यह भी पहली बार ही हम देख रहे हैं कि कुछ लोग शिक्षा और स्वास्थ्य को सर्वसुलभ करने की मांग के बजाय उसे महंगी किये जाने के सरकारी निर्णय पर सरकार के साथ हैं। जैसे लगता है कि इन दो मूलभूत आवश्यकताओं से उनका न तो उनका कोई सरोकार रहा है और न ही आगे कोई सरोकार पड़ेगा। उनका कहना है शिक्षा पर टैक्स का धन व्यय करना दुरुपयोग है। आज हम ऐसी मानसिकता में आ गए हैं कि हमें सरकार द्वारा शिक्षा और स्वास्थ्य पर धन व्यय करना दुरुपयोग लग रहा है ! यह मानसिक दरिद्रता के लिये किसे दोषी माना जाय ? आज का विमर्श शिक्षा बजट के संदर्भ में है।
सेंटर फॉर बजट एंड पॉलिसी स्टडीज बेंगलुरू के वरिष्ठ शोध सलाहकार, ज्योत्सना झा और मधुसूदन राव ने नयी शिक्षा नीति के आलोक में शिक्षा के बजट और सरकार की प्राथमिकता पर एक अध्ययन किया है। यह लेख उसी शोध पत्र के आंकडो और निष्कर्ष पर आधारित है। शिक्षा का अधिकार और नयी शिक्षा नीति, सरकार के शिक्षा के संबंध में दो महत्वपूर्ण निर्णय हैं। पर सरकार क्या अपने इन दोनों महत्वपूर्ण फैसलों को लेकर गंभीर है ? आइए इसे देखते हैं।
मई, 2019 में जारी, सरकार की नयी शिक्षा नीति के मसौदे में यह सुझाव दिया गया है कि, सभी सरकारी खर्च का 10% शिक्षा पर आज जो व्यय हो रहा है उसे 2030 तक बढ़ा कर 20 % कर दिया जाय। लेकिन बजट में शिक्षा के लिये धन के प्राविधान को देख कर ऐसा लगता है कि इस लक्ष्य को पाना अभी तो असंभव है। अगर 2015 से अब तक सरकार द्वारा शिक्षा बजट की राशि का मूल्यांकन, मुद्रा स्फीति के अनुपात में, किया जाय तो, यह निष्कर्ष निकालता है कि, वह निरंतर घटता जा रही है और यह स्थिति, न केवल केंद्रीय बजट की है, बल्कि राज्यों के बजट की भी है। शिक्षा एक उपेक्षित क्षेत्र बनता जा रहा है।
सबको अच्छी शिक्षा मिले यह हमारा संवैधानिक अधिकार है। शिक्षा के उन्नयन से, बाल विकास और सशक्तिकरण सहित मानव विकास के सभी कारक तत्व एक दूसरे से जुड़े हुये हैं। बेहतर शिक्षा, बच्चों के सर्वांगीण विकास में सहायक होती है। उदाहरण के लिये केरल और हिमाचल प्रदेश जो बच्चों की शिक्षा पर अधिक धन खर्च करते हैं, उनके यहां बाल विकास और सशक्तिकरण का स्तर उन राज्यों की अपेक्षाकृत अधिक है जो शिक्षा पर कम धन व्यय करते हैं। शिक्षा पर अधिक धन खर्च करने वाले उपरोक्त दोनों राज्यों में प्राइमरी, सेकेंडरी और उच्च शिक्षा में छात्रों की उपस्थिति भी अधिक है और शिक्षा के प्रसार के कारण, लैंगिग अनुपात, बाल विवाह जैसी कुरीतियों में भी वहां कमी आयी है।
2012-13 से 2018-19 तक स्कूली शिक्षा पर सरकार के व्यय का आंकड़ा जो सेंटर फॉर बजट एंड पालिसी स्टडीज, द्वारा एकत्र किया गया है को देखें तो आप पाएंगे कि 2014 के बाद शिक्षा के बजट में निरंतर कमी आती गई है। सरकार के इस वादे के बावजूद, कि, शिक्षा बजट बढ़ाया जाएगा, केंद्रीय बजट में शिक्षा के लिये आवंटित धन 2014 -15 में बजट का 4.14% था, और 2019 – 20 में यह घट कर, 3.4% हो गया। जबकि वादा, बजट का 10 % शिक्षा पर व्यय करने और उसे बढ़ा कर, 2030 तक, 20% तक करने का है। 2014 के बाद से पारित हर केंद्रीय बजट में शिक्षा के लिये आवंटन धन क्रमश: कम होता गया है। 2019-20 के बजट में भी यह राशि 3.4 % से बढ़ी नही है। स्कूली शिक्षा के लिये ही नही बल्कि, शिक्षा के अन्य विभागों के लिये भी बजट में लगातार कटौती की गई है। स्कूली शिक्षा के लिये 2014-15 के बजट में जहां कुल धनराशि, 38,600 करोड़ रुपये थी, वही 2018 – 19 के बजट में यह राशि कम हो गयी, जो 37,100 करोड़ रुपये थी। इस अवधि में मुद्रा स्फीति और महंगाई के आंकडो से अभी इस कमी की तुलना नहीं की जा रही है।
