जनसंख्या किसी भी देश के विकास मानकों को काफी प्रभावित करती है। 1951 में आजाद भारत की पहली जनगणना हुई और उस वक्त भारत कि जनसंख्या 36.10 करोड़ थी। 2011 में हुई भारत की अब तक की आखिरी में आबादी विस्फोटक रूप से बढ़कर 121.08 करोड़ हो गई थी।
अगर हम वर्ल्ड बैंक और यूएससीबी के आंकडों को देखें तो पाएंगे कि भारत कि आबादी 2018 में 135.26 करोड़ हो गई। लेकिन क्या आबादी सच में इतनी बड़ी समस्या है शायद नहीं। क्योंकि ये आंकड़े सत्य का एक पहलू हैं। मैंने अपना पिछला लेख बेरोजगारी पर लिखा था। उस वक्त मेरे पास कई संदेश आए कि अगर बेरोजगारी बढ़ रही है तो क्या आबादी नहीं बढ़ रही सत्ता में बैठे लोग जब बेरोजगारी पर काबू नहीं पा पाते तो इसका रोना आबादी पर फोड़ देते हैं। लोगों का इस अर्धसत्य पर पूर्णत: विश्वास कर लेना ही सरकारों की मन मांगी मुराद है। लोगों को आंकड़ों पर नजर डालनी चाहिए और सोचना चाहिए कि वे ऐसे कुतर्क करके खुद का ही नुक्सान कर रहे हैं।
सत्ता के लिए ऐसे कुतर्क उसकी अव्यवस्था को छुपाने के लिए वरदान हैं। 1965 में द इकनोमिक वीकली में प्रकाशित वी.आर.के. तिलक के अध्ययन में जिक्र किए गए एनएसएस के आंकड़ों से पता चलता है कि- 1951 में बेरोजगारों कि संख्या 3.60 लाख थी जो 1961 में 65 लाख के करीब पहुंच गई थी। लेकिन ये उस वक्त के आंकड़े हैं जब भारत में ज्यादातर रोजगार कृषि क्षेत्र के थे जो मानसून के झटके या किसी प्राकृतिक आपदा कि वजह से प्रभावित हो जाया करते थे। लेकिन बेरोजगारी की यह ताजा लहर को हम आजाद भारत की सबसे घातक लहर भी कह सकते हैं। बेरोजगारी के लिए जनसंख्या को जिम्मेदार बताने वालों को कुछ उपलब्ध आंकड़ों पर भी नजर डालनी चाहिए। 2011 की जनगणना और इंटरनेशनल इंस्टीट्यूट आॅफ पॉपुलेशन साइंसेज के शोध के आधार पर आर्थिक समीक्षा (2018-19) के जनसंख्या को लेकर ताजा आंकड़ों से पता चलता है कि भारत में आबादी बढ़ने की दर 2011-16 के बीच केवल 1.3 प्रतिशत रह गई है जो 1971 से 1981 के बीच में 2.5 प्रतिशत थी। यह रफ्तार अब दक्षिण एशिया के प्रमुख देशों के करीब है और निम्न/मझोली आय वाले देशों से कम है। दक्षिण भारत, बंगाल, पंजाब, असम, हिमाचल, महाराष्ट्र, ओडिशा समेत 13 राज्यों में आबादी बढ़ने की दर 1 प्रतिशत कम हो गई है जो लगभग यूरोप के बराबर है। आंकड़ों में अंदर घुसने पर हमें पता चलेगा कि 1971 से 2016 के बीच भारत में कुल प्रजनन दर 5.3 से घटकर आधी 2.3 रह गई है। नतीजतन भारत के करीब 13 राज्यों में अब रिप्लेसमेंट फर्टिलिटी दर 2.1 प्रतिशत से नीचे आ गई है।
दक्षिण और पश्चिम के राज्यों में यह दर अब 1.4 से 1.6 के बीच आ गई है। विभिन्न आंकलनों से पता चलता है कि- 2031 तक भारत में जनसंख्या वृद्धि दर घटकर 1 प्रतिशत हो जाएगी और 2041 तक यह 0.5 प्रतिशत ही रह जाएगी। 2021-31 के बीच करीब 97 करोड़ लोग काम करने की ऊर्जा से भरपूर होंगे। मौजूदा दर पर भारत में 2041 तक युवा आबादी का अनुपात अपने चरम पर पहुंच चुका होगा। इसके बाद यह आबादी बूढ़ी होने लगेगी। दक्षिण के राज्यों 2030 से ही बूढ़ेशुरू हो जाएगा। अगर इस युवा अवस्था में भारत सही दिशा में नहीं मुड़ पाया तो बुढ़ापे में कैसे मुड़ पाएगा।
हम आबादी का रोना रो सकते हैं लेकिन यह एक ऐसा वक्त है जब युवा देश के भूगोल और स्थितियों में महत्वपूर्ण बदलाव ला सकता इसकी शर्त यह है कि युवा अपने आप को किसी छल का शिकार ना होने दे। जो लोग बेरोजगारी पर जनसंख्या का रोना रो देते हैं, उनसे मेरे कुछ सवाल हैं- क्या आबादी बीते सालों में ही बढ़ गई है आंकड़े इस कुतर्क को ध्वस्त कर देते हैं। क्या आजादी के बाद से आबादी नहीं बढ़ी थी क्योंकि उस वक्त बेरोजगारी दर मात्र 2.2 प्रतिशत थी।
क्या आबादी हाल में 4 गुना बढ़ गई है क्योंकि बेरोजगारी अब 4 गुना बढ़ चुकी है। अगर 75 लाख रोजगार सालाना से हम 25 लाख रोजगार पर आ गए हैं और बीते सालों आजादी के बाद पहली बार इतने बड़े पैमाने पर रोजगार खत्म हुए हैं तो इसमें आबादी का क्या दोष क्योंकि यहां रोजगार बढ़ने के बावजूद बेरोजगारी नहीं बढ़ी बल्कि रोजगार कम हो जाने कि वजह से बेरोजगारी बढ़ी है। फिलहाल ऐसा सवाल पूछने वाले निश्चिंत रहें और आबादी को अपनी नाकामियों का दोष बिना तथ्यों को परखे देते रहें। किसे क्या फर्क पड़ता है।
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं। यह इनके निजी विचार हैं।)
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