से साफ इनकार किया है। उन्होंने कहा है कि 05 अगस्त 2019 के बाद कश्मीर में एक भी गोली नहीं चली है। जबकि इसके पहले 1990 से लेकर धारा-370 खत्म होने से पूर्व 41,866 लोगों की मौत हुई है। हिंसक झड़प की 71,038 घटनाएं हुईं। इस दौरान 15,292 सुरक्षाबलों को जान गंवानी पड़ी। सरकार साफ तौर पर कह रही है कि जम्मू-कश्मीर के कुछ हिस्सों को छोड़ कर 90 फीसदी से अधिक इलाकों में शांति है। स्कूल खुले हैं। अस्पतालों में लोगों को दवाएं और दूसरी स्वास्थ्य सुविधाएं मिल नहीं है। मीडिया पर अघोषित इमरजेंसी लगाने जैसे बात नहीं है। कवरेज के लिए कम्प्युटर और लैंडलाइन की सुविधा उपलब्ध कराई गयी हैं हालांकि वहां से निकले वाले अखबार और पत्रकारों की संख्या को देखते हुए यह नाकाफी है। लेकिन फिर भी सुविधाएं उपलब्ध हैं उससे इनकार नहीं किया जा सकता है। कश्मीर नेताओं की रिहाई सरकार के लिए मुश्किल पैदा कर सकती है। यह वक्त राजनीति का नहीं देशहित में अडिगता के साथ खड़े रहने का है। सरकार को अपने अपने तरीके से काम करने देना चाहिए। लेकिन सरकार का यह नैतिक दायित्व है कि वह हरहाल में लोकतांत्रिकहितों का संरक्षण करे और आम लोगों की परेशानियों का पूरा खयाल रखे। सरकार की तरफ से कश्मीर पर लिया गया फैसला देशहित में हैं। विपक्ष को इस बात को समझना चाहिए। जहां तक कश्मीर में शांति बहाली की बात है उस पर कुछ कहना अभी जल्दबाजी होगी। जब तक सरकार आम कश्मीरियों में विश्वास पैदा करने में सफल नहीं होती यह डगर बेहद मुश्किल है।