सरकार का यह वादा, कि वह 2030 तक 20% बजट की राशि शिक्षा पर व्यय करेगी, के लक्ष्य को पाने के लिये, राज्यों को भी अपना शिक्षा बजट बढ़ाना पड़ेगा। फिलहाल, राज्यो का शिक्षा बजट में व्यय का कुल भाग, 70 से 80% तक होता है। अगर हम नयी शिक्षा नीति की बात करें तो, राज्य सरकारें शिक्षा पर जितना व्यय करती हैं, वह चौदहवें वित्त आयोग की 2014 – 15 से 2019-20, की पंचसाला अवधि में आनुपातिक रूप से कम हुआ है। राज्यों को धन का आवंटन तो बढ़ा है पर राज्यो ने शिक्षा पर वास्तविक व्यय कितना किया है यह तो 2020 – 21 के बजट से ही जाना जा सकेगा। नयी शिक्षा नीति का मसौदा, यह तो कहता है कि राज्य, शिक्षा पर अधिक धन व्यय करेंगे, पर यह स्पष्ट नहीं हैं कि बिना केंद्रीय सहायता के राज्य अपना शिक्षा का बजट बढ़ाएंगे कैसे ?
वर्ष, 2012 – 13 से लेकर 2019 – 20, कुल आठ वर्षों के बजट दस्तावेजों के आधार पर स्कूली शिक्षा में व्यय का विश्लेषण करें तो यह पता चलता है कि केरल, महाराष्ट्र, ओडिशा, मध्यप्रदेश, राजस्थान, और हिमाचल प्रदेश में, सम्पूर्ण सरकारी व्यय के अनुपात में शिक्षा पर व्यय कम हुआ है, जबकि वहां व्यय अधिक होता था। 2014 – 15 में स्कूली शिक्षा पर व्यय, 16.5% था, जो घटकर 2019 – 20 में उपरोक्त राज्यो का 13.52% हो गया है। 2014 – 15 के बाद राज्यो में कर संग्रह तो बढ़ा है पर शिक्षा में केंद्रीय सहायता कम होने से क्रमश: शिक्षा पर व्यय भी कम होता गया है। ऐसा चौदहवें वित्त आयोग की रिपोर्ट के बाद हुआ है। उपरोक्त छह राज्यों में शिक्षा पर व्यय जो 2014 – 15 में 16.05 % था, से घटकर 2018 -19 में 13.52% हो गया और कमी का यह सिलसिला 2014 के बाद शुरू हुआ है। वर्ष 2018 – 19 से वर्ष 2019 – 20 में शिक्षा व्यय में थोड़ी वृद्धि हुयी है, लेकिन यह वृद्धि बजट के अनुमानों में थी, न कि वास्तविक व्यय में। सभी राज्यो ने अपने कर संग्रह में वृद्धि के बावजूद शिक्षा बजट में वृद्धि नहीं की बल्कि उसे कम ही किया है। उदाहरण के लिये केरल का शिक्षा व्यय जहां, 2012 – 13 में 14.45 % था वहीं वह 2018 – 19 में गिर कर 12.8 % हो गया। जबकि वार्षिक वृद्धि दर 12.8% इस अवधि में रही है।
उपरोक्त छह राज्यो में से पांच राज्यों, केरल, मध्यप्रदेश, राजस्थान, महाराष्ट्र और ओडिशा में शिक्षकों के वेतन में व?द्धि हुयी है, जिससे शिक्षा में व्यय अधिक दिख रहा है। शिक्षकों की वेतन वृद्धि के अतिरिक्त शिक्षा में अन्य कार्य जैैसे नए स्कूलों का खोलना, पुराने स्कूलों का स्तर बढ़ाना, विद्यार्थियों को किताबे, तथा अन्य संसाधन उपलब्ध कराना, आदि महत्वपूर्ण विन्दुओं पर व्यय बहुत ही कम हुआ है। जहां तक वित्त आयोग द्वारा धन आवंटन की प्रक्रिया का प्रश्न है वह पूर्णत: पारदर्शी है, पर सरकार उक्त आवंटित धन में से कितना धन राज्यो को वास्तविक रूप से देती है, उसका कोई स्पष्ट विवरण पब्लिक डोमेन पर उपलब्ध नहीं है।
विजय शंकर सिंह
( लेखक सेवानिवृत्त आईपीएस अधिकारी हैं)
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